सोमवार, 28 मार्च 2011

मंदी की ठंडी में उपदेशों की बंडी


मार्च का महीना है, बदलते मौसम का ख़ुमार और बुखार दोनों फ़िजां में हैं। वसंत की सेल में खरीदारियों से इमारात के बाज़ार गरम हैं लेकिन मंदी की ठंडी से देश की नसों में पैदा हुई थरथराहट अभी थमी नहीं है। विज्ञापन की चाबुक नई पीढ़ी को ऐसा हाँकती है कि कितने भी पैसे जेब में आएँ महीने का अंत होता है फाकामस्ती से। इसके विरुद्ध कमर कसने के लिए स्थानीय अखबार ने एक अभियान चलाया है जिसका नारा है वाओ (WOW)। विस्तार में कहें तो वाइप आउट वेस्ट। उद्देश्य है नागरिकों को दिवालिया होने से बचाना। अखबार के इस काम में शामिल हैं शहर के जानेमाने अर्थशास्त्री जो भोली जनता को पैसे की बरबादी रोकने के सिद्ध मंत्र देने में लगे हैं। भई ऐसी विद्या मिले तो कौन न लेना चाहेगा। तो प्रस्तुत हैं पैसे की बरबादी रोकने के रामबाण नुस्ख़े-

  • अपने खर्च की दैनिक डायरी लिखना सीखो। बिना यह जाने कि कितना खर्च हो रहा है कभी पता नहीं चलेगा कि कौन सा खर्च रोका जाए। अगर बहुत पैसे बचाना संभव नहीं है तो थोड़े थोड़े पैसे हर महीने ज़रूर बचाओ ये लंबे समय में बड़ी बचत साबित होंगे।
  • क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल केवल उस काम के लिए करो जिसके लिए नकद पैसे नहीं भरे जा सकते। कार्ड का बिल नियम से प्रतिमाह भरो ताकि अनावश्यक ब्याज न चुकाना पड़े। अगर बार बार बैंक द्वारा धन भेजने की ज़रूरत पड़ती है तो बैंक की पैसे स्थानांतरण फ़ीस पर कड़ी नज़र रखो। अगर यह दूसरे बैंकों की तुलना में ज्यादा है तो बैंक बदल दो।
  • ५०,००० दिरहम से अधिक मुद्रा परिवर्तन करना है तो मनी एक्सचेंज की थोक दर वाली छूट का लाभ उठाओ। धन के निवेश की जिन योजनाओं पर पहले से अमल हो रहा है उन पर फिर से विचार करो। अगर वे कारगर नहीं हैं तो बदल डालो।

यही नहीं, ये विद्वान भारतीय बड़े-बूढ़ों की तरह आदतों को सुधारने की सलाह देते हुए कहते है। -

  • सिगरेट पीना बंद करो, क्यों कि एक पैकेट सिगरेट पर रोज ६ दिरहम फुँक जाते हैं। यह आदत छोड़ने पर, साल भर में होती है २१६० दिरहम की बचत।
  • कावा (एक तरह की कॉफी जो इमारात में खूब पी जाती है।) के तीन प्याले यानी १४ दिरहम रोज़। इसको बंद करो और साल में ५०४० रुपये बचाओ।
  • घर में २५ की जगह सिर्फ १२ बल्ब जलाओ और साल भर में १०९५ दिरहम बचाओ।
  • हफ़्ते में दो बार बाहर खाने की आदत पर अंकुश रखो। जिन जगहों पर दो लोगों के खाने का खर्च १०० दिरहम से ज्यादा है, खाना मत खाओ और साल भर में १०,४०० दिरहम बचाओ।
  • बागबानी नहीं आती तो बगीचा मत लगाओ क्यों कि ज्यादा पानी देकर तुम पानी तो बरबाद करते ही हो पौधों को भी मारते हो।
  • कसरत करने की मशीन मत खरीदो, घर के बाहर निकलो और सड़क पर पैदल चलो।

कोई नई बात पता लगी? नहीं लगी न? इसमें से आधी बातें तो हमारी माँ ने मार मार के बड़े होने से पहले ही सिखा दी थीं। जो कमी रह गई थी वह बाबूजी ने नौकरी लगते ही टोंक-टाक कर पूरी कर दी। हम भारतीय यह सब घुट्टी में सीखते हैं। आशा है बाकी लोगों को मंदी की ठंडी में यह बंडी काम आएगी। भला हो ऊपरवाले का जिसने आर्थिक विशेषज्ञ नामक जीव से मिलवाया और हमें पता लगा कि माँ और बाबूजी तो सालों पहले इस ज्ञान को धारण करने वाले विशेषज्ञ बन चुके थे। हे प्रभु, माफ़ कर देना, हम तो उन्हें आजतक निरा माँ और बाबूजी ही समझते रहे।

बुधवार, 23 मार्च 2011

पान बनारस वाला

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खानपान हो, आनबान हो, जान पहचान हो और पान न हो तो ओंठों पर मुस्कान नहीं, पर यह पान बरसों से इमारात में सरकारी आदेश से बंद है। बंद इसलिए कि पान गंदगी फैलाता है। कोनों और स्तंभों के उस सारे सौंदर्य को मटियामेट कर देता है जिस पर यहाँ की सरकार पैसा पानी की तरह बहाती है।

सारी बंदी के बावजूद पान प्रेमी पान ढूँढ लेते हैं और गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते। इस सबसे निबटने के लिए यहाँ के एक प्रमुख अखबार गल्फ़ न्यूज़ ने एक पूरा पन्ना पान के विषय में प्रकाशित किया। साथ ही मुखपृष्ठ पर भी इसका बड़ा बॉक्स और लिंक दिया। पान के लाभ-हानि, स्वास्थ्य पर प्रभाव, पान के तत्व और पान से जुड़ी सांस्कृतिक बातों को इसमें शामिल किया गया। कुछ ऐसे स्थानों के चित्र भी दिए गए जिन्हें पीक थूककर गंदा गया गया है। देखकर लगा जैसे पान सभ्यता का नहीं असभ्यता का परिचायक है।

एक समय था जब पान आभिजात्य का प्रतीक था। यह राज घरानों के दैनिक जीवन में रचा-बसा था। इसमें पड़ने वाले कत्थे, चूने, सुपारी और गुलुकंद स्वास्थ्यवर्धक समझे जाते थे। पान रचे ओंठ सौदर्य का प्रतीक थे एवं पानदान और सरौते का सौदर्य हमारी शिल्प कला की सुगढ़ता को प्रकट करता था। पान पर्वों, गोष्ठियों और विवाह जैसे धार्मिक कृत्यों का आवश्यक अंग होता था। यही नहीं कला और संस्कृति में पानदान और पान की तश्तरी तक का विशेष महत्व था।

अंग्रेजी सभ्यता के सांस्कृतिक हमले से जूझते-जूझते कब पान अपनी रौनक खो बैठा पता ही न चला। न उगालदान साथ लेकर चलने वाले नौकर का ज़माना रहा और न हम स्वास्थ्य और संस्कृति से इसे ठीक से जोड़े रख सके। वह आम आदमी का व्यसन भर बनकर रह गया। अनेक असावधानियों से बचाकर रखते हुए अगर हम पान का संयमित प्रयोग कर पाते तो इसकी शान के कारण विश्व में सम्मानित भी हो सकते थे। लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका।

अखबार में प्रकाशित चित्रों के देखकर दुख हुआ पर उसके विषय में बात करना बेकार है क्यों कि उससे कहीं ज्यादा पीक भारतीय इमारतों के कोनों में देखी जा सकती है।

मज़ेदार बात यह थी कि लगे हुए पान का जो चित्र दिया गया वह उल्टा था- चिकना हिस्सा ऊपर और उभरा हिस्सा नीचे, चिकने हिस्से पर रखे थे- कत्था, चूना और सुपारी। यानी यह पान, पान की शान जानने वाले किसी उस्ताद पनवाड़ी हाथों में नहीं है बल्कि पान की शान से अनजान किसी फोटोग्राफर के नौसिखिये माडल के हाथ में है। इस चित्र को अखबार ने अपने पन्ने की शोभा बढ़ाने के लिये बनवाया होगा। आप भी देखें।