मंगलवार, 20 नवंबर 2007

ताड़ों की क्या बात

हिंदी प्रदेश के बहुत कम लोग जानते होंगे कि मध्यपूर्व में ताड़ों की छाया बड़ी ही शीतल होती है। यहाँ के रेगिस्तान में जहाँ कहीं मरूद्यान होता है वहाँ खजूर या ताड़ के ही पेड़ होते हैं। मौसम आने पर इन पेड़ों में से बहुत महीन सफ़ेद रंग के फूल झरते हैं जो उनकी छाया को अद्भुत सौंदर्य प्रदान करते हैं। तो आज की पोस्ट मेरे बगीचे के ताड़ों के नाम।

हाथ ऊपर को उठाए
मांगते सौगात
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

गहन ध्यान में लीन
हवा में
धीरे-धीरे हिलते
लंबे लंबे रेशे बिलकुल
जटा जूट से मिलते
निपट पुराना वल्कल पहने
संत पुरातन कोई न गहने

नभ तक ऊपर उठे हुए हैं
धरती के अभिजात
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

हरसिंगार से श्वेत
रात भर
धीरे धीरे झरते
वसुधा की श्यामल अलकों में
मोती चुनकर भरते
मंत्र सरीखे सर सर बजते
नवस्पंदन से नित सजते

मरुभूमि पर रखे हुए है
हरियाली का हाथ
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

7 टिप्‍पणियां:

Pratyaksha ने कहा…

सचमुच ताड़ों की क्या बात !

Shiv ने कहा…

बहुत बढ़िया...मैंने पहली बार ताड़ के बारे ऐसी सोच देखी...नहीं तो यही सुनते आए थे कि;

छाया नहीं होती खजूर के दरख्त में
न बांधिए उम्मीद बड़े आदमी के साथ.

Sanjeet Tripathi ने कहा…

क्या बात है , क्या बात है! वाकई, ताड़ों पर ऐसी नज़र, बहुत खूब!!

Tarun ने कहा…

वाह आपकी भी क्या बात

Asha Joglekar ने कहा…

वाह पूर्णिमाजी ताढों को लेकर इतनी सुंदर कविता
कया बात है आपकी !

बालकिशन ने कहा…

रोचक जानकारी और एक अति सुंदर कविता के लिए धन्यवाद.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

हरसिंगार से श्वेत
रात भर
धीरे धीरे झरते
वसुधा की श्यामल अलकों में
मोती चुनकर भरते
मंत्र सरीखे सर सर बजते
नवस्पंदन से नित सजते

मस्र्भूमि पर रखे हुए है
हरियाली का हाथ
अद्भुत पंक्तियाँ....वाह.आप के पास शब्दों का असीम भंडार और कल्पना की ऐसी उड़ान है जो विस्मित कर देती है. ऐसी विलक्षण प्रतिभा हर किसी के पास नहीं होती. मेरी बधाई स्वीकार करें.
नीरज