शनिवार, 17 नवंबर 2007

कोई साथ में है

हवा में घुल रहा विश्वास
कोई साथ में है

धूप के दोने
दुपहरी भेजती है
छाँह सुख की
रोटियाँ सी सेंकती है
उड़ रही डालें
महक के छोड़ती उच्छवास
कोई साथ में है

बादलों की ओढ़नी
मन ओढ़ता है
एक घुँघरू
चूड़ियों में बोलता है
नाद अनहद का छिपाए
मोक्ष का विन्यास
कोई साथ में है

9 टिप्‍पणियां:

Sanjay Gulati Musafir ने कहा…

सुन्दर रचना पूर्णिमा

नीरज गोस्वामी ने कहा…

"धूप के दोने
दुपहरी भेजती है
छाँह सुख की
रोटियाँ सी सेंकती है
उड़ रही डालें
महक के छोड़ती उच्छवास
कोई साथ में है"
अति सुंदर पंक्तियाँ. आप के भाव पूर्ण लेखन को देख कर सच में मन में इर्षा होती है .
मेरे ब्लॉग पर आप का इंतज़ार था है और रहेगा.
नीरज

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर!!!

Pratyaksha ने कहा…

सुंदर ! हमेशा की तरह ।

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

धन्यवाद प्रत्यक्षा कहाँ हो? कैसी हो?
बहुत दिनों से तुम्हारी नई कहानी का इंतज़ार है अभिव्यक्ति में...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

बहुत सुन्दर पूर्णिमा जी .. कर ख़ास कर , अन्तिम पंक्तियाँ ...!!

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुंदर!!

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

संजीत और लावण्या को भी धन्यवाद

सहज साहित्य ने कहा…

आपकी कविता पहाड़ी से झरता एक झरना-खुशबू लिए साथ ,छूने को सारा आकाश ।
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु