इस बार लखनऊ गई तो पिताजी ने दादा जी का यह प्रमाण पत्र मुझे दिया। कागज पुराना होकर खराब हो गया है मगर इबारत साफ है। इस प्रमाण पत्र में दर्ज है कि उन्होंने हाई स्कूल में हिंदी में विशेष योग्यता प्राप्त की थी। बाद में वे एम.बी.बी.एस. डाक्टर बने। दादी बड़े गर्व से बतातीं कि २७ साल की आयु में उन्होंने बिना फेल हुए एम.बी.बी.एस. की डिग्री प्राप्त की थी।
"एम.बी.बी.एस में तो सब अच्छे पढ़ने वाले ही विद्यार्थी चुनकर लिये जाते हैं फेल तो कोई नहीं होता।" मैंने दादी से कहा था।
दादी ने बताया उस समय प्रवेश परीक्षा का नियम नहीं था। जिसके पास भी डाक्टरी के पढ़ाई के लायक पैसे होते वह प्रवेश ले लेता और फेल हो-होकर आगे बढ़ता रहता। वे परिवार में दादाजी के समवयस्क अन्य सदस्यों को गिनातीं देखो वे १४ साल में डाक्टरी पास हुए और वे १० साल में इंजीनियरिंग। उस समय डाक्टर और इंजीनियर परिवारों में बहुत कम हुआ करते थे। पढ़ने लिखने का शौक, योग्यता और साधन कम थे। घरों और सड़कों पर बिजली नहीं होती थी। आज जबकि कि घर-घर पढ़े लिखे ऊँची डिग्रियों वाले लोग होते हैं बहुत ही कम लोग हिंदी पढ़ने और उसमें विशेष योग्यता पाने की ओर अपना ध्यान रखते हैं। मुझे अनायास अपने दादा जी पर गर्व हो आता है कि उन्होंने पराधीन भारत में भी अपनी भाषा सीखने की ओर इतना ध्यान दिया।
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