सोमवार, 25 अप्रैल 2011

प्रवासी होते चमत्कार

आज के अखबार में नोरा की तस्वीर मुखपृष्ठ पर है। नोरा पाँच साल की एक बिल्ली है जो पियानो बजाती है। इसी साल जून में नोरा ने एक लिथुआनी संगीत निर्देशक, मिंदौगस पिकैटिस के निर्देशन में अपना पहला एकल संगीत प्रदर्शन किया। यह कंसर्ट विशेष रूप से नोरा के लिए तैयार किया गया था। पिकैटिस ने इसका नाम कंसर्टो की तर्ज़ पर कैटसर्टो रखा। इसकी एक फ़िल्म भी बनाई गई जिसे http://www.catcerto.com/पर प्रदर्शित किया गया और जिसे अभी तक दो करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं।

इसके अतिरिक्त उसके तमाम छोटे वीडियो यू ट्यूब पर भी उपस्थित हैं जिन्हें नोरा की लोकप्रियता के चलते धड़ाधड़ हिट मिल रहे हैं। नोरा एक टॉक शो में भाग ले चुकी है उसको ढेरों की संख्या में ईमेल प्राप्त होते हैं उसका अपना वेब समूह हैं, वेब साइट है, साथ ही उसका अपने वीडियो एलबम और दो किताबें भी प्रकाशित हो चुकी है। उसके प्रशंसकों का कहना है कि वह एक सिद्धहस्त पियानोवादक के अंदाज में पियानो बजाती है। पियानो की कुंजियों को अपने पंजों से दबाने के दौरान कब तक सिर हिलाते रहना है, कब स्थिर करना है, यह सब उसे पता है। उसके पास एक मैनेजर है, एक फोटोग्राफ़र और अपनी व्यक्तिगत परिचारिका भी है। कहना न होगा कि नोरा फ़िलेडेल्फिया में हॉलीवुड-सितारे की तरह जीवन व्यतीत करती है।

उसके इन कारनामों से उसकी मालकिन तिरपन वर्षीय पियानो अध्यापिका बेट्सी एलेक्जेंडर और उनके पति फोटोग्राफ़र और कलाकार बर्नेल यौ खासे खुश हैं। नोरा के बारे में वे बताते हैं कि वह बेट्सी की कक्षा में आनेवाले विद्यार्थियों के साथ नियमित अभ्यास करती है। पति पत्नी ने नोरा को न्यू जर्सी में टेरी हिल के एक पशु आश्रम से तब गोद लिया था, जब वह एक वर्ष की थी। नोरा को गले में पट्टा पहनना पसंद नहीं है। वह कार या हवाई जहाज़ में यात्रा करना भी पसंद नहीं करती और जैसा-तैसा हर पियानो नहीं बजाती। उसे तो केवल यामाहा, सी-५ डिस्कलेवियर बजाना ही पसंद है, जिसका मूल्य लगभग ६०,००० अमेरिकी डॉलर है।

लोग नोरा की साइट, किताबों और वीडियो पर दनादन पैसा लुटा रहे हैं और अमेरीकी संस्थाएँ उसे सम्मानित करने में लगी हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो नोरा को चढ़ावे की कमी नहीं। विदेशी अकसर कहते हैं कि भारत चमत्कारों का देश है, लेकिन अब चमत्कार भी भारतीय जनता के साथ प्रवासी हो चले हैं। जिस देश में तीन करोड़ भारतीय जनता हो, वहाँ कोई चमत्कार न हो ऐसा कैसे हो सकता है? नोरा तो बस शुरुआत है।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

बदरिया सावन की

बचपन की जो चीज़ें अभी तक मुझे याद हैं उसमें से एक है जूथिका राय की आवाज जो अक्सर छुट्टी के दिनों पिताजी के रेकार्ड चेंजर पर सुनाई देती थी। आज के डिजिटल युग के बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि रिकार्ड चेंजर क्या चीज़ होती है। ग्रामोफोन और टेपरेकार्डर के बीच की कड़ी, यह एक ऐसी मशीन थी, जिसमें कई रेकार्ड अपने आप एक के बाद एक बजते थे। रेकार्ड चेंजर का चलना हमारे लिए उत्सव समय होता था। परिवार के सभी लोग साथ बैठते, माँ कुछ पकौड़े या मठरी जैसी चीजें तश्तरियों में ले आतीं। हम पारिवारिक बातें करते पिताजी अच्छे मूड में होते, सोफ़े पर लेटने और कूदने की आज़ादी होती और जूथिका राय का गीत पृष्ठभूमि में- रिमझिम बदरिया बरसे बरसे... लगता था जैसे खुशियों के बादल बरस रहे हों।

जूथिका राय ने पिछले वर्ष अपने जीवन के ९० वर्ष पूरे किये। इस अवसर पर जयपुर में पिछले साल १८ अप्रैल को एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन कर उन्हें सम्मानित किया गया। प्रसन्नता की बात है कि हमारे विद्वान लेखक यूनुस खान भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बने। ( इसके कुछ अंश यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं।) आवाज की वह खनक, वह शैली और वह तरलता समय के साथ आज ऐतिहासिक भले ही मानी जाने लगी हो लेकिन लालित्य और माधुर्य में आज भी यह लोगों को लुभाती है। ठीक जूथिका राय की तरह जो आज भी उत्साह की प्रतिमूर्ति दिखाई देती हैं। बताने के लिए उनके पास हज़ारों किस्से हैं और सुनाने के लिए अनुभवों का असीम कोष। वे भारत के उन गिने चुने लोगों में से हैं जिनसे हर व्यक्ति प्रेरणा ले सकता है।

सात वर्ष की आयु से संगीत कार्यक्रम देने वाली जूथिका राय चालीस और पचास के दशक में अपनी लोकप्रियता की चोटी पर थीं। उन्होंने माला सिन्हा और सुचित्रा सेन जैसी अभिनेत्रियों के लिए हिंदी और बंगाली फ़िल्मों के गीत गाए, मीरा के भजनों के लोकप्रिय एलबम निकाले और देश विदेश में संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किए। आज भी सबसे अधिक बिकनेवाले गैर फिल्मी गीतों के ग्रामाफोन रेकार्डों का कीर्तिमान उनके नाम पर है। उनके भजनों की मधुरता के लिए उन्हें आधुनिक मीरा भी कहा गया। १९७२ में इंदिरा गाँधी ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। बांग्ला में उनकी आत्मकथा "आजोऊ मोने पोड़े" नाम से प्रकाशित हुई है। गुजरात में उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके हिंदी भजनों को गुजराती में लिपिपद्ध किया गया, उनके प्रशंसकों ने स्वतंत्र रूप से धन एकत्रित कर उनकी आत्मकथा का गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया, उनके जीवन पर एक फीचर फिल्म का निर्माण किया और उनके सम्मान में २००८ तथा २००९ में भव्य कार्यक्रम आयोजित किए।

अंत में उनका वही रिमझिम बदरिया गीत जिससे आज की बात प्रारंभ हुई थी। सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की रिमझिम बदरिया उनके जीवन में एक सौ बीस साल तक बरसती ही रहे इसी मंगल कामना के साथ,

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अकेलेपन का अँधेरा


पिछले सप्ताह एक शाम शहर के एक जानेमाने रेस्त्राँ में जाना हुआ। रेस्त्राँ कुछ खाली-खाली सा था। शाम के सात बजे थे और यह समय इमाराती रेस्त्राओं में भीड़-भाड़ वाला नहीं होता। अपने खाने का आर्डर देकर हम प्रतीक्षा करते हुए बातचीत में लगे थे कि वेटर को एक छोटा सा बर्थ डे केक ले जाते हुए देखा। हमारे चेहरे पर भी मुस्कान आ गई, शायद किसी का जन्मदिन होगा। यह रेस्त्राँ काफ़ी बड़ा है और एक कोने से हर कोना नहीं दिखाई देता। सज्जा भी कुछ ऐसी है कि बीच बीच में अवरोध बनाकर ट्रे या प्याले प्लेट रखने के स्थान बनाए गए हैं, इसलिए पता नहीं चला कि जन्मदिन किसका है।

थोड़ी देर में वेटर-वेट्रेसों के ज़ोर-ज़ोर से हैपी बर्थ डे गाने की आवाज़ें आने लगीं। फिर ज़ोर-ज़ोर से ताली की आवाज़ें फिर हैपी बर्थ डे, हैपी बर्थ डे, थैंक्यू थैंक्यू। ऐसे दृश्य यहाँ असामान्य नहीं हैं। लोगों को हंगामे का शौक होता ही है। अपनी मित्रमंडली के साथ जन्मदिन बिताना और रेस्त्राँ को पहले से सूचित कर उसमें शामिल कर लेना काफी मजेदार बात है। जब ४-६ कर्मचारी मिलकर व्यावसायिक ढंग से हंगामा करते हैं तो रेस्त्राँ के सभी लोग एक बार मुड़कर उस ओर देख ही लेते हैं, बस खर्च करने वाले का अहं संतुष्ट हो जाता है। आखिर दुनिया में इनसान को और चाहिए ही क्या? 

इस प्रकार जन्मदिन मानाने का एक और कारण भी है। बहुत से लोग परिवार से दूर रहते हैं। व्यस्त दुनिया में दोस्त बनाने का समय भी बहुतों के पास नहीं है। इस चमक-दमक वाली दुनिया में हर किसी पर विश्वास कर दोस्त बना लेना आसान भी तो नहीं। ऐसी स्थिति में अगर बंद कमरे में अकेले अपना जन्मदिन मनाने की इच्छा नहीं हो तो इस प्रकार जन्मदिन मनाना एक अच्छा सौदा हैं। लोग रेस्त्रा के हंगामे के बीच दूर अपने देश फोन लगाते हैं, अपनों से बात करते हैं, अपनों की बात वेटरों से करवाते हैं, गालों तक छलकते हुए आँसू पोछते हैं और अकेलेपन का अंधेरा पंख लगाकर उड़ जाता है।

हाँ तो उस दिन हंगामे के बाद हमने एक वयोवृद्ध सज्जन को प्रसन्न मुखमुद्रा के साथ धीरे धीरे होटल से बाहर जाते देखा। सज्जन रुपरंग से एशियन नज़र आते थे। वेटरों की भीड़ उनके पीछे थी, ज़ाहिर है आज के बर्थ-डे ब्वाय वही थे। वे खुशी-खुशी वेटरों से हाथ मिला रहे थे। इमारात के नियमों के अनुसार प्रवासियों के लिए बिना काम किए इस देश में रहना संभव नहीं है। इसलिए उम्रदराज़ प्रवासी यहाँ यदाकदा ही दिखाई देते हैं। जीवन के इस पड़ाव पर वे किस कारण इस देश में अकेले हो आए होंगे यह सवाल देर तक मन को मथता रहा।

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

दौड़ से दूर

कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय एक रचना में कहते हैं-
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते, जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें, बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

घर का छोड़ना अक्सर फ़ायदेमंद होता है। आरामगाह से निकलकर ही तो हम दुनिया से लड़ने के लायक बनते हैं। पर आजकल की छोटी सी दुनिया में प्रतियोगिता और स्पर्धा के लिए दौड़ने-भागने की प्रवृत्ति संक्रामक रोग की तरह फैलने लगी है। फिर दौड़ भी साधारण नहीं, सही-गलत को भूलकर जैसे-तैसे आगे निकलने की प्रवृत्ति से मन-मस्तिष्क तो थकता ही है, चरित्र और संवेदना भी छले जाते हैं। हम जहाँ भी है वहाँ की कोई खुशी नहीं, जो हमारे पास है उसका उपभोग करने तक का समय नहीं बस एक दौड़ है, दौड़ते जाना है, आगे... और आगे, और आगे... इस दौड़ से हमें मिलना क्या है उसकी परवाह किए बिना। इस दौड़ के अंत में कितनी और कैसी थकान होने वाली है उसकी चिंता किए बगैर।

ऐसे समय में यह सोचना असीम मानसिक शांति देता है कि जहाँ हम हैं वहाँ ठहरे रहने में कितना सुख है! कितने लाभ, प्रतिष्ठा और शांति है! विस्तार हमेशा गहराई को कम करता है। विस्तार रुकता है तो गहराई बढ़ती है रिश्तों की और अपने विकास की। किसी विषय का विशेषज्ञ बनाने के लिए भी अध्ययन की गहराईयों की ओर मुड़ना पड़ता है। हम जहाँ तक पहुँचे हैं वह इसलिए कि पहले ही एक लंबा सफ़र तय हो चुका है तो फिर अब दौड़ कैसी? अनेक दौड़नेवाले लौटकर यही कहते हैं कि दौड़ का कोई सार्थक फल नहीं मिला। हमारा अपना स्थान चाहे वह घर हो या कार्योलय, जिसका चप्पा चप्पा हम जानते हैं, मालिक की तरह हमारा आदर करता है, माँ की तरह हमें प्यार करता है। नई जगह उस सम्मान और स्नेह को पाने और नए परिवेश में अपने को स्थापित करने में अथक श्रम और समय की आवश्यकता होती है। इस श्रम और समय को बचाकर किसी अन्य महत्वपूर्ण कार्य में लगया जा सकता है। दौड़ते हुए हमें अपनी जगह, अपना रंग-ढंग अपनी आदतें बार बार बदलनी पड़ती हैं। अक्सर तो हम भूल ही जाते हैं कि हम थे क्या। अपनी पहचान को बनाए रखने के लिए दौड़ से बचना बेहतर है। आखिर यह दुनिया गोल है, हम जहाँ से चले थे लौटकर वहीं पहुँच जाते हैं फिर दौड़ का फ़ायदा?

इसलिए- कुछ पल शांति से बैठें, प्रकृति का आनंद लें, मज़ेदार खाना पकाएँ, पासवाली परचून की दूकान के बूढ़े मालिक से उसके स्वास्थ्य या परिवार का हाल पूछें, सड़क पर लगे हुए पेड़ों से दोस्ती करें, किसी पुराने दोस्त से फ़ोन पर बात करें, संगीत सुनें, दूसरों को दौड़ता हुआ देखें और महसूस करें कि दौड़ से बाहर निकलकर चिंतामुक्त हो आराम करना कितना सुखदायक है।