रविवार, 25 नवंबर 2007

मेरा पता

आज फिर एक पुराना गीत। इसके छंद लंबे हैं, शायद इतना बहाव नहीं, तरलता नहीं जो गीत के लिए चाहिए पर मेरे कुछ पाठकों को यह काफ़ी पसंद आया था। अगर इसको पढ़ते हुए अपनी या किसी और कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आएँ तो टिप्पणी में लिखना न भूलें।

सुबह से शाम से पूछो
नगर से गाम से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

कि इतना भी कहीं बेनाम
अपना नाम तो नहीं
अगर कोई ढूँढना चाहे तो
मुश्किल काम भी नहीं
कि अब तो बादलों को भी पता है
नाम हर घर का
सफ़ों पर हर जगह टंकित हुआ है
हर गली हल्का
कि अब दुनिया सिमट कर
खिड़कियों में बंद साँकल सी
ज़रा पर्दा हिला और खुल गयी
एक मंद आहट सी

सुगढ़ दीवार से पूछो
खिड़कियों द्वार से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

ये माना लोग आपस में
ज़रा अब बोलते कम हैं
दिलों के राज़ भी आँखों में भर कर
खोलते कम हैं
ज़िन्दगी़ भीड़ है हर ओर
आती और जाती सी
खुदाया भीड़ में हर ओर
छायी है उदासी सी
मगर तुम बात कर पाओ
तो कोई तो रूकेगा ही
पकड़ कर हाथ बैठा लो
तो घुटनों से झुकेगा ही

हाथ में हाथ ले पूछो
मोड़ के गाछ से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

फिज़ां में अब तलक अपनों की
हल्की सी हवा तो है
नहीं मंज़िल पता पर साथ
अपने कारवां तो है
वनस्पति में हरापन आज भी
मन को हरा करता
कि नभ भी लाल पीला रूप
दोनों वक्त है धरता
कि मौसम वक्त आने पर
बदलते हैं समय से ही
ज़रा सा धैर्य हो मन में
तो बनते हैं बिगड़ते भी

धैर्य धर आस से पूछो
मधुर वातास से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

जानेमन नाराज़ ना हो

पिछले दो दिन अभिव्यक्ति और अनुभूति का काफ़ी काम करना हुआ, सो यहाँ कुछ लिखा नहीं जा सका।
आज प्रस्तुत है एक बहुत पुराना गीत--

जानेमन नाराज़ ना हो

समय पाखी उड़ गया तो
भाग्य लेखा मिट गया तो
पोर पर
अनमोल ये पल
क्या पता
कल साथ ना हों
जानेमन नाराज़ ना हो


ज़िंदगी एक नीड़ सी है
हर तरफ़ एक भीड़ सी है
कल ये तिनके
ना हुए तो
हम न जाने
फिर कहाँ हों
जानेमन नाराज़ ना हो

बुधवार, 21 नवंबर 2007

आवारा दिन

आज एक पुराना गीत फिर से, शायद बहुत से मित्रों ने इसे पढ़ा नहीं होगा। यहाँ एक शब्द है भिनसारा। पूर्वी उत्तर प्रदेश में काफ़ी प्रचलित इस शब्द का अर्थ है बिलकुल सुबह या उषाकाल। शायद आम हिंदी में हर जगह इस शब्द का प्रयोग ना भी होता हो। तो आज यह गीत विशेष रूप से बचपन की यादों के नाम--

दिन कितने आवारा थे
गली गली और बस्ती बस्ती
अपने मन
इकतारा थे

माटी की
खुशबू में पलते
एक खुशी से
हर दुख छलते
बाड़ी, चौक, गली, अमराई
हर पत्थर गुरुद्वारा थे
हम सूरज
भिनसारा थे

किसने
बड़े ख़्वाब देखे थे
किसने
ताजमहल रेखे थे
माँ की गोद,
पिता का साया
घर घाटी चौबारा थे
हम घर का
उजियारा थे

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

ताड़ों की क्या बात

हिंदी प्रदेश के बहुत कम लोग जानते होंगे कि मध्यपूर्व में ताड़ों की छाया बड़ी ही शीतल होती है। यहाँ के रेगिस्तान में जहाँ कहीं मरूद्यान होता है वहाँ खजूर या ताड़ के ही पेड़ होते हैं। मौसम आने पर इन पेड़ों में से बहुत महीन सफ़ेद रंग के फूल झरते हैं जो उनकी छाया को अद्भुत सौंदर्य प्रदान करते हैं। तो आज की पोस्ट मेरे बगीचे के ताड़ों के नाम।

हाथ ऊपर को उठाए
मांगते सौगात
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

गहन ध्यान में लीन
हवा में
धीरे-धीरे हिलते
लंबे लंबे रेशे बिलकुल
जटा जूट से मिलते
निपट पुराना वल्कल पहने
संत पुरातन कोई न गहने

नभ तक ऊपर उठे हुए हैं
धरती के अभिजात
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

हरसिंगार से श्वेत
रात भर
धीरे धीरे झरते
वसुधा की श्यामल अलकों में
मोती चुनकर भरते
मंत्र सरीखे सर सर बजते
नवस्पंदन से नित सजते

मरुभूमि पर रखे हुए है
हरियाली का हाथ
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

सोमवार, 19 नवंबर 2007

मनके

टुकड़े टुकड़े टूट जाएँगे
मन के मनके
दर्द हरा है

ताड़ों पर सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

गुलमोहर-सी जलती है
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी भटक रहीं सब
प्रेम कथाएँ
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है

शनिवार, 17 नवंबर 2007

शब्द

आज सुबह अचानक यतीश की कविता मिली - "शब्द" फिर उनकी कविता से रचना की एक प्रविष्टि पर पहुँची शीर्षक था शब्द ही ना समझे पर शब्दों को। पोस्टिंग से भी शानदार कमेंट पढ़ने को मिला, शास्त्री जे सी फिलिप का- "शब्द में है ताकत"... इस दौर से गुज़रते हुए अपनी भी एक कविता याद आई। सोचा शब्द को थोड़ा विस्तार दे दूँ...मेरी शब्द शीर्षक कविता 2001 में लिखी गई थी और यह मेरे कविता संग्रह वक्त के साथ में प्रकाशित हुई थी। यह ब्लॉग गीतों के लिए बनाया था पर ब्लॉगियों से प्रभावित होकर आज प्रस्तुत है कविता- शब्द

शब्द दोस्त हैं मेरे
अलग-अलग काम के लिए
अलग-अलग वक्त पर
सहयोग करते हुए
मेरी भाषा के शब्द
मेरे साथ बढ़ते हुए ।


मुश्किल में वही काम आए हैं
मेरे विश्वास पर खरे उतरते हुए
जब कोई साथ न दे
वही बने हैं मेरा संबल
मेरा धर्म,
मेरा ईश्वर
मेरा दर्शन
रात के अंधेरे से
सुबह के उजाले तक
कभी मेरी राह
कभी मेरी मंज़िल
कभी हमसफ़र

ठीक ही कहा है--
शब्द-ब्रह्म ।

कोई साथ में है

हवा में घुल रहा विश्वास
कोई साथ में है

धूप के दोने
दुपहरी भेजती है
छाँह सुख की
रोटियाँ सी सेंकती है
उड़ रही डालें
महक के छोड़ती उच्छवास
कोई साथ में है

बादलों की ओढ़नी
मन ओढ़ता है
एक घुँघरू
चूड़ियों में बोलता है
नाद अनहद का छिपाए
मोक्ष का विन्यास
कोई साथ में है

शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

सन्नाटों में आवाज़ें

सन्नाटों में भी आवाज़ें
खुशियों में भी दर्द छुपे हैं

शब्दों ने
कुछ और कहा है
अर्थों ने
कुछ और गुना है
समझ बूझकर चलने वाले
रस सागर में डूब चुके हैं

तोल-मोल है
बड़ा भाव है
दुनिया आडंबर
तनाव है
झूठे खड़े मंच पर ऊँचे
हाथ जोड़कर संत झुके हैं

जग की बस्ती
में दीवाने
ईश्वर अल्ला को
पहचाने
मन के सादे बाज़ारों में
हम यारों बेमोल बिके हैं

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

शहरों की मारामारी में

शहरों की मारामारी में
सारे मोल गए

सत्य अहिंसा दया धर्म
अवसरवादों ने लूटे
सरकारी दावे औ’ वादे
सारे निकले झूठे
भीड़ बहुत थी
अवसर थे कम
जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
घुटने बोल गए

सड़कें गाड़ी महल अटारी
सभी झूठ से फाँसे
तिकड़म लील गई सब खुशियाँ
भीतर रहे उदासे
बेगाने दिल की
क्या जानें
अपनों से भी मन की पीड़ा
टालमटोल गए

बुधवार, 14 नवंबर 2007

कोयलिया बोली

शहर की हवाओं में
कैसी आवाज़ें हैं
लगता है
गाँवों में कोयलिया बोली

नीलापन हँसता है
तारों में
फँसता है
संध्या घर लौट रहा
इक पाखी तकता है
गगन की घटाओं में
कैसी रचनाएँ हैं
लगता है
धरती पर फगुनाई होली

सड़कों पर नीम झरी
मौसम की
उड़ी परी
नई पवन लाई है
मलमल की ये कथरी
धरती के आँचल में
हरियल मनुहारें हैं
लगता है
यादों ने कोई गाँठ खोली

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

रामभरोसे

अमन चैन के भरम पल रहे -
रामभरोसे!
कैसे-कैसे शहर जल रहे -
राम भरोसे!

जैसा चाहा बोया-काटा
दुनिया को मर्ज़ी से बाँटा
उसकी थाली अपना काँटा
इसको डाँटा उसको चाँटा
रामनाम की ओढ़ चदरिया
कैसे आदमज़ात छल रहे-
राम भरोसे!

दया धर्म नीलाम हो रहे
नफ़रत के ऐलान बो रहे
आँसू-आँसू गाल रो रहे
बारूदों के ढेर ढो रहे
जप कर माला विश्वशांति की
फिर भी जग के काम चल रहे-
राम भरोसे!

भाड़ में जाए रोटी दाना
अपनी डफली अपना गाना
लाख मुखौटा चढे भीड़ में
चेहरा लेकिन है पहचाना
जानबूझ कर क्यों प्रपंच में
प्रजातंत्र के हाथ जल रहे-
राम भरोसे!

सोमवार, 12 नवंबर 2007

ज़िदगी

चाहे बाँचो, चाहे पकड़ो, चाहे भीगो
एक आवाज़ है बस दिल से सुनी जाती है
कभी पन्ना, कभी खुशबू, कभी बादल
ज़िंदगी वक्त-सी टुकड़ों में उड़ी जाती है।

कभी अहसास-सी
बहती है नसों में हो कर
कभी उत्साह-सी
उड़ती है हर एक चेहरे पर
कभी बिल्ली की तरह
दुबकती है गोदी में
कभी तितली की तरह
हर ओर उड़ा करती है

चाहे गा लो, चाहे रंग लो, चाहे बालो
हर एक साँस में अनुरोध किए जाती है
कभी कविता, कभी चित्रक, कभी दीपक
आस की शक्ल में सपनों को सिये जाती है

कभी खिलती है
फूलों की तरह क्यारी में
कभी पत्तों की तरह
यों ही झरा करती है
कभी पत्थर की तरह
लगती है एक ठोकर-सी
कभी साये की तरह
साथ चला करती है

कभी सूरज, कभी बारिश, कभी सर्दी
आसमानों में कई रंग भरा करती है
कभी ये फूल, कभी पत्ता, कभी पत्थर
हर किसी रूप में अपनी-सी लगा करती है

रविवार, 11 नवंबर 2007

नाम लो मेरा

इन घनी अमराइयों में
इन हरी तराइयों में
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा

रौशनी का एक शीशा साफ़ कर दो
फिर अंधेरा चीर कर उस पार कर दो
भेद कर आकाश की तनहाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा

हर दिशा को एक सूरज दान कर दो
फिर उजालों में नई पहचान भर दो
फूँक कर इस हवा में शहनाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा

बादलों में दर्द है कुछ टीसता है
सर्द आतिश में कहीं कुछ भीगता है
पार कर के हृदय की गहराइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा

शनिवार, 10 नवंबर 2007

एक दीप मेरा

दुनिया के मेले में
एक दीप मेरा
ढेर से धुँधलके में
ढूँढ़ता सवेरा

वंदन अभिनंदन में
खोया उजियारा
उत्सव के मंडप में
आभिजात्य सारा
भरा रहा शहर
रौशनी से हमारा
मन में पर छिपा रहा
जूना अंधियारा
जिसने अंधियारे का साफ़ किया डेरा
जिसने उजियारे का रंग वहां फेरा
एक दीप मेरा

सड़कों पर भीड़ बहुत
सूना गलियारा
अंजुरी भर पंचामृत
बाकी जल खारा
सप्त सुर तीन ग्राम
अपना इकतारा
छोटे से मंदिर का
ज्योतित चौबारा
जिसने कल्याण तीव्र मध्यम में टेरा
जिससे इन साँसों पर चैन का बसेरा
एक दीप मेरा

मंदिर दियना बार

मंदिर दियना बार सखी री
मंदिर दियना बार!
बिनु प्रकाश घट-घट सूनापन
सूझे कहीं न द्वार!

कौन गहे गलबहियाँ सजनी
कौन बँटाए पीर
कब तक ढोऊँ अधजल घट यह
रह-रह छलके नीर
झंझा अमित अपार सखी री
आँचल ओट सम्हार

चक्र गहें कर्मो के बंधन
स्थिर रहे न धीर
तीन द्वीप और सात समंदर
दुनियाँ बाज़ीगीर
जर्जर मन पतवार सखी री
भव का आर न पार!

अगम अगोचर प्रिय की नगरी
स्वयं प्रकाशित कर यह गगरी
दिशा-दिशा उत्सव का मंगल
दीपावलि छाई है सगरी
छुटे चैतन्य अनार सखी री
फैले जग उजियार!

मंगलवार, 6 नवंबर 2007

खोया खोया मन

जीवन की आपाधापी में
खोया खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन
लगता है

दौड़ बड़ी है समय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है

चैन कहाँ अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर खप कर के-
जितना जोड़ा
कितना भी हो कम लगता है

सफलताओं का नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा-
ऐसा हर पल
सच में बौनापन लगता है

खून ख़राबा मारा मारी
कहाँ जाए जनता बेचारी
आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन लगता है

हरी घाटी

फिर नदी की बात सुन कर
चहचहाने लग गई है
यह हरी घाटी हवा से बात कर के
लहलहाने लग गई है

झर रहे झरने हँसी के
उड़ रहे तूफ़ान में स्वर
रेशमी दुकूल जैसे
बादलों के चीर नभ पर
और धरती रातरानी को
सजाने लग गई है

यह हरी घाटी हवा से बात कर के
महमहाने लग गई है

गाड़ कर
पेड़ों के झंडे
बज रहे वर्षा के मादल
आँजती वातायनों की
चितवनों में सांझ काजल
और बूँदों की मधुर आहट
रिझाने लग गई है

यह हरी घाटी हवा से बात कर के
गुनगुनाने लग गई है

रविवार, 4 नवंबर 2007

बज रहे संतूर

बज रहे संतूर बूँदों के
बरसती शाम है

गूँजता है
बिजलियों में
दादरे का तीव्र सप्तक
और बादल रच रहे हैं
फिर मल्हारों के
सुखद पद
मन मुदित नभ भी धनकता ढोल
मीठी तान है

इस हवा में
ताड़ के करतल
निरंतर बज रहे हैं
आह्लादित
सागरों के लहर
संयम तज रहे हैं
उमगते अंकुर धरापट खोल
जग अनजान है

शनिवार, 3 नवंबर 2007

हवा में

हवा में घुल रहा विश्वास
कोई साथ में है

धूप के दोने
दुपहरी भेजती है
छाँह सुख की
रोटियाँ सी सेंकती है
उड़ रही डालें
महक के छोड़ती उच्छवास
कोई साथ में है

बादलों की ओढ़नी
मन ओढ़ता है
एक घुँघरू
चूड़ियों में बोलता है
नाद अनहद का छिपाए
मोक्ष का विन्यास
कोई साथ में है

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

एक दीपक / Levende Lys

जूझ कर कठिनाइयों से
कर सुलह परछाइयों से
एक दीपक रातभर जलता रहा

लाख बारिश आँधियों ने सत्य तोड़े
वक्त ने कितने दिए पटके झिंझोड़े
रौशनी की आस पर
टूटी नहीं
आस्था की डोर भी
छूटी नहीं

आत्मा में डूब कर के
चेतना अभिभूत कर के
साधना के मंत्र को जपता रहा
एक दीपक रातभर जलता रहा

जगमगाहट ने बुलाया पर न बोला
झूठ से उसने कोई भी सच न तौला
वह सितारे देख कर
खोया नहीं
दूसरों के भाग्य पर
रोया नहीं

दिन महीने साल निर्मम
कर सतत अपना परिश्रम
विजय के इतिहास को रचता रहा
एक दीपक रातभर जलता रहा
Kæmpe med besvær
Kompromiser med skyggerne
En lampes lys igennem natten.

Så ofte har regnen og stormen brudt sandheden
Tiden gav så mange rystelser
Håbets lys brød ikke
Tillidens bånd slipper ikke.

Sunket ned i sjælen,
Ubevidst dumpet ned i hengivelsens mantra
En lampes lys igennem natten.

Lyset signalerer, der svares ikke
Sandheden overvejes ikke imod løgnen
Stirrende på stjernerne uden fortabelse
Uden tårer af begær.

Dages, måneders og års ondskab
Udførende sin egen dont
Overkommende sejrens historie.


एक मित्र द्वारा किया गया डैनिश अनुवाद। शायद कोई
हिंदी जानने वाला पाठक डैनिश भी जानता हो
तो पता चलेगा कि अनुवाद का क्या मज़ा है...
सोचा वेब पर रख दूँ कहीं इधर उधर गुम न जाए