टुकड़े टुकड़े टूट जाएँगे
मन के मनके
दर्द हरा है
ताड़ों पर सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
गुलमोहर-सी जलती है
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी भटक रहीं सब
प्रेम कथाएँ
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है
10 टिप्पणियां:
अच्छा है कि रो डालो ,
दबा रहा तो लावा बन के निकलेगा
kya likha hai,
apne adbhut hai , pyara ban padaa hai
आहा ! बहुत ही सुंदर पूर्णिमा जी, बस कमाल है.
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है
.......... किंतु वक़्त के साथ ह्रदय भी अपने ज़ख्म शायद कुछ भूलने-सा लगे ...
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
उदास रचना में आशा की किरण....
वाह अति सुंदर रचना.
नीरज
पूर्णिमा जी
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!
देवी
पूर्णिमा जी
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!
देवी
पूर्णिमा जी
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!
देवी
पूर्णिमा जी
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!
देवी
पूर्णिमा जी
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!
देवी
पूर्णिमा जी
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?
पहली बार आप के इस महकते गुलशन में आ पहुंचे हैं
ज़ख़्म शादाब अब भी है मेरे
तुम खिज़ाओं की बात मत करना.!!!
देवी
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