आज फिर एक पुराना गीत। इसके छंद लंबे हैं, शायद इतना बहाव नहीं, तरलता नहीं जो गीत के लिए चाहिए पर मेरे कुछ पाठकों को यह काफ़ी पसंद आया था। अगर इसको पढ़ते हुए अपनी या किसी और कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आएँ तो टिप्पणी में लिखना न भूलें।
सुबह से शाम से पूछो
नगर से गाम से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे
कि इतना भी कहीं बेनाम
अपना नाम तो नहीं
अगर कोई ढूँढना चाहे तो
मुश्किल काम भी नहीं
कि अब तो बादलों को भी पता है
नाम हर घर का
सफ़ों पर हर जगह टंकित हुआ है
हर गली हल्का
कि अब दुनिया सिमट कर
खिड़कियों में बंद साँकल सी
ज़रा पर्दा हिला और खुल गयी
एक मंद आहट सी
सुगढ़ दीवार से पूछो
खिड़कियों द्वार से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे
ये माना लोग आपस में
ज़रा अब बोलते कम हैं
दिलों के राज़ भी आँखों में भर कर
खोलते कम हैं
ज़िन्दगी़ भीड़ है हर ओर
आती और जाती सी
खुदाया भीड़ में हर ओर
छायी है उदासी सी
मगर तुम बात कर पाओ
तो कोई तो रूकेगा ही
पकड़ कर हाथ बैठा लो
तो घुटनों से झुकेगा ही
हाथ में हाथ ले पूछो
मोड़ के गाछ से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे
फिज़ां में अब तलक अपनों की
हल्की सी हवा तो है
नहीं मंज़िल पता पर साथ
अपने कारवां तो है
वनस्पति में हरापन आज भी
मन को हरा करता
कि नभ भी लाल पीला रूप
दोनों वक्त है धरता
कि मौसम वक्त आने पर
बदलते हैं समय से ही
ज़रा सा धैर्य हो मन में
तो बनते हैं बिगड़ते भी
धैर्य धर आस से पूछो
मधुर वातास से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे
4 टिप्पणियां:
वाह, सुन्दर । दिल की आवाज ।
www.aarambha.blogspot.com
बहुत बढ़िया...
बहुत सुन्दर गीत के लिए बधाई
डा० व्योम
सबसे बढ़िया आशा भी विश्वास भी - पता भी
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