शहर की हवाओं में
कैसी आवाज़ें हैं
लगता है
गाँवों में कोयलिया बोली
नीलापन हँसता है
तारों में
फँसता है
संध्या घर लौट रहा
इक पाखी तकता है
गगन की घटाओं में
कैसी रचनाएँ हैं
लगता है
धरती पर फगुनाई होली
सड़कों पर नीम झरी
मौसम की
उड़ी परी
नई पवन लाई है
मलमल की ये कथरी
धरती के आँचल में
हरियल मनुहारें हैं
लगता है
यादों ने कोई गाँठ खोली
कैसी आवाज़ें हैं
लगता है
गाँवों में कोयलिया बोली
नीलापन हँसता है
तारों में
फँसता है
संध्या घर लौट रहा
इक पाखी तकता है
गगन की घटाओं में
कैसी रचनाएँ हैं
लगता है
धरती पर फगुनाई होली
सड़कों पर नीम झरी
मौसम की
उड़ी परी
नई पवन लाई है
मलमल की ये कथरी
धरती के आँचल में
हरियल मनुहारें हैं
लगता है
यादों ने कोई गाँठ खोली
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