पिछले दो दिन अभिव्यक्ति और अनुभूति का काफ़ी काम करना हुआ, सो यहाँ कुछ लिखा नहीं जा सका।
आज प्रस्तुत है एक बहुत पुराना गीत--
जानेमन नाराज़ ना हो
समय पाखी उड़ गया तो
भाग्य लेखा मिट गया तो
पोर पर
अनमोल ये पल
क्या पता
कल साथ ना हों
जानेमन नाराज़ ना हो
ज़िंदगी एक नीड़ सी है
हर तरफ़ एक भीड़ सी है
कल ये तिनके
ना हुए तो
हम न जाने
फिर कहाँ हों
जानेमन नाराज़ ना हो
9 टिप्पणियां:
बढ़िया है। आपकी कविता पढ़कर दो कवितायें याद आईं-
१.आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
-रमानाथ अवस्थी
२. पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो,
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो।
-अंसार कंबरी
बहुत बढ़िया...
सुन्दर ।
www.aarambha.blogspot.com
पूर्णिमा जी,
सुन्दर भाव भरे शब्द हैं
मेरे शब्दों में
प्यार न था तो अपना बनाया क्यों
रेत पर लिख कर मेरा नाम मिटाया क्यों
टिप्पणियों में जो नई पंक्तियाँ मिलीं उनको पढ़कर बहुत अच्छा लगा शायद 5-7 और होतीं तो एक लेख बन जाता। शायद कुछ दिन बाद वह दिन आए जब बहुत सी पंक्तियाँ मिलें किसी कविता से मिलती जुलती।
अति सुंदर और भाव पूर्ण कविता. आप बहुत अच्छा लिखती है.
सुंदर कविता!!
पहले किसी को ढूंढ लूं फ़िर उसे आपकी यह कविता सुनाऊंगा
पोर पर
अनमोल ये पल
kashish sii hai in kuch shabdon me....
सुन्दर अनुभूति की,भाव पूर्ण अभिव्यक्ति -
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