शनिवार, 10 नवंबर 2007

एक दीप मेरा

दुनिया के मेले में
एक दीप मेरा
ढेर से धुँधलके में
ढूँढ़ता सवेरा

वंदन अभिनंदन में
खोया उजियारा
उत्सव के मंडप में
आभिजात्य सारा
भरा रहा शहर
रौशनी से हमारा
मन में पर छिपा रहा
जूना अंधियारा
जिसने अंधियारे का साफ़ किया डेरा
जिसने उजियारे का रंग वहां फेरा
एक दीप मेरा

सड़कों पर भीड़ बहुत
सूना गलियारा
अंजुरी भर पंचामृत
बाकी जल खारा
सप्त सुर तीन ग्राम
अपना इकतारा
छोटे से मंदिर का
ज्योतित चौबारा
जिसने कल्याण तीव्र मध्यम में टेरा
जिससे इन साँसों पर चैन का बसेरा
एक दीप मेरा

8 टिप्‍पणियां:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

बहुत सुन्दर गीत, पूर्णिमा जी.
इस गीत को पढा तो लगा कि यहाँ हमारी ही क्षति है कि हमारा लोग आपके इस रचनाकार रूप से अब तक अपरिचित थे.
अब आपके और गीत पढने की इच्छा बराबर बनी रहेगी.

Sanjay Gulati Musafir ने कहा…

सुन्दर लयबद्ध रचना

मीनाक्षी ने कहा…

दुनिया के मेले में
एक दीप मेरा
ढेर से धुँधलके में
ढूँढ़ता सवेरा
---------- भाव-भीनी रचना...दीप पर्व मंगल मय हो.

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत ही सुंदर पूर्णिमा जी. इतनी अच्छी रचना की तारीफ क्या हो मुझ से ..... अजीब सी सरलता, शुद्धता, अपनापन ..... और आप की शैली... मन प्रसन्न है ......

ख़ास तौर पे इन पंक्तियों ने तो मन मोह लिया :

अंजुरी भर पंचामृत
बाकी जल खारा
सप्त सुर तीन ग्राम
अपना इकतारा
छोटे से मंदिर का
ज्योतित चौबारा
.................................

बस कमाल है.
शुक्रिया

अनूप शुक्ल ने कहा…

वाह बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ने में।

bhuvnesh sharma ने कहा…

अरे कमाल है मुझे आज ही आपके चिट्ठे का लिंक मिला चिट्ठाजगत से. कविता पढ़कर अच्‍छा लगा.

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

जिस जिस ने गीत पसंद किए उन सबको मेरा धन्यवाद
हस्ताक्षर लिख मकरंद लिए उन सबको मेरा धन्यवाद

dpkraj ने कहा…

दुनिया के मेले में
एक दीप मेरा
ढेर से धुँधलके में
ढूँढ़ता सवेरा
----------
दिल को छू लेने वाली पंक्तियाँ.
दीपक भारतदीप