इन घनी अमराइयों में
इन हरी तराइयों में
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा
रौशनी का एक शीशा साफ़ कर दो
फिर अंधेरा चीर कर उस पार कर दो
भेद कर आकाश की तनहाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा
हर दिशा को एक सूरज दान कर दो
फिर उजालों में नई पहचान भर दो
फूँक कर इस हवा में शहनाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा
बादलों में दर्द है कुछ टीसता है
सर्द आतिश में कहीं कुछ भीगता है
पार कर के हृदय की गहराइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा
6 टिप्पणियां:
पूर्णियां जी
हिन्दी में आपके द्वारा किये गये प्रयास सराहनीय है,मुझे याद है जब
जीवन से हताश मेरे एक लेखक मित्र ने मुझे आपकी अभिव्यकति का पता
दिया था और उसके बाद अंतरजाल पर मेरी लेखन यात्रा शुरू हुए थी। आज आपका
ब्लॉग और आपकी रचनाएं देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। बहुत बढिया रचनाएं हैं
दीपक भारतदीप
पूर्णिमा जी
बहुत भावपूर्ण गीत के लिए आप को बधाई
आप को पढ़ना हमेशा एक सुखद अनुभव प्राप्त करवाता है.
हाल ही मैं भाई चाँद हदियाबदी ने आप के द्वारा बनाईं चित्रकारी पर लिखी दीपक पर एक कविता भेजी है जिसका अनुवाद उन्होंने मैं डेनिश मैं किया है.कविता और चित्र दोनों अदितीय हैं.
नीरज
"हर दिशा को एक सूरज दान कर दो
फिर उजालों में नई पहचान भर दो
फूँक कर इस हवा में शहनाइयों को ......................."
"बादलों में दर्द है कुछ टीसता है
सर्द आतिश में कहीं कुछ भीगता है
पार कर के हृदय की गहराइयों को ..................."
हद है. पूर्णिमा जी, कल पहली बार आपकी एक रचा पढने का मौक़ा मिला .. ज़हन पे छा गयी वो कविता. और आज ये .................. बस कमाल है. इस तरह का कुछ ... एक अरसे से नहीं पढ़ा था .... इंटरनेट पर तो हरगिज़ नहीं. बहुत बहुत शुक्रिया ..
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
फूँक कर इस हवा में शहनाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा
बहुत सुंदर
बहुत सुंदर कविता है मैडम
बिना अटके पढ़ डाली और भाव उतरते गये
एक टिप्पणी भेजें