सोमवार, 19 नवंबर 2007

मनके

टुकड़े टुकड़े टूट जाएँगे
मन के मनके
दर्द हरा है

ताड़ों पर सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

गुलमोहर-सी जलती है
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी भटक रहीं सब
प्रेम कथाएँ
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है

10 टिप्‍पणियां:

Krishan lal "krishan" ने कहा…

अच्छा है कि रो डालो ,
दबा रहा तो लावा बन के निकलेगा

DUSHYANT ने कहा…

kya likha hai,
apne adbhut hai , pyara ban padaa hai

अमिताभ मीत ने कहा…

आहा ! बहुत ही सुंदर पूर्णिमा जी, बस कमाल है.

आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है

.......... किंतु वक़्त के साथ ह्रदय भी अपने ज़ख्म शायद कुछ भूलने-सा लगे ...

नीरज गोस्वामी ने कहा…

धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
उदास रचना में आशा की किरण....
वाह अति सुंदर रचना.
नीरज

Devi Nangrani ने कहा…

पूर्णिमा जी

धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!

देवी

Devi Nangrani ने कहा…

पूर्णिमा जी

धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!

देवी

Devi Nangrani ने कहा…

पूर्णिमा जी

धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!

देवी

Devi Nangrani ने कहा…

पूर्णिमा जी

धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!

देवी

Devi Nangrani ने कहा…

पूर्णिमा जी

धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!

देवी

Devi Nangrani ने कहा…

पूर्णिमा जी

धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!

देवी