गुरुवार, 31 जनवरी 2008
उदासियों के पत्ते
वसंत के तिकड़ी गीतों के क्रम में आज हाज़िर है दूसरा गीत। शायद इस रूप में यह गीत नहीं सिर्फ कविता है...इसे लेकर हीरा चड्ढा के पास गई थी। वे आकाशवाणी इलाहाबाद में प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव थीं। नए लिखने वालों को सिखाना समझाना बड़े प्यार से करतीं। हमारी रचनाएँ प्रसारित तो करती ही थीं। गीत देखकर बोलीं, "पूर्णिमा तुम्हारा यह गीत तो अच्छा है पर जैसे जैसे आगे बढ़ता गया है अपने छंद से भटकता गया है।" उस समय मुझे लगा कि यह ऐसे ही ठीक है पर अब समझती हूँ कि उन्होंने क्या कहा था। बहुत सी बातें बहुत देर में समझ आती हैं। अगर यह अगले कविता संग्रह में शामिल हुआ तो सुधार दूँगी। हीरा दीदी आज इस दुनिया में नहीं हैं पर उनकी याद सदा रहेगी। उनके साथ ही याद आ रहे हैं निर्मला ठाकुर और विजय बोस जिन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ना सिखाया। शांति मेहरोत्रा, विपिन शर्मा, आशा ब्राउन...प्यारे इलाहाबाद के प्यारे दिन...
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते
पीली धूप खिंची खिंची सी
खड़ी रही देहरी पर
भीतर आए तो कैसे
लगे भौंकने आंगन में
एकाकीपन के कुत्ते
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते
सूरज के सात घोड़ों वाला रथ
आया ही नहीं
अभी तलक सोया है सारथी
मुँह ढक कर
घरवाली उषा की उनींदी आँखें
न जगाती हैं सारथी को
न देखती हैं देहरी पर
कैसे होगी सुबह?
अरे, कोई है? कोई है?
बाहर से चिल्लाता है वसंत
लॉन में खिलखिलाती है पीली सरसों
अब यहाँ कोई नहीं
कहीं और चले गये
खुशियों के जत्थे
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते !
आज न फूल हैं न तितलियाँ न पतंगे
न रंग न झरने न गीत
चिड़ियां भी तो आती नहीं
कभी हमीं फूल थे हम ही तितली
हमीं पतंगें, रंग और झरने
हमीं गुनगुनाते थे चिड़ियों से यहाँ-वहाँ
अब तो सिर्फ
दिन बीतते हैं
धीरे धीरे
चुपचाप खिड़की में से
हिला हिला कर हाथ
बुलाता है अमलतास
चुप हैं दीवारों पर टेसू के ठप्पे
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते।
मंगलवार, 29 जनवरी 2008
आवारा वसंत
पिछले दो दिनों से सर्दी की कड़की कम है, पंचांग कहता है कि वसंत पंचमी 11 फ़रवरी को है, यानी समय आगया वसंत की कविताओं की खोज का। पुरानी फ़ाइलें पलटती हूँ... मार्च 1979 की 3 कविताएँ हैं वसंत पर। बदलते मौसम और उनसे जुड़े पर्व जीवन में उल्लास भरते हैं लेकिन इनमें थोड़ी उदासी है। लगभग 30 वर्ष पुरानी इन तीन कविताओं में से एक आज पोस्ट कर रही हूँ। इसमें 'तरह' शब्द की वर्तनी को बदल कर 'तरहा' किया गया है। दरअसल कविता जब दिमाग में उपजी तो उसी उच्चारण के साथ जन्मी थी। लगा कि पाठक तक वह बात पहुँचनी चाहिए। बोलते समय हम भी कभी कभी 'तरह' को 'तरहा' कहते हैं। कहते हैं ना? कोशिश करूँगी कि बाकी दो कविताएँ भी वसंत के जाने से पहले यहाँ रख सकूँ।
हाँ अनुभूति का 11 फ़रवरी का अंक वसंत विशेषांक होगा। आप सभी की वसंत कविताओं का स्वागत है। वसंत का कोई भी रंग हो चलेगा, बस कविता 31 जनवरी की रात 12 बजे तक ज़रूर भेज दें पता है teamanu(at)anubhuti-hindi.org. आप फ़िलहाल आवारा वसंत का आनंद लें...मैं आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा में हूँ।
अबकी साल
वसंत यों ही आवारा घूमा
मेरी तरहा
कमरे से बगिया तक
बगिया से चौके में
चौके की खिड़की से
चमकीली नदिया तक
पटरी पटरी
दूर बहुत शिव की बटिया तक
मेरे ही संग ठोकर ठोकर रक्त रंगे ढाक के पावों
मौसम भी बंजारा घूमा
मेरी तरहा।
अबकी साल
वसंत यों ही आवारा घूमा
मेरी तरहा
पटरी से पर्वत तक
पर्वत से मंदिर में
अष्टभुजा घाटी से
संतों की कुटिया तक
सीढ़ी सीढ़ी
धुआँ धुआँ सीली आँखों में
पथ पर खुदे हुए नामों से मन के मिटे हुए नामों तक
हर इक पल रतनारा घूमा
मेरी तरहा
अबकी साल
वसंत यों ही आवारा घूमा
मेरी तरहा
मंगलवार, 15 जनवरी 2008
बूँदों में बसता है कोई
पिछले तीन-चार दिनों से रिमझिम जारी है। धूप का एकाध छींटा ही दिखाई दिया है बीच में, शारजाह में बारिश के नाम पर साल का यही एक हफ़्ता होता है। बस इसी हफ़्ते में साल भर का सावन जीना हो तो कैसे जिएँगे? एक पुराना गीत हाज़िर है, दुनिया भर में छाई सर्दी के मौसम में बारिश के छींटे का यह तड़का, आशा है मज़ा देगा। जावा एपलेट से परहेज़ ना हो तो यहाँ देखें अभिव्यक्ति के शुरू के दिनों में उपहार स्तंभ के लिए बनाया था।
झलमिल झिलमिल
रिमझिम रिमझिम
सपनों के संग
हिलमिल हिलमिल
बूँदों में बसता है कोई
आहट में सजता है कोई
धीरे धीरे इस खिड़की से
मेरी सांसों के बिस्तर पर
खुशबू सा कसता है कोई
हौले हौले
डगमग डोले
मन संयम के
कंगन खोले
कलियों सा हँसता है कोई
मौसम सा रचता है कोई
रातों की कोरी चादर पर
फिर सरोद के तन्मय तन्मय
तारों सा बजता है कोई
टपटिप टुप टुप
लुकछिप गुपचुप
मन मंदिर के
आंगन में रुक
कहने को छिपता है कोई
पर फिर भी दिखता है कोई
वाष्प बुझे धुंधले कांचों पर
साम ऋचा सा मद्धम मद्धम
यादों को लिखता है कोई
वही कहानी
दोहराता है
बार बार
आता जाता है
मस्ताना मादल है कोई
आँखों का काजल है कोई
बारिश को अंजुरी में भर कर
ढूँढ रहा वन उपवन में घर
सावन का बादल है कोई
झलमिल झिलमिल
रिमझिम रिमझिम
सपनों के संग
हिलमिल हिलमिल
बूँदों में बसता है कोई
झलमिल झिलमिल
रिमझिम रिमझिम
सपनों के संग
हिलमिल हिलमिल
बूँदों में बसता है कोई
आहट में सजता है कोई
धीरे धीरे इस खिड़की से
मेरी सांसों के बिस्तर पर
खुशबू सा कसता है कोई
हौले हौले
डगमग डोले
मन संयम के
कंगन खोले
कलियों सा हँसता है कोई
मौसम सा रचता है कोई
रातों की कोरी चादर पर
फिर सरोद के तन्मय तन्मय
तारों सा बजता है कोई
टपटिप टुप टुप
लुकछिप गुपचुप
मन मंदिर के
आंगन में रुक
कहने को छिपता है कोई
पर फिर भी दिखता है कोई
वाष्प बुझे धुंधले कांचों पर
साम ऋचा सा मद्धम मद्धम
यादों को लिखता है कोई
वही कहानी
दोहराता है
बार बार
आता जाता है
मस्ताना मादल है कोई
आँखों का काजल है कोई
बारिश को अंजुरी में भर कर
ढूँढ रहा वन उपवन में घर
सावन का बादल है कोई
झलमिल झिलमिल
रिमझिम रिमझिम
सपनों के संग
हिलमिल हिलमिल
बूँदों में बसता है कोई
मंगलवार, 8 जनवरी 2008
नया साल मंगलमय हो
नया साल मंगलमय हो
जो सपने हों सब अपने हों
हर मेहनत के
फल दुगने हों
अक्षत रोली तीज या होली
सा जीवन सुखमय हो
नया साल मंगलमय हो।
मित्रों की सदभावनाएँ हों
मन में ऊँची
कामनाएँ हों
गीत की धुन-सा किसी शगुन-सा
घर आँगन मधुमय हो
नया साल मंगलमय हो
हों पूरी सारी आशाएँ
साम स्वस्ति से
सजें दिशाएँ
सीप में मोती दीप में ज्योति
जैसा सुफल समय हो
नया साल मंगलमय हो
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