मंगलवार, 6 नवंबर 2007

खोया खोया मन

जीवन की आपाधापी में
खोया खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन
लगता है

दौड़ बड़ी है समय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है

चैन कहाँ अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर खप कर के-
जितना जोड़ा
कितना भी हो कम लगता है

सफलताओं का नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा-
ऐसा हर पल
सच में बौनापन लगता है

खून ख़राबा मारा मारी
कहाँ जाए जनता बेचारी
आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन लगता है

1 टिप्पणी:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

बहुत उम्दा गीत है. बधाई.
आपके और गीत पढने की इच्छा है.
दीपावली की शुभकामनाएं.