अमन चैन के भरम पल रहे -
रामभरोसे!
कैसे-कैसे शहर जल रहे -
राम भरोसे!
जैसा चाहा बोया-काटा
दुनिया को मर्ज़ी से बाँटा
उसकी थाली अपना काँटा
इसको डाँटा उसको चाँटा
रामनाम की ओढ़ चदरिया
कैसे आदमज़ात छल रहे-
राम भरोसे!
दया धर्म नीलाम हो रहे
नफ़रत के ऐलान बो रहे
आँसू-आँसू गाल रो रहे
बारूदों के ढेर ढो रहे
जप कर माला विश्वशांति की
फिर भी जग के काम चल रहे-
राम भरोसे!
भाड़ में जाए रोटी दाना
अपनी डफली अपना गाना
लाख मुखौटा चढे भीड़ में
चेहरा लेकिन है पहचाना
जानबूझ कर क्यों प्रपंच में
प्रजातंत्र के हाथ जल रहे-
राम भरोसे!
6 टिप्पणियां:
आप की ये रचना पढ़कर वो लाईनें याद आ गयी, "अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे का काम। दास मलूका कह गये सबके दाता राम"
एक खूबसूरत गीत के लिये बधाई स्वीकारें
बहुत बढिया रचना लिखी है।बधाई।
पूर्णिमा जी
इस बार आप का अलग ही रंग देखने को मिला. आज कल के हालत पे करारा व्यंग.
बेहतरीन कविता....वाह वाह
नीरज
आपकी कविता मे व्यंग्य होते हुए भी एक कटु सच्चाई छिपी है. सच मे सब कुछ राम भरोसे ही चल रहा है. अपना ब्लॉग भी.
पूर्णिमा जी
एक अच्छी कविता के लिए बहुत'बहुत बधाई
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