बुधवार, 29 अप्रैल 2009

खोती हुई आवाज़ें


फुटबॉल इमारात का राष्ट्रीय खेल है। यहाँ के गर्म मौसम के कारण खेल का समय साल में कुछ दिन ही रहता है- सर्दियों के महीनों में। सर्दियाँ भी बिलकुल हल्की गुलाबी रौनक भरी दुपहरी वाली। इन दिनों आवासीय कॉलोनियों की हर सड़क पर फुटबॉल की ऐसी धूम रहती है जैसी भारत में क्रिकेट की। खेल की भी एक आवाज़ होती है.... विजय में डूबी उमंग की, जोश से भरे उत्साह की, कारों के भयभीत हॉर्न की, खिड़की के बिखरते काँच की, बच्चों पर बरसती फटकार की। ये आवाज़ें बड़ी लुभावनी होती हैं और पूरे मुहल्ले को अपने रंग से भर देती हैं।

मई के आरंभ तक यहाँ सर्दियों का अंत हो जाता है। यानी दिन सुनसान होने लगते है। पिछले दस सालों में इमारात की संस्कृति में तेज़ी से बदलाव आया है। लगभग पूरा दुबई काँच की गगनचुंबी इमारतों में परिवर्तित हो गया है। पुराने मुहल्ले या तो ख़त्म हो गए हैं या ख़त्म होने की कगार पर हैं। इनके स्थान पर काँच की दीवारों वाली बहुमंज़िली इमारतें आ गई हैं। जो मुहल्ले बच गए हैं, उनमें रहने की अलग शैली है। इनके आलीशान घरों में रहने वाले आभिजात्य बच्चे सड़कों पर नहीं खेलते। वे फुटबॉल के लिए बनाए गए विशेष मैदानों पर खेलते हैं। विशेष मैदान होना अच्छी बात है, पर विकास के साथ हम बहुत सी दिलकश आवाज़ों को भी खो रहे हैं जो भविष्य में कभी कहीं सुनाई नहीं देंगी। सड़कों पर खेलते हुए बच्चों की आवाज़ें भी उनमें से एक हैं।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

हरा समंदर गोपी चंदर


इमारात में दो तरह के समंदर हैं। एक पानी का और दूसरा रेत का। रेत समंदर जैसी क्यों और कैसे दिखाई देती है यह वही जान सकता है जिसने रेगिस्तान देखा हो। रेत में भी समंदर की तरह लहरें होती हैं, तूफ़ान होते हैं और जहाज़ होते हैं। रेगिस्तान के जहाज़ यानी ऊँट। दूर से देखने पर रेत में गुज़रता हुआ ऊँट, पानी में गुज़रते जहाज़ की तरह मद्धम डोलता है और धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो जाता है, क्यों कि समंदर चाहे पानी का हो या रेत का दोनों ही होते हैं अंतहीन।


समंदर में तूफ़ान आता है तो लहरे तट पर सर पटकती हैं पर रेत में तूफ़ान आता है तो यह पूरे शहर में बवाल करती फिरती है। कार के शीशे पर गुलाल की तरह बरसती है, चौड़ी सड़कों पर बवंडर की तरह दौड़ती है और घरों के बरामदों में ढेर की तरह आ जुटती है।


यहाँ पानी का समंदर होता है हरा और रेत का समंदर लाल। दूर क्षितिज पर जब यह हरा समंदर नीले आसमान के साथ क्षितिज रेखा बनाता है तो मुझे क्षितिज के पार भारत का समंदर याद आता है, जो हरा नहीं नीला होता है और बहुत दूर तक आसमान के साथ बहते हुए उसमें विलीन हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हम भारतवासी दूर दूर तक हर देश में उस देश के हवा पानी के साथ घुल-मिल जाते हैं।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

आवजो... फिर आना


खाना जीवन की पहली ज़रूरत तो है ही, विलासिता में भी यह पहले स्थान पर है। एक समय था जब थाली वाले होटल आम-आदमी के भोजन की सस्ती जगह समझे जाते थे। आज यह सस्ती थाली नाज़ो-नखरे के साथ, विभिन्न देशों के अनेक होटलों और रेस्त्राओं से सजे दुबई में लोकप्रियता के रेकार्ड बना रही है। पिछले साल यहाँ खुले 'राजधानी' नाम के रेस्त्रां के सामने लगी भीड़ से ऐसा लगता है जैसे खाना यहाँ मुफ़्त बँट रहा है। ऐसी भीड़ थाली वाले रेस्त्रां में मैंने पहले पूना के श्रेयस में देखी थी। पर वहाँ के भोजन में मराठी अंदाज़ हैं और यहाँ इस रेस्त्रां के गुजराती। पतली कार्निस पर रखी लकड़ी की धन्नियों वाली छत से सजे इस रेस्त्रां की आंतरिक सज्जा में पारंपरिक सौंदर्य भरने का सुरुचिपूर्ण प्रयत्न किया गया है।

भारत में पहले ही 'राजधानी थाली' नाम से ३४ रेस्त्रां चलाने वाली इस भोजन शृंखला का यह पहला विदेशी उपक्रम था। अभी तक भारत में इसकी शाखाओं की संख्या ३८ हो चुकी है। इस बीच राजधानी थाली सिडनी और वियतनाम में भी यह अपने पाँव जमा चुकी है। ६० साल से अधिक पुराने इस पारंपरिक रेस्त्रां की पहली शाखा १९४७ में मुंबई के क्रॉफ़र्ड मार्केट में खुली थी।

खाने के पहले और बाद ताँबे के तसले में अरबी जग से हाथ धुलवाने की ऐसी परंपरा शायद दुबई के किसी अन्य रेस्त्रां में नहीं। धुएँ का छौंक लगी लस्सी लाजवाब है और अगर २८ व्यंजनों वाली थाली का खाना खाकर दिल खुश हो जाए तो आप रेस्त्रां में टंगी थाली को वहीं रखी छड़ीनुमा हथौड़ी से बजा सकते हैं। थाली की झंकार सुनते ही वेटरों का समवेत स्वर गूँजता है- आवजो यानी फिर आना और प्रवासी की आँखें गीली गीली।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

दौड़ ऊँटों की


अरबी घोड़ों का बड़ा नाम और बड़ी शान है पर अरबी ऊँटों की शान से उनका कोई मुकाबला नहीं। इसको समझने के लिए इमारात की ऊँट-दौड़ देखना ज़रूरी है। यहाँ के राज परिवार और रईसज़ादे इस खेल को बड़ी रुचि से खेलते हैं।

घोड़ों के रेसकोर्स की तरह ऊँटों के भी रेसकोर्स होते हैं पर घोड़ों की तरह उनके सवार इंसान नहीं होते। इनके जॉकी होते हैं हाईटेक रोबोट। ये रोबोट एक छोटे बच्चे जैसे दिखाई देते हैं और कोड़ा चलाते हुए चिल्लाकर ऊँट को दिशा निर्देश देते हैं। रोबोट का रिमोट होता है मालिकों के हाथ में। जिन दीर्घाओं (लेन) में ऊँट दौड़ते है वे कच्ची होती हैं, पर उसके साथ ही एक चौड़ी पक्की दीर्घा भी बनाई जाती है जिस पर ऊँट मालिकों की कारें ऊँटों के साथ-साथ दौड़ती हैं। एक कार में आमतौर पर दो व्यक्ति होते हैं। एक जो कार चलाता है और दूसरा जो रिमोट संचालित करता है। क्या दृश्य होता है! एक गली में ऊँट रेस तो तो दूसरी गली में कार रेस और वह भी एक दूसरे के साथ संतुलन साधती हुई।

दौड़ में प्रथम द्वितीय और तृतीय आने वाले विजयी ऊँटों को तुरंत सम्मानित किया जाता है उनके सिर और गले पर केसर का लेप लगाकर। इस प्रकार के लाल सिर वाले ऊँट की विशेष कार को जब अरबी अपनी फ़ोर व्हील ड्राइव से जोड़ कर घर लौटता है तो लोग उसे मुड़ मुड़ कर देखते हैं। तब उसकी शान देखते ही बनती है।