मंगलवार, 6 नवंबर 2007

हरी घाटी

फिर नदी की बात सुन कर
चहचहाने लग गई है
यह हरी घाटी हवा से बात कर के
लहलहाने लग गई है

झर रहे झरने हँसी के
उड़ रहे तूफ़ान में स्वर
रेशमी दुकूल जैसे
बादलों के चीर नभ पर
और धरती रातरानी को
सजाने लग गई है

यह हरी घाटी हवा से बात कर के
महमहाने लग गई है

गाड़ कर
पेड़ों के झंडे
बज रहे वर्षा के मादल
आँजती वातायनों की
चितवनों में सांझ काजल
और बूँदों की मधुर आहट
रिझाने लग गई है

यह हरी घाटी हवा से बात कर के
गुनगुनाने लग गई है

1 टिप्पणी:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

हमें गाना गुनगुनाना नहीं आता
पर इसे पढ़ कर
गुनगुनाने हम लग गए हैं

गीत की सफलता की
हरी घाटी में
घुमघुमाने हम लग गए हैं