
एक था लखटकिया राजा। लखटकिया यानी जिसके पास एक लाख रुपये हों। बड़े राजों महाराजों के ख़ज़ानों में तो सैकड़ों नौलखे हार होते थे। नौलखे यानी नौ लाख रुपयों के। पर लखटकिया राजा की शान में इससे कोई कमी नहीं होती थी। लखटकिया हुआ तो क्या, था तो वह राजा ही। इतिहास ने करवट ली। हारों का समय गया और कारों का समय आया। नौ लाख वाली कारों के मालिक भी कम नहीं होंगे भारत में, पर लखटकिया राजा की लाज रखी रतन टाटा ने। बने रहें लखटकिया राजा बनी रहे लखटकिया कार!
हार, कार और बदलता संसार एक तरफ़, हम ठहरे शब्दों के सिपाही सो, सलाम उस पत्रकार को जिसने लखटकिया जैसे प्यारे और पुराने शब्द में फिर से जान फूँकी, नैनो-रानी के बहाने। हिंदुस्तानी चैनलों का इस नन्हीं सी जान पर फ़िदा हो जाना तो स्वाभाविक है लेकिन मध्यपूर्व के अखबार भी रंगे पड़े थे ढाई हज़ार डॉलर में मिलने वाली दुनिया की सबसे सस्ती कार के किस्सों से। किस्सा तो नैनो के नाम का भी है पर वह फिर कभी।
सुना है नैनोरानी लखटकिया राजाओं की सेवा में आने से पहले ही मुसीबतों से घिर गयीं। महल उठाकर भागना पड़ा। बहुत दिनों से कोई खबर नहीं क्या किसी को मालूम है कि नैनोरानी कब आ रही हैं?