सोमवार, 22 अगस्त 2011

जन्मदिन अभिव्यक्ति का- उपहार पाठकों के लिये

१५ अगस्त २०११ को अभिव्यक्ति अपने जीवन के ११ वर्ष पूरे कर १२वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। हर साल अभिव्यक्ति के जन्मदिन पर पाठकों के लिये एक विशेष उपहार की परंपरा रही है। इस वर्ष हमारी तकनीकी टीम ने दिन रात परिश्रम कर के तैयार किया है- तुक-कोश। एक लाख से अधिक शब्दों वाले इस तुक कोश में किसी भी शब्द से मिलते तुकांत शब्दों की खोज की जा सकती है।

गीति काव्य की हमारे देश में अद्भुत परंपरा है। लेकिन अनेक कारणों से जन सामान्य में इसकी लोकप्रियता उतनी नहीं रही जितनी होनी चाहिये। इन कारणों में से एक प्रमुख कारण यह भी है कि हिंदी में कोई अच्छा तुक कोश नहीं बना। देश की पारंपरिक संस्कृति के संरक्षण के क्रम में, इस कमी को पूरा करने के लिये वेब पर पहली बार अपनी तकनीकी टीम के सहयोग से हम प्रस्तुत कर रहे हैं

अभिव्यक्ति तुक कोश

इस अवसर पर मैं संपादक मंडल की ओर से अपनी तकनीकी टीम और उसका नेतृत्व करनेवाली रश्मि आशीष को धन्यवाद देना चाहूँगी जिन्होंने इसे नियत समय में अथक उत्साह से तैयार किया। हमारे पाठकों का भी हार्दिक आभार जो निरंतर हमें कुछ नया करने की प्रेरणा देते रहे हैं। आशा है उदीयमान रचनाकार, कवि और लेखक इसे उपयोगी पाएँगे। सभी से निवेदन है के इसके अच्छे बुरे पक्ष को हमसे साझा करें ताकि इसे और भी उपयोगी बनाया जा सके।

केवल गीत ही नहीं गद्य में भी अनेक स्थानों पर तुक का प्रयोग कथन में चमत्कार पैदा करता है। तुकांतता की इस अद्भुत शक्ति को बल देने के लिये, जन जन तक पहुँचाने के लिये और अपनी सांस्कृतिक परंपरा के विकास को सहज सरल बनाने के लिये यह तुक कोश सहायक
हो यही मंगल कामना है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

कूड़ेदानों पर हिंदी -

वाह ! हिंदी में ? मेरी पहली प्रतिक्रिया यही हुई थी इन नए डिब्बों को देखकर कर। कहना न होगा कि भाषा की लोकप्रियता और आवश्यकता बोलने और प्रयोग करने वालों की संख्या पर निर्भर होती है न कि सरकारी नियमों, देश या स्थान पर। यदि सरकार को पता चले कि जनता की भाषा बोले बिना काम नहीं चलेगा तो वे जनता की भाषा बोलने से परहेज नहीं करेंगे। इमारात में लगे नए कूड़ेदान भी इसे सिद्ध करते हैं।

ऐसे कूड़ेदान मैंने हवाईअड्डों पर विदेशों में काफी देखे हैं पर कभी ध्यान नहीं गया कि उन पर हिंदी में लिखा गया है या नहीं। मुझे लगता है कि उन पर हिंदी नहीं थी वर्ना ध्यान आकर्षित जरूर होता। इमारात की सरकार जानती है कि हिंदी लिखकर वे शहर को स्वच्छ बनाने में अधिक सफलता से काम कर सकते हैं। इसलिये इन कूड़ेदानों पर अरबी और अँगरेजी के साथ हिंदी में भी लिखवाया गया है। आप भी देखें... धूप बहुत तेज थी सो फोटो दूर से साये में खड़े होकर ली थी। इतनी साफ़ नहीं दिखती पर इसमें तीनों ख़ानों पर इस प्रकार लिखा है-
बाएँ से- हरे रंग में कागज, अखबार और कार्डबोर्ड, नीले में- बोतल डिब्बे और प्लास्टिक तथा लाल रंग में- अन्य सभी कूड़े। आप भी फोटो क्लिक कर के देखें। यहाँ लिखा हुआ देखकर समझना आसान हो जाएगा। दुबार फिर उधर गई तो एक साफ़ फोटो लेकर इसे बदल दूँगी।

यहाँ यह भी याद रखना आवश्यक कि भाषाई साम्राज्यवाद के चलते रईस देश गरीब देशों की जनता की भाषा को ही बदल देने पर जी जान से जुटे पड़े हैं। पर सोचना हमें है कि हम अपनी अस्मिता को मरने देते हैं या उसके लिये जी जान से जुटकर उसे ताकतवर बनाते हैं ताकि वह स्वस्थ होकर दुनिया से मुकाबला कर सके।

आप भी कहेंगे कूड़ेदान पर हिंदी देखकर इतना खुश हो जाने की भला क्या बात... हा हा सही हैं लेकिन जब हिंदुस्तान से हिंदी लुप्त हो रही है, जब हमें दिल्ली हवाई अड्डे पर एक भी किताब या पत्रिका हिंदी में दिखाई नहीं देती, जब क्नाटप्लेस पर खड़े होकर एक भी दूकान का नाम हिंदी में लिखा नजर नहीं आता और हमें भारत पहुँचकर ऐसा महसूस होता है कि हम इंगलैंड में खड़े हैं ऐसे वातावरण में विदेशों में हिंदी देखना, निश्चय ही, कुछ विशेष तो है।

गुरुवार, 9 जून 2011

अति की भली न धूप

गरमी का मौसम जारी है और विश्व के बहुत से देशों में सुख का सुख का साम्राज्य फैला हुआ है। कहते हैं कि सर्दी के बादलों से ढँके आकाश और छोटे दिनों के कारण जब ठंडे देशों में सूरज की रोशनी नहीं मिलती तो अनेक लोगों को दर्द, थकान और अवसाद की अनुभूति होती है। उनके लिए ग्रीष्म ऋतु वह सुहावना समय है, जब चित्त खुशी से भरा रहता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सूरज का प्रकाश हमारे मस्तिष्क में एंडोरफ़ीन और सेरोटोनिन के निर्माण की प्रक्रिया को बढ़ा देता है। एंडोरफ़ीन में थकान और दर्द से लड़ने की स्वाभाविक शक्ति होती है इसलिए सूरज की रोशनी ठीक-ठाक न मिले तो थकान और दर्द बढ़ जाते हैं। सिरोटोनिन का असंतुलन हमारे मन में अवसाद पैदा करता है। सूरज के प्रकाश से इसमें संतुलन आते ही हमें सब कुछ अच्छा लगने लगता है।

सूरज का प्रकाश हमारे जीवन का आवश्यक तत्त्व है और सर्दियों की दोपहर में रोज़ कुछ देर धूप सेंकने से रात में अच्छी नींद आती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि धूप की पर्याप्त मात्रा लेने से रात में हमारे शरीर में मेलाटोनिन की मात्रा बढ़ जाती है। मेलाटोनिन वह हारमोन है जो शांतिपूर्ण नींद में सहायक होता है और बूढ़े होने की प्रक्रिया को धीमा कर देता है। सूर्य का प्रकाश शरीर के अनेक हारमोनों का संतुलन बनाने में सहायक होता है जिससे अनेक शारीरिक व मानसिक परेशानियों को दूर किया जा सकता है। धूप में निहित सूरज की पैराबैंगनी किरणें स्वाभाविक एंटीसेप्टिक का काम करती हैं। वे हवा, पानी और त्वचा सहित दूसरी अनेक सतहों पर पनपने वाले अनेक विषाणु, जीवाणु, फफूँद, कवक, खमीर, और दमकियों को स्वाभाविक रूप से नष्ट कर देती हैं। त्वचा पर नियमित रूप से धूप दिखाने से मुँहासे, फोड़ों, जोड़ों के दर्द त्वचा की एलर्जी, सोरेसिस और खुजली में आराम देखा गया है। धूप पीलिया का भी प्रभावशाली इलाज है। कुछ अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि धूप स्तन, बड़ी आँत और प्रोस्टेट कैंसर के इलाज में सहायक है। मालूम नहीं इस विषय पर भी शोध हुए हैं या नहीं कि जिन देशों में सूर्य की रोशनी अधिक होती है, दिन बड़े होते हैं, बादल शायद ही कभी दिखाई देते हैं और वर्षा लगभग नहीं होती वहाँ के लोगों में अधिक रोशनी और धूप का क्या प्रभाव पड़ता है। इमारात की धूप यूरोप जैसी निरापद नहीं है। इसकी तेजी त्वचा और आँखों को गहरा नुक्सान पहुँचाती है। दोपहर के तेज़ तापमान में बिना एअरकंडीशंड सवारी के घर से निकल पड़ना मौत का कारण बन सकता है।

आज जब पर्यावरण के लगातार बिगड़ने से धरती की ओजोन परत में पैराबैंगनी किरणों को छानने की शक्ति कम हुई है, धूप से त्वचा के जल जाने, चकत्ते पड़ जाने और खुजली होने के लक्षण सामान्य सी बात है। बहुत कम आयु में बाल सफ़ेद हो जाने और आँखों में मोतियाबिंद हो जाने की शिकायतों का कारण भी धूप की तेज़ी को माना गया है। इनसे सुरक्षा के लिए जहाँ एक ओर सन शील्ड क्रीमों की बड़ी शृंखला बाज़ार में है वहीं यू वी किरणों को रोकने वाले काले चश्मों का प्रयोग भी आम हो गया है। तरबूज़, दही और खीरे के दैनिक सेवन को भी महत्त्व दिया गया है। कुल मिलाकर यह कि धूप से प्रेम रखना सभी परिस्थितियों में सबके लिए समान रूप से उचित नहीं ठहराया जा सकता, दादा कबीर भी तो कह गए हैं- अति की भली न धूप

शनिवार, 14 मई 2011

तरावट की तलाश


गरम देश होने के कारण इमारात के निवासियों को तरावट की तलाश सदा बनी रहती है। इसके लिए जगह जगह वाटर पार्कों और आइस रिंकों का निर्माण किया गया है लेकिन जो आनंद प्रकृति के सान्निध्य में मिलता है वह अन्यत्र कहाँ!

प्रकृति द्वारा इस देश को दिए गए बहुमूल्य उपहारों में से एक है- हत्ता के हरियाले जलकुंड। विस्तृत रेगिस्तान वाले इस देश को हवाई जहाज़ में से देखें तो भूरे मैदान के बीच शहरों के हरियाले टापू से दिखाई देते हैं।

लेकिन इतने रूखे सूखे स्थल में भी प्रकृति ने जिन स्थानों पर अपनी शीतलता छुपा के रखी हैं, हत्ता के प्राकृतिक जलकुंडों की यात्रा में उससे साक्षात्कार किया जा सकता है।

दुबई से लगभग १५० किमी की दूरी पर स्थित इमारात के सबसे रोमांचक रेत के टीलों के पार रंगीन प्रस्तर शिलाओं से उलझी उथली नदी की तलहटी में बने गहरे हरे रंग के अनेक छोटे छोटे ताल पर्यटकों की गर्म शाम को तरावट की अनुभूति में बदल देते हैं।

हत्ता की सैर अपने आप भी की जा सकती है लेकिन किसी पर्यटक यात्रा का हिस्सा बनना सुविधाजनक रहता है। अगर फोर व्हील ड्राइव हो तो नदी में गाड़ी ले जाने का अलग आनंद है लेकिन सामान्य कार से भी यहाँ की यात्रा की जा सकती है। हत्ता तक पहुँचने के सुंदर रास्ते में तेज़ हवा चलती रहती है। आम तौर पर यह सुखद लगती है

हत्ता में एक सर्वसुविधा संपन्न होटल भी है जो सैलानियों की आवश्यकताओं को पूरा करता है। हजर पर्वत से घिरे इस होटल के अस्सी एकड़ भूमि में फैले अंतहीन हरियाले लॉन आँखों में प्रकृति की तरावट घोलने का अद्भुत असर रखते हैं।

सांस्कृतिक रुचि के लोगों के लिए हत्ता में एक पारंपरिक गाँव है जिसमें कच्ची सड़कों पर घूमते ऊँट, पुराने स्थापत्य के छोटे मकान, किले, पारंपरिक छोटी छोटी दूकानों और खजूर से लदे पेड़ों को देखते हुए हम सौ साल पीछे पहुँच जाते हैं।

बिजली के बल्बों की आधुनिक जगमगाहट वाला यह गाँव नावों और हस्तशिल्प के सुंदर नमूनों से भरपूर है। बहुत से लोग इन्हें खरीदने में रुचि रखते हैं लेकिन जो खरीदने में रुचि नहीं रखते वे भी इन्हें देखने का आनंद उठाने से स्वयं को नहीं रोक पाते।

 

मंगलवार, 3 मई 2011

जाना कहाँ रे...

तेज़ कार चलाने का शौक कोई नया नहीं। यों तो इस शौक वाले कई प्रतियोगिताएँ और खेल आयोजित करते हैं पर सड़कों पर अपना करतब दिखाने वालों की भी कमी नहीं। जब भी हम ड्राइव करते हैं सड़कों पर ऐसे शौकीनों में से एक न एक हमें चकमा देता हुआ कलाबाज़ियाँ दिखाता साफ़ निकल जाता है। बल्कि कभी निकल जाता है और कभी दो चार को साथ लेकर सीधे परमात्मा की दुनिया में पहुँच जाता है। ऐसी घटनाएँ अक्सर देखने में आती हैं।


सभी देश और सरकारें इस तरह के लोगों पर रोक लगाने में लगे हैं। लेकिन न हादसे रुकते हैं न कलाबाज़ियों के शौकीन दम लेते हैं। एक ओर सख़्त से सख़्त कानून बनते हैं और दंड की धनराशि ज्यादा से ज्यादा बढ़ती जाती है, दूसरी ओर ' धीरे चलें आपका परिवार प्रतीक्षा में है' या 'दुर्घटना से देर भली' जैसे संवेदनात्मक वाक्यों को लिखकर कार चलानेवालों को नियम पालन की शिक्षा दी जाती है। कुछ देशों में, जिसमें इमारात भी शामिल है, ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त करने की प्रक्रिया इतनी मुश्किल, व्यवस्थित और खर्चीली है कि बिना नियमों का ठीक से ध्यान रखे ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त करना असंभव है। पर लगता है, ड्राइविंग की शैली इस पर निर्भर नही करती है कि ड्राइवर ने स्कूल में क्या सीखा है बल्कि इस बात पर कि ड्राइवर का स्वभाव कैसा है।

शायद हर अपराध की तरह ड्राइविंग पर भी ठीक से नियंत्रण रखना इतना आसान नहीं पर जगह जगह कैमरे और सेंसर लगाकर इसको अधिक से अधिक नियंत्रण करने की कोशिश अधिकतर देशों में की गई है। जब इतनी सख़्ती हो तो जाने अनजाने हम कहीं न कहीं कोई न कोई गलती करते हैं और कैमरे की नज़र में फंसकर फ़ाइन भी भरते हैं। हम कितनी गलतियाँ करने से बचते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि ड्राइविंग के समय हम कितने सचेत रह पाते हैं। इस सचेतना की मिसाल कायम की है इमारात के अलैन शहर में रहने वाले एक नागरिक ने, जिन्होंने अपने पिछले ४२ साल के ड्राइविंग समय में किसी कैमरे और किसी सेंसर को हाथ लगाने का मौका नही दिया। दो साल पहले सड़क यातायात दिवस के अवसर पर इमारात की यातायात पुलिस ने उन्हें सम्मानित किया और अखबार सहित मीडिया में उनकी तस्वीरें हर जगह छाई रहीं। आज दो साल बाद भी कुछ लोगों को उनका नाम याद है लेकिन अधितकर लोग भूल गए होंगे। नाम याद रखना जरूरी नहीं है पर यह कोशिश जरूरी है कि हम सब सजगता से कार चलाएँ और सड़क को सर्कस न बनाएँ।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

प्रवासी होते चमत्कार

आज के अखबार में नोरा की तस्वीर मुखपृष्ठ पर है। नोरा पाँच साल की एक बिल्ली है जो पियानो बजाती है। इसी साल जून में नोरा ने एक लिथुआनी संगीत निर्देशक, मिंदौगस पिकैटिस के निर्देशन में अपना पहला एकल संगीत प्रदर्शन किया। यह कंसर्ट विशेष रूप से नोरा के लिए तैयार किया गया था। पिकैटिस ने इसका नाम कंसर्टो की तर्ज़ पर कैटसर्टो रखा। इसकी एक फ़िल्म भी बनाई गई जिसे http://www.catcerto.com/पर प्रदर्शित किया गया और जिसे अभी तक दो करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं।

इसके अतिरिक्त उसके तमाम छोटे वीडियो यू ट्यूब पर भी उपस्थित हैं जिन्हें नोरा की लोकप्रियता के चलते धड़ाधड़ हिट मिल रहे हैं। नोरा एक टॉक शो में भाग ले चुकी है उसको ढेरों की संख्या में ईमेल प्राप्त होते हैं उसका अपना वेब समूह हैं, वेब साइट है, साथ ही उसका अपने वीडियो एलबम और दो किताबें भी प्रकाशित हो चुकी है। उसके प्रशंसकों का कहना है कि वह एक सिद्धहस्त पियानोवादक के अंदाज में पियानो बजाती है। पियानो की कुंजियों को अपने पंजों से दबाने के दौरान कब तक सिर हिलाते रहना है, कब स्थिर करना है, यह सब उसे पता है। उसके पास एक मैनेजर है, एक फोटोग्राफ़र और अपनी व्यक्तिगत परिचारिका भी है। कहना न होगा कि नोरा फ़िलेडेल्फिया में हॉलीवुड-सितारे की तरह जीवन व्यतीत करती है।

उसके इन कारनामों से उसकी मालकिन तिरपन वर्षीय पियानो अध्यापिका बेट्सी एलेक्जेंडर और उनके पति फोटोग्राफ़र और कलाकार बर्नेल यौ खासे खुश हैं। नोरा के बारे में वे बताते हैं कि वह बेट्सी की कक्षा में आनेवाले विद्यार्थियों के साथ नियमित अभ्यास करती है। पति पत्नी ने नोरा को न्यू जर्सी में टेरी हिल के एक पशु आश्रम से तब गोद लिया था, जब वह एक वर्ष की थी। नोरा को गले में पट्टा पहनना पसंद नहीं है। वह कार या हवाई जहाज़ में यात्रा करना भी पसंद नहीं करती और जैसा-तैसा हर पियानो नहीं बजाती। उसे तो केवल यामाहा, सी-५ डिस्कलेवियर बजाना ही पसंद है, जिसका मूल्य लगभग ६०,००० अमेरिकी डॉलर है।

लोग नोरा की साइट, किताबों और वीडियो पर दनादन पैसा लुटा रहे हैं और अमेरीकी संस्थाएँ उसे सम्मानित करने में लगी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो नोरा को चढ़ावे की कमी नहीं। विदेशी अकसर कहते हैं कि भारत चमत्कारों का देश है, लेकिन अब चमत्कार भी भारतीय जनता के साथ प्रवासी हो चले हैं। जिस देश में तीन करोड़ भारतीय जनता हो, वहाँ कोई चमत्कार न हो ऐसा कैसे हो सकता है? नोरा तो बस शुरुआत है।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

बदरिया सावन की

बचपन की जो चीज़ें अभी तक मुझे याद हैं उसमें से एक है जूथिका राय की आवाज जो अक्सर छुट्टी के दिनों पिताजी के रेकार्ड चेंजर पर सुनाई देती थी। आज के डिजिटल युग के बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि रिकार्ड चेंजर क्या चीज़ होती है। ग्रामोफोन और टेपरेकार्डर के बीच की कड़ी, यह एक ऐसी मशीन थी, जिसमें कई रेकार्ड अपने आप एक के बाद एक बजते थे। रेकार्ड चेंजर का चलना हमारे लिए उत्सव समय होता था। परिवार के सभी लोग साथ बैठते, माँ कुछ पकौड़े या मठरी जैसी चीजें तश्तरियों में ले आतीं। हम पारिवारिक बातें करते पिताजी अच्छे मूड में होते, सोफ़े पर लेटने और कूदने की आज़ादी होती और जूथिका राय का गीत पृष्ठभूमि में- रिमझिम बदरिया बरसे बरसे... लगता था जैसे खुशियों के बादल बरस रहे हों।

जूथिका राय ने पिछले वर्ष अपने जीवन के ९० वर्ष पूरे किये। इस अवसर पर जयपुर में पिछले साल १८ अप्रैल को एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन कर उन्हें सम्मानित किया गया। प्रसन्नता की बात है कि हमारे विद्वान लेखक यूनुस खान भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बने। ( इसके कुछ अंश यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं।) आवाज की वह खनक, वह शैली और वह तरलता समय के साथ आज ऐतिहासिक भले ही मानी जाने लगी हो लेकिन लालित्य और माधुर्य में आज भी यह लोगों को लुभाती है। ठीक जूथिका राय की तरह जो आज भी उत्साह की प्रतिमूर्ति दिखाई देती हैं। बताने के लिए उनके पास हज़ारों किस्से हैं और सुनाने के लिए अनुभवों का असीम कोष। वे भारत के उन गिने चुने लोगों में से हैं जिनसे हर व्यक्ति प्रेरणा ले सकता है।

सात वर्ष की आयु से संगीत कार्यक्रम देने वाली जूथिका राय चालीस और पचास के दशक में अपनी लोकप्रियता की चोटी पर थीं। उन्होंने माला सिन्हा और सुचित्रा सेन जैसी अभिनेत्रियों के लिए हिंदी और बंगाली फ़िल्मों के गीत गाए, मीरा के भजनों के लोकप्रिय एलबम निकाले और देश विदेश में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किए। आज भी सबसे अधिक बिकनेवाले गैर फिल्मी गीतों के ग्रामाफोन रेकार्डों का कीर्तिमान उनके नाम पर है। उनके भजनों की मधुरता के लिए उन्हें आधुनिक मीरा भी कहा गया। १९७२ में इंदिरा गाँधी ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। बांग्ला में उनकी आत्मकथा "आजोऊ मोने पोड़े" नाम से प्रकाशित हुई है। गुजरात में उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके हिंदी भजनों को गुजराती में लिपिपद्ध किया गया, उनके प्रशंसकों ने स्वतंत्र रूप से धन एकत्रित कर उनकी आत्मकथा का गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया, उनके जीवन पर एक फीचर फिल्म का निर्माण किया और उनके सम्मान में २००८ तथा २००९ में भव्य कार्यक्रम आयोजित किए।

अंत में उनका वही रिमझिम बदरिया गीत जिससे आज की बात प्रारंभ हुई थी। सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की रिमझिम बदरिया उनके जीवन में एक सौ बीस साल तक बरसती ही रहे इसी मंगल कामना के साथ,

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अकेलेपन का अँधेरा


पिछले सप्ताह एक शाम शहर के एक जानेमाने रेस्त्राँ में जाना हुआ। रेस्त्राँ कुछ खाली-खाली सा था। शाम के सात बजे थे और यह समय इमाराती रेस्त्राओं में भीड़-भाड़ वाला नहीं होता। अपने खाने का आर्डर देकर हम प्रतीक्षा करते हुए बातचीत में लगे थे कि वेटर को एक छोटा सा बर्थ डे केक ले जाते हुए देखा। हमारे चेहरे पर भी मुस्कान आ गई, शायद किसी का जन्मदिन होगा। यह रेस्त्राँ काफ़ी बड़ा है और एक कोने से हर कोना नहीं दिखाई देता। सज्जा भी कुछ ऐसी है कि बीच बीच में अवरोध बनाकर ट्रे या प्याले प्लेट रखने के स्थान बनाए गए हैं, इसलिए पता नहीं चला कि जन्मदिन किसका है।

थोड़ी देर में वेटर-वेट्रेसों के ज़ोर-ज़ोर से हैपी बर्थ डे गाने की आवाज़ें आने लगीं। फिर ज़ोर-ज़ोर से ताली की आवाज़ें फिर हैपी बर्थ डे, हैपी बर्थ डे, थैंक्यू थैंक्यू। ऐसे दृश्य यहाँ असामान्य नहीं हैं। लोगों को हंगामे का शौक होता ही है। अपनी मित्रमंडली के साथ जन्मदिन बिताना और रेस्त्राँ को पहले से सूचित कर उसमें शामिल कर लेना काफी मजेदार बात है। जब ४-६ कर्मचारी मिलकर व्यावसायिक ढंग से हंगामा करते हैं तो रेस्त्राँ के सभी लोग एक बार मुड़कर उस ओर देख ही लेते हैं, बस खर्च करने वाले का अहं संतुष्ट हो जाता है। आखिर दुनिया में इनसान को और चाहिए ही क्या? 

इस प्रकार जन्मदिन मानाने का एक और कारण भी है। बहुत से लोग परिवार से दूर रहते हैं। व्यस्त दुनिया में दोस्त बनाने का समय भी बहुतों के पास नहीं है। इस चमक-दमक वाली दुनिया में हर किसी पर विश्वास कर दोस्त बना लेना आसान भी तो नहीं। ऐसी स्थिति में अगर बंद कमरे में अकेले अपना जन्मदिन मनाने की इच्छा नहीं हो तो इस प्रकार जन्मदिन मनाना एक अच्छा सौदा हैं। लोग रेस्त्रा के हंगामे के बीच दूर अपने देश फोन लगाते हैं, अपनों से बात करते हैं, अपनों की बात वेटरों से करवाते हैं, गालों तक छलकते हुए आँसू पोछते हैं और अकेलेपन का अंधेरा पंख लगाकर उड़ जाता है।

हाँ तो उस दिन हंगामे के बाद हमने एक वयोवृद्ध सज्जन को प्रसन्न मुखमुद्रा के साथ धीरे धीरे होटल से बाहर जाते देखा। सज्जन रुपरंग से एशियन नज़र आते थे। वेटरों की भीड़ उनके पीछे थी, ज़ाहिर है आज के बर्थ-डे ब्वाय वही थे। वे खुशी-खुशी वेटरों से हाथ मिला रहे थे। इमारात के नियमों के अनुसार प्रवासियों के लिए बिना काम किए इस देश में रहना संभव नहीं है। इसलिए उम्रदराज़ प्रवासी यहाँ यदाकदा ही दिखाई देते हैं। जीवन के इस पड़ाव पर वे किस कारण इस देश में अकेले हो आए होंगे यह सवाल देर तक मन को मथता रहा।

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

दौड़ से दूर

कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय एक रचना में कहते हैं-
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते, जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें, बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

घर का छोड़ना अक्सर फ़ायदेमंद होता है। आरामगाह से निकलकर ही तो हम दुनिया से लड़ने के लायक बनते हैं। पर आजकल की छोटी सी दुनिया में प्रतियोगिता और स्पर्धा के लिए दौड़ने-भागने की प्रवृत्ति संक्रामक रोग की तरह फैलने लगी है। फिर दौड़ भी साधारण नहीं, सही-गलत को भूलकर जैसे-तैसे आगे निकलने की प्रवृत्ति से मन-मस्तिष्क तो थकता ही है, चरित्र और संवेदना भी छले जाते हैं। हम जहाँ भी है वहाँ की कोई खुशी नहीं, जो हमारे पास है उसका उपभोग करने तक का समय नहीं बस एक दौड़ है, दौड़ते जाना है, आगे... और आगे, और आगे... इस दौड़ से हमें मिलना क्या है उसकी परवाह किए बिना। इस दौड़ के अंत में कितनी और कैसी थकान होने वाली है उसकी चिंता किए बगैर।

ऐसे समय में यह सोचना असीम मानसिक शांति देता है कि जहाँ हम हैं वहाँ ठहरे रहने में कितना सुख है! कितने लाभ, प्रतिष्ठा और शांति है! विस्तार हमेशा गहराई को कम करता है। विस्तार रुकता है तो गहराई बढ़ती है रिश्तों की और अपने विकास की। किसी विषय का विशेषज्ञ बनाने के लिए भी अध्ययन की गहराईयों की ओर मुड़ना पड़ता है। हम जहाँ तक पहुँचे हैं वह इसलिए कि पहले ही एक लंबा सफ़र तय हो चुका है तो फिर अब दौड़ कैसी? अनेक दौड़नेवाले लौटकर यही कहते हैं कि दौड़ का कोई सार्थक फल नहीं मिला। हमारा अपना स्थान चाहे वह घर हो या कार्योलय, जिसका चप्पा चप्पा हम जानते हैं, मालिक की तरह हमारा आदर करता है, माँ की तरह हमें प्यार करता है। नई जगह उस सम्मान और स्नेह को पाने और नए परिवेश में अपने को स्थापित करने में अथक श्रम और समय की आवश्यकता होती है। इस श्रम और समय को बचाकर किसी अन्य महत्वपूर्ण कार्य में लगया जा सकता है। दौड़ते हुए हमें अपनी जगह, अपना रंग-ढंग अपनी आदतें बार बार बदलनी पड़ती हैं। अक्सर तो हम भूल ही जाते हैं कि हम थे क्या। अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए दौड़ से बचना बेहतर है। आखिर यह दुनिया गोल है, हम जहाँ से चले थे लौटकर वहीं पहुँच जाते हैं फिर दौड़ का फ़ायदा?

इसलिए- कुछ पल शांति से बैठें, प्रकृति का आनंद लें, मज़ेदार खाना पकाएँ, पासवाली परचून की दूकान के बूढ़े मालिक से उसके स्वास्थ्य या परिवार का हाल पूछें, सड़क पर लगे हुए पेड़ों से दोस्ती करें, किसी पुराने दोस्त से फ़ोन पर बात करें, संगीत सुनें, दूसरों को दौड़ता हुआ देखें और महसूस करें कि दौड़ से बाहर निकलकर चिंतामुक्त हो आराम करना कितना सुखदायक है।

सोमवार, 28 मार्च 2011

मंदी की ठंडी में उपदेशों की बंडी


मार्च का महीना है, बदलते मौसम का ख़ुमार और बुखार दोनों फ़िजां में हैं। वसंत की सेल में खरीदारियों से इमारात के बाज़ार गरम हैं लेकिन मंदी की ठंडी से देश की नसों में पैदा हुई थरथराहट अभी थमी नहीं है। विज्ञापन की चाबुक नई पीढ़ी को ऐसा हाँकती है कि कितने भी पैसे जेब में आएँ महीने का अंत होता है फाकामस्ती से। इसके विरुद्ध कमर कसने के लिए स्थानीय अखबार ने एक अभियान चलाया है जिसका नारा है वाओ (WOW)। विस्तार में कहें तो वाइप आउट वेस्ट। उद्देश्य है नागरिकों को दिवालिया होने से बचाना। अखबार के इस काम में शामिल हैं शहर के जानेमाने अर्थशास्त्री जो भोली जनता को पैसे की बरबादी रोकने के सिद्ध मंत्र देने में लगे हैं। भई ऐसी विद्या मिले तो कौन न लेना चाहेगा। तो प्रस्तुत हैं पैसे की बरबादी रोकने के रामबाण नुस्ख़े-

  • अपने खर्च की दैनिक डायरी लिखना सीखो। बिना यह जाने कि कितना खर्च हो रहा है कभी पता नहीं चलेगा कि कौन सा खर्च रोका जाए। अगर बहुत पैसे बचाना संभव नहीं है तो थोड़े थोड़े पैसे हर महीने ज़रूर बचाओ ये लंबे समय में बड़ी बचत साबित होंगे।
  • क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल केवल उस काम के लिए करो जिसके लिए नकद पैसे नहीं भरे जा सकते। कार्ड का बिल नियम से प्रतिमाह भरो ताकि अनावश्यक ब्याज न चुकाना पड़े। अगर बार बार बैंक द्वारा धन भेजने की ज़रूरत पड़ती है तो बैंक की पैसे स्थानांतरण फ़ीस पर कड़ी नज़र रखो। अगर यह दूसरे बैंकों की तुलना में ज्यादा है तो बैंक बदल दो।
  • ५०,००० दिरहम से अधिक मुद्रा परिवर्तन करना है तो मनी एक्सचेंज की थोक दर वाली छूट का लाभ उठाओ। धन के निवेश की जिन योजनाओं पर पहले से अमल हो रहा है उन पर फिर से विचार करो। अगर वे कारगर नहीं हैं तो बदल डालो।

यही नहीं, ये विद्वान भारतीय बड़े-बूढ़ों की तरह आदतों को सुधारने की सलाह देते हुए कहते है। -

  • सिगरेट पीना बंद करो, क्यों कि एक पैकेट सिगरेट पर रोज ६ दिरहम फुँक जाते हैं। यह आदत छोड़ने पर, साल भर में होती है २१६० दिरहम की बचत।
  • कावा (एक तरह की कॉफी जो इमारात में खूब पी जाती है।) के तीन प्याले यानी १४ दिरहम रोज़। इसको बंद करो और साल में ५०४० रुपये बचाओ।
  • घर में २५ की जगह सिर्फ १२ बल्ब जलाओ और साल भर में १०९५ दिरहम बचाओ।
  • हफ़्ते में दो बार बाहर खाने की आदत पर अंकुश रखो। जिन जगहों पर दो लोगों के खाने का खर्च १०० दिरहम से ज्यादा है, खाना मत खाओ और साल भर में १०,४०० दिरहम बचाओ।
  • बागबानी नहीं आती तो बगीचा मत लगाओ क्यों कि ज्यादा पानी देकर तुम पानी तो बरबाद करते ही हो पौधों को भी मारते हो।
  • कसरत करने की मशीन मत खरीदो, घर के बाहर निकलो और सड़क पर पैदल चलो।

कोई नई बात पता लगी? नहीं लगी न? इसमें से आधी बातें तो हमारी माँ ने मार मार के बड़े होने से पहले ही सिखा दी थीं। जो कमी रह गई थी वह बाबूजी ने नौकरी लगते ही टोंक-टाक कर पूरी कर दी। हम भारतीय यह सब घुट्टी में सीखते हैं। आशा है बाकी लोगों को मंदी की ठंडी में यह बंडी काम आएगी। भला हो ऊपरवाले का जिसने आर्थिक विशेषज्ञ नामक जीव से मिलवाया और हमें पता लगा कि माँ और बाबूजी तो सालों पहले इस ज्ञान को धारण करने वाले विशेषज्ञ बन चुके थे। हे प्रभु, माफ़ कर देना, हम तो उन्हें आजतक निरा माँ और बाबूजी ही समझते रहे।

बुधवार, 23 मार्च 2011

पान बनारस वाला

1

खानपान हो, आनबान हो, जान पहचान हो और पान न हो तो ओंठों पर मुस्कान नहीं, पर यह पान बरसों से इमारात में सरकारी आदेश से बंद है। बंद इसलिए कि पान गंदगी फैलाता है। कोनों और स्तंभों के उस सारे सौंदर्य को मटियामेट कर देता है जिस पर यहाँ की सरकार पैसा पानी की तरह बहाती है।

सारी बंदी के बावजूद पान प्रेमी पान ढूँढ लेते हैं और गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते। इस सबसे निबटने के लिए यहाँ के एक प्रमुख अखबार गल्फ़ न्यूज़ ने एक पूरा पन्ना पान के विषय में प्रकाशित किया। साथ ही मुखपृष्ठ पर भी इसका बड़ा बॉक्स और लिंक दिया। पान के लाभ-हानि, स्वास्थ्य पर प्रभाव, पान के तत्व और पान से जुड़ी सांस्कृतिक बातों को इसमें शामिल किया गया। कुछ ऐसे स्थानों के चित्र भी दिए गए जिन्हें पीक थूककर गंदा गया गया है। देखकर लगा जैसे पान सभ्यता का नहीं असभ्यता का परिचायक है।

एक समय था जब पान आभिजात्य का प्रतीक था। यह राज घरानों के दैनिक जीवन में रचा-बसा था। इसमें पड़ने वाले कत्थे, चूने, सुपारी और गुलुकंद स्वास्थ्यवर्धक समझे जाते थे। पान रचे ओंठ सौदर्य का प्रतीक थे एवं पानदान और सरौते का सौदर्य हमारी शिल्प कला की सुगढ़ता को प्रकट करता था। पान पर्वों, गोष्ठियों और विवाह जैसे धार्मिक कृत्यों का आवश्यक अंग होता था। यही नहीं कला और संस्कृति में पानदान और पान की तश्तरी तक का विशेष महत्व था।

अंग्रेजी सभ्यता के सांस्कृतिक हमले से जूझते-जूझते कब पान अपनी रौनक खो बैठा पता ही न चला। न उगालदान साथ लेकर चलने वाले नौकर का ज़माना रहा और न हम स्वास्थ्य और संस्कृति से इसे ठीक से जोड़े रख सके। वह आम आदमी का व्यसन भर बनकर रह गया। अनेक असावधानियों से बचाकर रखते हुए अगर हम पान का संयमित प्रयोग कर पाते तो इसकी शान के कारण विश्व में सम्मानित भी हो सकते थे। लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका।

अखबार में प्रकाशित चित्रों के देखकर दुख हुआ पर उसके विषय में बात करना बेकार है क्यों कि उससे कहीं ज्यादा पीक भारतीय इमारतों के कोनों में देखी जा सकती है।

मज़ेदार बात यह थी कि लगे हुए पान का जो चित्र दिया गया वह उल्टा था- चिकना हिस्सा ऊपर और उभरा हिस्सा नीचे, चिकने हिस्से पर रखे थे- कत्था, चूना और सुपारी। यानी यह पान, पान की शान जानने वाले किसी उस्ताद पनवाड़ी हाथों में नहीं है बल्कि पान की शान से अनजान किसी फोटोग्राफर के नौसिखिये माडल के हाथ में है। इस चित्र को अखबार ने अपने पन्ने की शोभा बढ़ाने के लिये बनवाया होगा। आप भी देखें।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

सड़कों पर


सड़कों पर हो रही सभाएँ
राजा को-
धुन रही व्यथाएँ


प्रजा
कष्ट में चुप बैठी थी
शासक की किस्मत ऐंठी थी
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
राजतंत्र की हुई ठिठोली
अखबारों-
में छपी कथाएँ


दुनिया भर
में आग लग गई
हर हिटलर की वाट लग गई
सहनशीलता थक कर टूटी
प्रजातंत्र की चिटकी बूटी
दुनिया को-
मथ रही हवाएँ


जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

फागुन के दोहे

1
ऐसी दौड़ी फगुनहट ढाणी चौक फलांग।
फागुन आया खेत में गये पड़ोसी जान।।


आम बौराया आँगना कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा मौसम हुआ बहार।।


दूब फूल की गुदगुदी बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी मौसम को है आस।।


वर गेहूँ बाली सजा खड़ी फ़स़ल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ सरसों पीली गात।।


ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात।
मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश।।


ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत।
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।।


मौसम के मतदान में हुआ अराजक काम।
पतझर में घायल हुए निरे पात पैगाम।।


दबा बनारस पान को पीक दयी यौं डार।
चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार।।


सजे माँडने आँगने होली के त्योहार।
बुरी बलायें जल मरें शगुन सजाए द्वार।।


मन के आँगन रच गए कुंकुम अबीर गुलाल।
लाली फागुन माह की बढ़े साल दर साल।।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

स्वागत २०११


गणतंत्र दिवस शुभ हो साथ ही नव वर्ष में सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि की ढेरों शुभकामनाएँ!


मंगलकामनाओं के इस दौर के साथ अभिव्यक्ति की सहयोगी पद्य-पत्रिका अनुभूति १ जनवरी को अपने जीवन के १० वर्ष पूरे कर रही है। इन दोनों पत्रिकाओं के निर्माण, संयोजन, संचालन और पठन-पाठन में लगे उन असंख्य लोगों का हार्दिक आभार जिनके सहारे इतना रास्ता पार कर ये दोनो पत्रिकाएँ यहाँ तक पहुँची हैं।


पुराने वर्ष के अवसान के साथ अभिव्यक्ति के कुछ पुराने स्तंभ भी अभिव्यक्ति से विदा ले चुके हैं और नए साल के आगमन के कुछ नए स्तंभ हमारे साथ सम्मिलित हो रहे हैं। दस वर्ष पुराना "सप्ताह का विचार" इस साल से प्रकाशित नहीं होगा। तीन वर्ष पुराने- "क्या आप जानते हैं" और "हास परिहास" भी इस अंक से नहीं होंगे, एक वर्ष पुराना "रसोईघर से सौंदर्य सुझाव" भी पिछले अंक के साथ पूरा हो चुका है।


इसके स्थान पर पाँच नए स्तंभ जुड़ रहे हैं जिसमें से एक- "वर्ग पहेली" नए साल से पहले ही प्रारंभ हो चुका है। इस स्तंभ को आकार देने में भारत से गोपालकृष्ण भट्ट और रश्मि आशीष ने अपने व्यस्त कार्यजीवन से समय निकालकर कड़ी मेहनत की है। इसके साथ ही रश्मि कंप्यूटर से संबंधित छोटी छोटी बातों का एक स्तंभ शुरू कर रही है कंप्यूटर की कक्षा। वे इस अंक से एक ५००० शब्दों के साथ शब्दकोश पर भी काम प्रारंभ कर रही हैं। वर्ष के अंत तक यह १ लाख शब्दों का संपूर्ण शब्दकोश हो जाएगा।


रसोईघर की कायापलट कर रही हैं- मारिशस टी.वी. की अत्यंत लोकप्रिय व्यक्तित्व मधु गजाधर। पारंपरिक भारतीय भोजन को स्वास्थ्यवर्धक शैली में प्रस्तुत करने की विशेषज्ञ, वे प्रति सप्ताह भारतीय स्वाद के अनुरूप पारंपरिक या आधुनिक शैली का एक व्यंजन हमारे पाठकों के लिये प्रस्तुत करेंगी।


"बचपन की आहट" के साथ घर परिवार को उपयोगी और रोचक बना रही हैं संयुक्त अरब इमारात की इला गौतम। दो से अधिक वर्षों से निरंतर शिशुविकास के अध्ययन में संलग्न इला ने बच्चों के विकास को साप्ताहिक चरणों में लिपिबद्ध करने का महत्तवपूर्ण काम किया है। इस अंक से उनका यह रोचक अवलोकन छोटी टिप्पणियों और संपूर्ण लेखों के माध्यम से पाठकों तक पहुँचेगा।


रसोईघर के सुझावों को नया रूप दे रही हैं अलका मिश्रा- "रसोईघर से स्वास्थ्य सुझाव" में। पिछले पाँच वर्षों से
भी अधिक समय से आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों की खेती और दवाओं में उनके प्रयोग पर अनुसंधान में रत अलका, सरलता से उपलब्ध भारतीय मसालों और जड़ी बूटियों पर आधारित स्वास्थ्यवर्धक सुझाव इस सप्ताह से प्रारंभ कर रही हैं।


वेब पर सबसे लोकप्रिय और भारत की जानी मानी ज्योतिषाचार्या संगीता पुरी इस अंक से अभिव्यक्ति में पहली बार प्रस्तुत कर रही हैं पाक्षिक भविष्य फल। आशा है ये स्तंभ पाठकों को रुचेंगे। नववर्ष में बदले हुए रंगरूप के साथ इन आयोजनों के विषय में आपकी राय और सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

अभिव्यक्ति दस साल की


इस सप्ताह स्वतंत्रता दिवस के शुभ दिन अभिव्यक्ति, ४५०वें अंक के साथ अपने जीवन के दस वर्ष पूरे करेगी। इसका पहला अंक १५ अगस्त २००० को प्रकाशित हुआ था। पत्रिका का प्रारंभ मासिक पत्रिका के रूप में हुआ था पर जल्दी ही यह पाक्षिक और फिर साप्ताहिक रूप में प्रकाशित होने लगी।

पाठकों के अपरिमित स्नेह, साथियों के निरंतर सहयोग और रचनाकारों के कर्मठ उद्यम के लिये कृतज्ञता प्रकट करने का इससे उपयुक्त समय और भला क्या होगा। अभिव्यक्ति की स्थायी टीम प्रो.अश्विन गांधी, प्रवीण सक्सेना, पूर्णिमा वर्मन और दीपिका जोशी की ओर से पाठकों, स्तंभकारों व रचनाकारों का सादर अभिनंदन व हार्दिक आभार! आनेवाले समय के लिये भारतीय साहित्य, संस्कृति और कला से प्रेम रखने वालों के लिए ढेरों शुभकामनाएँ। आशा है आगे की यात्रा साहित्य, तकनीक, कला और सार्थकता की दृष्टि से बेहतर बनेगी।

यह देखकर प्रसन्नता होती है कि वर्ष २००० जहाँ हमारे पहले अंक को पढ़नेवाले माह में केवल ६० थे आज इनकी संख्या लगभग ५ लाख है। हिंदी में लिखे गए ढेरों शुभकामना संदेश इस समय अभिव्यक्ति के फेसबुक वाले समूह पृष्ठ पर पढ़े जा सकते हैं। ये सभी संदेश हिंदी के अनन्य प्रेमियों या साहित्यकारों के हैं जिन पर तकनीक से दूरी बनाए रखने के आरोप लगते रहे हैं। कुछ संदेश ऐसे पाठकों के भी हैं जो भारतीय मूल के नही हैं। यह हिंदी के लिये सुखद स्थिति है और इंगित करती है कि हिंदी का प्रयोग करने वालों में कंप्यूटर का ज्ञान व रुझान तेजी से बढ़ रहा है साथ ही हिंदी विदेशियों में भी लोकप्रिय हो रही है।

जहाँ तक पहुँचे हैं उसका संतोष है, भविष्य के लिये कुछ योजनाएँ हैं जो धीरे धीरे अपना रूप लेंगी। आशा है सभी का स्नेह और सहयोग इसी प्रकार मिलता रहेगा।

स्वतंत्रता दिवस की अनेक शुभकामनाओं के साथ,

पूर्णिमा वर्मन

बुधवार, 9 जून 2010

मन के मंजीरे

भारत में शायद शांति देवी के विषय में बहुत कम लोग जानते होंगे लेकिन इमारात में पिछले सप्ताह "गल्फ न्यूज" नामक समाचार पत्र की "फ्राइ डे" नामक साप्ताहिक पत्रिका में वे व्यक्तित्व के अंतर्गत छाई रहीं। शांति देवी दिल्ली की ओर जाने वाली एक प्रमुख सड़क पर स्थित अपने छोटे से गैरेज में पति के साथ ट्रक मैकेनिक का काम करती हैं। उनका कहना है कि लोग उनको ट्रक मैकेनिक का काम करता हुआ देखकर अचरज करते हैं लेकिन इस काम को करते हुए उन्हें स्वयं कोई अचरज नहीं होता। वे जितनी सहजता से रोटी पकाती हैं या सिलाई मशीन चलाती हैं उतनी ही सहजता से ट्रक मैकेनिक का काम भी कर लेती हैं।

मध्य प्रदेश की रहने वाली शांति बीस साल पहले अपने पति के साथ दिल्ली आयीं थी और यहीं की होकर रह गई। पूरे भारत में शायद वे एकमात्र महिला ट्रक मैकेनिक हैं। उन्होंने टायर बदलना और ट्रक की दूसरी मरम्मत करने का काम अपने पति से सीखा और निरंतर अपने ज्ञान को बढ़ाती रहीं। आज वे अनेक पुरुषों से बेहतर ट्रक मैकेनिक मानी जाती हैं। उनका कहना है कि अगर किसी महिला में पुरुषों द्वारा किए जाने वाले कामों को करने का जुनून हो तो अवश्य ही वह उसे पुरुषों जैसा या उनसे भी बेहतर कर सकती है।

शांति बाई को पढ़ने लिखने का अवसर तो नहीं मिला लेकिन उन्हें जो भी काम सीखने का अवसर मिला उसे उन्होंने तन्मयता से सीखा और उसके द्वारा अपने परिवार को आर्थिक सहयोग भी किया। एक सौ पचास रुपये महीने पर एक सिलाई मशीन से अपना कार्यजीवन प्रारंभ करने वाली शांति ने पाँच साल पहले दिल्ली में अपना पक्का मकान बना लिया है। अपनी सफलता का श्रेय पति को देती हुई वे कहती हैं कि हमारी सफलता का राज़ यही है कि हम दोनों साथ काम करते हैं। उन्होंने मुझे हर काम सीखने में सदा सहायता की और किसी भी काम के प्रति हतोत्साहित नहीं किया। उनका विचार है कि पढ़ना लिखना जीवन के लिए आवश्यक है लेकिन किसी एक काम में तकनीकी निपुणता प्राप्त करना भी ज़रूरी है। अगर भारत की सारी महिलाओं को शांति देवी जैसे काम करने के अवसर मिलें ते भारत की अर्थव्यवस्था बदलने में पल भर की भी देर न लगेगी।

कुछ वर्ष पहले की बात है शुभा मुद्गल का गाया हुआ मन के मंजीरे नामक एक गीत का वीडियो अक्सर टीवी पर दिखाई देता था जिसमें एक महिला ट्रक ड्राइवर की कहानी दिखाई गई थी। बड़े ही काव्यात्मक बोलों वाले इस वीडियों में अभिनय मीता वशिष्ठ ने किया था। बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि इस गीत के रचयिता आज के प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी थे। यह वीडियो "ब्रेक थ्रू" नामक एक समाजसेवी संस्था द्वारा जारी किया गया था जो लोकप्रिय कला माध्यमों द्वारा सामाजिक न्याय के लिए आवाज़ उठाती है। न जाने क्यों शांति देवी की कहानी पढ़ते हुए यह गीत ध्यान में आ गया। शायद इसलिए कि दोनो बातों में ट्रक और महिला का संयोग एक सा है। गीत की याद आ गई तो उसे यू ट्यूब पर खोलकर एक बार फिर से सुना। सुनते सुनते लगा कि अपने-अपने जीवन में संघर्षरत हर व्यक्ति के मन के मंजीरे इसी प्रकार सफलता की धुन में बजें और बजते ही रहें।

बुधवार, 26 मई 2010

कैसी कैसी कार चोरियाँ


यों तो इमारात में गर्मी का मौसम अभी शुरू नहीं हुआ है पर दोपहर में इतनी गरमी ज़रूर हो जाती है कि बंद कार अगर आधा घंटा धूप में खड़ी रह जाए तो उसे फिर से ठंडा होने में १५ मिनट का समय लग जाए। इससे बचने के लिए अक्सर लोग ए.सी. खोलकर कार में ताला लगाए बिना दूकानों में चले जाते हैं ताकि वापस लौटने पर कार ठंडी मिले। कभी कभी लोग घर से निकलने के १०-१५ मिनट पहले कार चालू कर देते हैं ताकि यात्रा शुरू करने से पहले कार थोड़ी ठंडी हो जाए।

मेरे पिताजी के लिए इसमें से दो बातें बडे ही आश्चर्य की थीं। उन्होंने पूछा था, "क्या लोग कार खुली छोड़कर दूकान के अंदर चले जाते हैं? और वो चोरी नहीं हो जातीं?"
"क्या बिना चलती हुई कार में ए.सी. और रेडियो चलाने से उनकी बैटरी डाउन नहीं होती?"

बिना चलती हुई कार में ए.सी. और रेडियो कैसे चलता है यह बात तो उन्हें जल्दी ही समझ में आ गई लेकिन खुली पड़ी कारें चोरी नहीं होतीं इसका आश्चर्य बना ही रहा था। मैंने कहा था, यहाँ आमतौर पर लोग सूटकेस बाहर छोड़कर रेस्त्रां में चाय पीने चले जाते हैं। आधे घंटे बाद आने पर भी सूटकेस वहीं मिलता है। चोरी की घटनाएँ आमतौर पर नहीं होती हैं। तब से अब तक १५ साल में इमारात की जनसंख्या दुगनी हुई है। भीड़ बढ़ने के साथ साधनों की कमी हुई है, महँगाई बेतहाशा बढ़ी है और साथ ही बढ़वार हुई है अपराधों की। अन्य गंभीर अपराध तो बढ़े ही हैं, सामान्य रूप से पड़ी हुई चीज़ चोरी नहीं होगी ऐसा अब नहीं कहा जा सकता। ए.सी. चलाकर बिना ताला लगाए छोड़ी गई कारों पर भी इसका असर हुआ है।

दुबई पुलिस द्वारा जारी एक समाचार के अनुसार २००८ की गर्मियों में ए.सी. चालू कर के छोड़ी गई ४० कारें चोरी हुई थीं जिसमें से ३५ बरामद कर ली गई थीं। २००९ में ६४ कारें चोरी हुईं और सभी को पुलिस ने बारमद कर लिया। इस वर्ष चोरी की घटनाओं से बचने के लिए गरमी शुरू होने से पहले ही पुलिस द्वारा अखबारों में निरंतर चेतावनी प्रकाशित की जा रही है कि कार का ए.सी. चलाकर उसे अकेला न छोड़ें। इस सबके बावजूद ९ कारें चोरी हो चुकी हैं जिसमें से ४ अभी भी लापता है। महँगी और शानदार गाड़ियाँ चोरी का ज्यादा शिकार होती हैं। तो क्या शहर में गाड़ी चोरों का गैंग आ बसा है?

पुलिस का कहना है कि ए.सी. चलाकर छोड़ी गई महँगी कारों की चोरी हमेशा उन्हें बेचकर धन कमाने के लिए नहीं की जाती। एक चोर ने स्वीकारा कि जब वह सड़क के किनारे टैक्सी का इंतज़ार कर रहा था उसके सामने ही एक लग्जरी कार आकर रुकी जिसका चालक उसे खुली छोड़कर सुपर मार्केट के अंदर चला गया। टैक्सी की प्रतीक्षा करने वाला व्यक्ति लग्जरी कार पर सवारी के लालच को रोक न सका और कार लेकर उड़ता बना। बाद में उसने गंतव्य पर पहुँचकर कार को उसी प्रकार खुला छोड़ दिया जैसा उसके मालिक ने छोड़ा था।

कमाल है जनाब! चोरी में भी इतनी शराफ़त! मालूम नहीं यह कहानी पढ़कर पिताजी की क्या प्रतिक्रिया होगी। शायद वे जोर का एक ठहाका लगाएँगे।

सोमवार, 17 मई 2010

प्रयास- ऐल्ते विश्वविद्यालय की साहित्यिक पहल

विदेशों में भारतीय संस्कृति और हिंदी भाषा से जुड़ने का जो अनुशासन दिखाई देता है वह इससे जुडी प्राचीन विद्याओं के प्रति उनके आध्यात्मिक लगाव और समझ को व्यक्त करता है। पिछले सप्ताह हंगरी की राजधानी बुदापैश्त के ऐल्ते विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में इसका अनुभव एक बार और हुआ।

यह विभाग 'प्रयास' नाम से हिंदी में एक त्रैमासिक भित्ति पत्रिका का प्रकाशन करता है। इसमें ऐल्ते और पेच विश्वविद्यालयों के वर्तमान छात्र, भूतपूर्व छात्र व दूतावास द्वारा चलाई जानेवाली कक्षा के छात्रों व अध्यापकों का सहयोग लिया जाता है। पत्रिका के संस्थापक व वर्तमान संपादक ऐल्ते विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अतिथि प्रोफेसर डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा हैं। विभागाध्यक्ष मारिया नेज्यैशी का सहयोग और सौजन्य स्वाभाविक रूप से इस पत्रिका को प्राप्त है। उनकी कुछ हिंदी रचनाएँ भी इसमें प्रकाशित हुई हैं। पत्रिका में मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त हंगेरियन से हिंदी अनुवाद, साक्षात्कार, यात्राविवरण आदि भी प्रकाशित किए गए हैं। रोचक बात यह है कि अनेक मूल रचनाओं में संपादन नहीं किया गया है। इससे सामान्य हिंदी पाठकों को यह जानने का अवसर मिलता है कि एक हंगेरियन छात्र को हिंदी भाषा की किस बात को समझने में कठिनाई होती है और वह कहाँ कहाँ गलतियाँ कर सकता है।

पिछले माह इसके वेब संस्करण का भी लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर वहाँ उपस्थित छात्रों से बात करने, उन्हें अभिव्यक्ति-अनुभूति के बारे में बताने और हंगरी व हिंदी में काम करने वाले लोगों से मिलने का सौभाग्य मिला। यह देखकर प्रसन्नता हुई कि किसी विदेशी विश्वविद्यालय ने वेब तक अपने हाथ फैलाकर हिंदी का परचम लहराया है। विश्व में किसी भी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की यह पहली पत्रिका है जो वेब पर आ खड़ी हुई है। आशा है शीघ्र ही अनेक विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की पत्रिकाएँ भी वेब पर आएँगी और हिंदी वेब के सार्थक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी। इस लेख को पढ़नेवाले कोई पाठक अगर किसी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर या छात्र हैं और विभाग की पत्रिका से जुड़े हैं तो अभिव्यक्ति को नीचे दिए गए पते पर ईमेल लिखकर सहयोग का अनुरोध कर सकते हैं। अगर ऐसी दस पत्रिकाएँ भी जुड़ सकीं तो अभिव्यक्ति की ओर से सबसे अच्छी पत्रिका का चुनाव कर एक वार्षिक पुरस्कार भी दिया जा सकेगा।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

कोहरे की नदी


समय और स्थान बदलने से बहुत सी धारणाएँ किस तरह बदल जाती हैं इसका आभास पिछले कुछ सालों में गहराई से हुआ है। पृथ्वी जैसी ज़मीन से दिखती है वैसी ही तीसवीं मंज़िल से नहीं दिखती इसका आभास भी बहुत से लोगों को होगा। हम सब यह भी जानते हैं कि पहाड़ी शहरों में बादल खुली खिड़कियों से कमरे में आ जाते हैं और अक्सर नीचे घाटियों में तैरते दिखाई देते हैं या कोहरा घाटी से उठता है और आकाश में जम जाता है। मैदानी शहरों में रहने वाले यह भी जानते हैं कि सर्दी की ठंडी रातों में देर रात कोहरा फुहार की तरह बरसता है, लेकिन सुबह का कोहरा आसमान में नहीं ज़मीन में नदी की तरह बहता है उसका आभास पिछले दिनों दुबई के निवासियों को शायद पहली बार हुआ।

यह तो मैंने पिछले एक लेख में लिखा ही था कि इमारात में गर्मियों की कई सुबहें कोहरे से भरी होती हैं। इस बार दस मार्च को एक ऐसी ही सुबह थी। दुबई की बहुमंज़िली इमारतों में रहने वाले लोगों ने सुबह उठकर खिड़की के बाहर गहरी सड़क की जगह ऊपर तक उफनती कोहरे की एक नदी देखी। यों तो समंदर में आसमान तक भरे कोहरे, या शहर की सड़कों पर यातायात अवरुद्ध करते हुए कोहरे को हम सबने देखा है लेकिन नीचे की ओर सड़क में भरे कोहरे को देखने का यह अनुभव अनोखा था। ऐसा लगा जैसे खुले हुए प्राकृतिक स्थलों से इसे जबरदस्ती मार भगाया गया है और वह शहर की सड़कों में अट्टालिकाओं के बीच आ छुपा है। दोपहर दस बजे के बाद यह नदी धीरे धीरे घुलकर गायब हो गई। कहना न होगा कि लोगों ने इस दृश्य का जी भर कर आनंद लिया, फोटो खींचे और देर तक इसके साथ लगे रहे। समाचार पत्रों में भी अगले दिन कोहरे की इस नदी के खूब चित्र छपे। इन्हीं में से लिया गया एक चित्र ऊपर प्रस्तुत है। बड़ा आकार देखने के लिए चित्र को क्लिक करना होगा। आशा है प्रकृति का यह अनोखा सौंदर्य उन सबको लुभाएगा जिन्होंने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा है।

जंगलों की ओर बढ़ते शहरों ने जिस तरह पशुओं को बेघर कर के शहर में बेघर घमने पर मजबूर कर दिया है आशा है उस तरह का हाल प्रकृति का नहीं होगा। नदियाँ सदानीरा बनी रहेंगी, पर्वत हरियाली संभाले रहेंगे, समंदर शहरों पर कहर नहीं ढाएँगे और कोहरे की नदी खिड़की पर आएगी तो, पर कुछ भी बहा नहीं ले जाएगी।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

चमकते सितारे उड़ते लश्कारे

यह चेहरा कुछ पहचाना सा है न? अनिल कपूर ही तो हैं, शायद किसी भूमिका के लिए वज़न कुछ बढ़ाया गया है। मैंने भी पहली नज़र में यही सोचा था, लेकिन सोच सही नहीं निकली। ये अनिल कपूर नहीं अरबी दुनिया के लोकप्रिय पॉप गायक राघेब अल्लामा है। पिछले दिनों इनके अमर दिआब के साथ विवाद के चर्चे अखबारों में खूब छपे। जल्दी ही सब कुछ शांत हो गया और दोनो दोस्त बन गए। ठीक वैसे ही जैसे हमारे बॉलीवुड में होता है। जहाँ सितारे चमकेंगे वहाँ कुछ लश्कारे तो उड़ेंगे ही।

अरबी पॉप धमाकेदार संगीत है। इसकी ताल का जवाब नहीं। फिर भी यह माना होगा कि भारतीय फिल्मी संगीत जैसा दुनिया के किसी देश की फिल्मों का संगीत नहीं होता। शायद इसीलिए सारी दुनिया को पॉप संगीत की आवश्यकता होती है। अरबी पॉप की दुनिया काफ़ी बड़ी है जो मिस्र से लेकर लेबनॉन तक फैली है। राघेब मूलरूप से लेबनान के हैं और अमर दिआब मिस्र के और ये दोनो ही गायक इमारात में खूब लोकप्रिय हैं।

अमर दिआब ने अपनी सफलती की ऊँचाइयों को वर्ष 2000 में तब छुआ जब उनका एलबम तमल्ली मआक जारी हुआ। इसने अरबी दुनिया में खूब धूम मचाई। उस समय इमारात की हर संगीत की दुकान, सुपर मार्केट और कार में यही गीत दिन रात सुनाई देता था। केवल अरबी दुनिया ही नहीं यूरोप में भी इसे खूब लोकप्रियता प्राप्त हुई। हमारा भारत भी इसकी गूँज से नहीं बचा। बहुत से पाठकों को अन्नू मलिक द्वारा संगीतबद्ध किया मल्लिका शेरावत और इमरान हाशमी पर फ़िल्माया गया मर्डर फिल्म का एक गीत 'कहो न कहो' याद होगा। वह गीत इसी धुन पर आधारित था।

जो गीत इतना लोकप्रिय हो उसमें कुछ तो विशेष होता ही है। इस गीत में अरबी संगीत की जोशीली ताल को स्पैनिश गिटार के साथ प्रयोग में लाया गया है और ऐसा करते हुए गीत को जोशीला बनाने की बजाय बोलों के अनुरूप मधुर बनाया गया है। यही इस गीत की विशेषता है। यू ट्यूब पर खोजें तो इस गीत पर आधारित दो वीडियो मिलते हैं। एक में अरबी पृष्ठभूमि है तो दूसरे में यूरोपीय। यहाँ प्रस्तुत है अरबी पृष्ठभूमि वाले वीडियो की कड़ी। इसमें अरबी संगीत और नृत्य की झलक देखी जा सकती है। गिटार जैसा दिखने वाला थोड़ा छोटा और मोटा जो वाद्य बजाया जा रहा है वह ओउद है और स्वरमंडल जैसा एक दूसरा सफ़ेद वाद्य क़नून है। यह स्वरमंडल से थोड़ा बड़ा होता है और इसमें 75 तार लगे होते हैं। वीडियो के पूर्वार्ध में जिस तरह लोग नृत्य कर रहे हैं उसमें हाथों और पैरों को कुछ विशेष मुद्राओं में संचालित किया जा रहा है। ये दो तीन मुद्राएँ अरबी नृत्य की आधारभूत मुद्राएँ है और हर अरबी इन मुद्राओं में नृत्य करना जानता है। तो फिर देर किस बात की, वीडियो पर क्लिक करें और अरबी संगीत का आनंद लें। वीडियो देखते हुए अमर दिआब के चेहरे में किसी किसी कोण से कुछ लोगों को मिलिंद सोमन की झलक मिल सकती है। इसका एक और वीडियो यहाँ देखा जा सकता है।