शहरों की मारामारी में
सारे मोल गए
सत्य अहिंसा दया धर्म
अवसरवादों ने लूटे
सरकारी दावे औ’ वादे
सारे निकले झूठे
भीड़ बहुत थी
अवसर थे कम
जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
घुटने बोल गए
सड़कें गाड़ी महल अटारी
सभी झूठ से फाँसे
तिकड़म लील गई सब खुशियाँ
भीतर रहे उदासे
बेगाने दिल की
क्या जानें
अपनों से भी मन की पीड़ा
टालमटोल गए
5 टिप्पणियां:
बहुत सच्ची अभिव्यक्ती ।
बेगाने दिल की
क्या जानें
अपनों से भी मन की पीड़ा
टालमटोल गए
शहरों की मारामारी में तो जीवन ही जीना भूल गए।
रचना पसन्द आयी।
एकदम मन की बात कह्दी आपने. ज्ञान भइया भी देखें तो शायद उनकी समस्या का हल मिल जाए कि किसीको इलाहबाद छोड़ कर बम्बई जाने कि सलाह देना कितना उचित है?
होने लगी है अब तरक्की और बाज़ार कि बातें
काम से यारों अब तो ये शहर भी गया.
इस नये गीतत्मक ब्लॊग के लिए बधाई! भीतर जड़ें जमाए उस ठेठ देसी मानस के संरक्षण की यही तो खूबी है कि वह चेताता रहता है कि क्या खोया क्या पाया। मुझे अपनी एक गज़ल की पंक्ति आप को समर्पित करने का मन हो आया---" गाँव घर द्वारे इसे प्यारे लगें/ आज भी ‘कविता’ हुई शहरी नहीं"।
इस नए गीतिपरक अभियान की शुभ कामनाएँ।
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