शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

फागुन के दोहे

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ऐसी दौड़ी फगुनहट ढाणी चौक फलांग।
फागुन आया खेत में गये पड़ोसी जान।।


आम बौराया आँगना कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा मौसम हुआ बहार।।


दूब फूल की गुदगुदी बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी मौसम को है आस।।


वर गेहूँ बाली सजा खड़ी फ़स़ल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ सरसों पीली गात।।


ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात।
मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश।।


ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत।
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।।


मौसम के मतदान में हुआ अराजक काम।
पतझर में घायल हुए निरे पात पैगाम।।


दबा बनारस पान को पीक दयी यौं डार।
चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार।।


सजे माँडने आँगने होली के त्योहार।
बुरी बलायें जल मरें शगुन सजाए द्वार।।


मन के आँगन रच गए कुंकुम अबीर गुलाल।
लाली फागुन माह की बढ़े साल दर साल।।

5 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

देस की भीनी-भीनी सुगंध लिए हुए :)

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

पूर्णिमा वर्मन जी,
आपका ब्लॉग देख कर प्रसन्नता हुई।

ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत।
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।।

अत्यंत सुन्दर और भावपूर्ण बिम्ब...सभी दोहे लाजवाब हैं।
बधाई स्वीकारें !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बरसी फागुनी मुस्कान।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

पूर्णिमा जी ...

Lag raha है holi aane waali है ... abeer mahka huva है ...
dohon ko padh kar aanand le raha hun ...

पूर्णिमा वर्मन ने कहा…

भाई प्रसाद, शरद जी, प्रवीण जी और दिगंबर जी आपके उत्साहवर्धक शब्दों के लिये धन्यवाद।