सड़कों पर
सड़कों पर हो रही सभाएँ
राजा को-
धुन रही व्यथाएँ
प्रजा
कष्ट में चुप बैठी थी
शासक की किस्मत ऐंठी थी
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
राजतंत्र की हुई ठिठोली
अखबारों-
में छपी कथाएँ
दुनिया भर
में आग लग गई
हर हिटलर की वाट लग गई
सहनशीलता थक कर टूटी
प्रजातंत्र की चिटकी बूटी
दुनिया को-
मथ रही हवाएँ
जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ
16 टिप्पणियां:
देश और दुनिया के बारे में संवेदनशील कथन!
आज के राजनीतिक परिवेश पर सुंदर कविता के लिए बधाई स्वीकारें पूर्णिमा जी :)
समकालीन परिदृश्य का चित्रण है।
नहीं जानते
किसके आगे
बन्दूकों की नालें होगी,
good one.. ekdam satik aur chutili.
सहन शक्ति की भी एक सीमा होती है...
सामयिक रचना
"जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ "
रचनाकार न केवल वर्तमान का प्रहरी होता है, बल्कि भविष्य का वक्ता भी होता है. आपकी यह रचना वर्त्तमान और भविष्य की जिन चिंताओं को गीतायित कर रही है, वह श्लाघनीय है.
बहुत ही गहरी सोच का मुआयना करवाया है ,
Its fist time to me that I m your blog, its really nice.
समकालीन परिदृश्य का चित्रण है। धन्यवाद|
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
शानदार कविता के लिए बधाई....
आप सच में एक शिल्पकारा हैं।
'सड़को पर बंदूक टहलती'नया प्रयोग लगा और बेहद पसंद आया। एक सादगी भरी व्यंग्य चुटकी है।
हर हिटलर की वाट लग गई...........बहुत ही सुंदर नवगीत पूर्णिमा जी| बधाई|
बहुत सुंदर नवगीत पूर्णिमा जी बधाई और शुभकामनाएं
सुंदर भी सामयिक भी। बधाई।
बहुत सुंदर पूर्णिमाजी.
बहुत सुंदर पूर्णिमाजी.
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