रविवार, 4 नवंबर 2007

बज रहे संतूर

बज रहे संतूर बूँदों के
बरसती शाम है

गूँजता है
बिजलियों में
दादरे का तीव्र सप्तक
और बादल रच रहे हैं
फिर मल्हारों के
सुखद पद
मन मुदित नभ भी धनकता ढोल
मीठी तान है

इस हवा में
ताड़ के करतल
निरंतर बज रहे हैं
आह्लादित
सागरों के लहर
संयम तज रहे हैं
उमगते अंकुर धरापट खोल
जग अनजान है

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