सोमवार, 22 जून 2009

हंगामा-ए-जलाबिया


इमारात में आजकल पेरिस हिल्टन का हंगामा है। अभिनेता अभिनेत्रियों के हंगामे न हों तो फिर जीवन व्यर्थ। सो हंगामा हुआ पेरिस के जलाबिए को लेकर। आप पूछेंगे कि जलेबी को जलाबिया कहने की क्या तुक है लेकिन बात जलेबी की नहीं जलाबिया की ही है।

बात यह है कि आजकल पेरिस हिल्टन अपने शो 'माई न्यू बी.एफ.एफ. ' के साथ दुबई पर कब्जा जमाए हैं कभी अखबार में छप रही हैं, कभी इंटरव्यू दे रही हैं, तो कभी प्रेस कान्फ्रेंस। वायदे पर वायदे कर रही हैं कि वे मध्यपूर्व की संस्कृति का हर तरह से सम्मान करेंगी और उनके इमाराती कार्यक्रम में ऐसी-वैसी कोई बातें नहीं होगी जैसी अमेरिकी या यूरोपीय कार्यक्रमों में होती रही हैं। यहाँ यह बता देना रोचक होगा कि बी.एफ.एफ. का अर्थ है बेस्ट फ्रेंड फ़ार एवर लेकिन यह अर्थ समय समय पर अपने रूप बदलता रहा है। उदाहरण के लिए इमारात में इसे बिज़ार फ़ेमस फ्रेंडशिप्स के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि पेरिस का यह शो राखी सावंत के स्वयंवर से मिलता जुलता है। खैर इतना तो तय है कि पेरिस अरबियों को हर हाल में लुभा लेना चाहती हैं और लुभाने का भला इससे अच्छा उपाय क्या हो सकता है कि जिस देश में आप जाएँ उसी देश का परिधान पहन लें। बस इसी मंत्र को ध्यान में रखते हुए १७ जून की प्रेस कान्फ्रेंस में पेरिस ने जलाबिया धारण कर लिया। जलाबिया भी ऐसा वैसा नहीं, दुबई की प्रसिद्ध ड्रेस डिज़ाइनर ज़ारा करमोस्तजी का डिज़ाइन किया हुआ ज़री के काम का हरा जलाबिया जिसे पिछले साल मियामी फैशन वीक में सर्वश्रेष्ठ रात्रि-परिधान के रूप में सम्मानित करते हुए पुरस्कार दिया गया था।

हाँ तो कान्फ़्रेंस में जब पत्रकारों ने पेरिस से उनके जलवागर जलाबिए के डिज़ाइनर का नाम पूछा तो पेरिस ने सारा बेल्हासा का नाम लिया। धड़ाधड़ मीडिया में सारा बेल्हासा का नाम चमक गया। हंगामा अगले दिन हुआ जब ज़ारा करमोस्तजी मियामी फैशन वीक की तस्वीरें लेकर मीडिया के पास पहुँचीं और यह राज़ खोला कि जलाबिए की डिज़ाइनर ज़ारा करमोस्तजी हैं न कि सारा बेल्हासा। अगले दिन हर अखबार में वे चित्र छपे जो इस लेख के प्रारंभ में हैं। दुनिया सन्न! कि आखिर सारा बेलहासा कौन है और बीच में कहाँ से आ गईं? बाद में सारा ने स्पष्ट किया कि उन्होंने कभी इस जलाबिए का डिज़ाइनर होने का दावा नहीं किया। वे तो सिर्फ़ सारा बेलहासा नामक उस नामचीन शोरूम की मालकिन हैं जो दुबई में दुनिया के जाने माने डिज़ाइनरों के डिज़ाइन किए हुए परिधान बेचता है। पेरिस की स्टाइलिस्ट ने यह जलाबिया सारा की दूकान से खरीदा था, शायद इसीलिए यह नाम उनकी ज़ुबान पर आ गया।

अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि जलाबिया आखिर है क्या। ईवनिंग गाउननुमा यह परिधान अरबी महिलाओं द्वारा पहना जाता है। चित्र में बायीं ओर पेरिस हैं प्रेस कान्फ़्रेंस में और दाहिनी ओर एक मॉडेल मियामी फैशन वीक में। अच्छी तरह देखना चाहें तो चित्र को क्लिक करके बड़ा आकार देख सकते हैं।

गुरुवार, 11 जून 2009

डोनल्ड का पचहत्तरवां जन्मदिन


इस मंगलवार को डोनल्ड ने अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे किए हैं, बढ़ती उम्र के साथ उसकी लोकप्रियता भी दिन पर दिन बढ़ती ही गई है। वाल्ट डिज़्नी के इस कार्टून चरित्र को पहली बार ९ जून १९३४ को पर्दे पर उतरा गया था। अनेक कार्टून कथाओं के अतिरिक्त वह १८ फ़ीचर फ़िल्मों, १५० से अधिक छोटी कार्टून फिल्मों, ८ टेलीविज़न धारावाहिकों और २१ वीडियो गेम्स में प्रमुख भूमिका निभा चुका है। सिली सिम्फनीज की ‘द वाइज लिटिल हेन डोनल्ड’, डोनल्ड की पहली फ़िल्म थी। फ़िल्मों में आने के लिए उसे हर फ़िल्मी कालाकार की तरह मेकओवर की ज़रूरत हुई। यह उत्तरदायित्व निभाया रिचर्ड डिक लंडी ने, जो अपने समय के प्रसिद्ध एनिमेशन कलाकार और फ़िल्म निर्माता थे। उन्होंने इसे नीली सेलर कमीज दी और टोपी में पंख लगा दिया। फिर क्या था डोनल्ड तो उड़ चला।

११ अगस्त १९३४ को ‘द लिटिल वाइज हेन’ के निर्देशक बट जिलेट ने उसे मिकी माउस की फिल्म ‘द ऑफ्रेंस बेनिफिट’ मे काम करने का मौका दिया। अब तक वह मिकी, मिनी, गूफी और प्लूटो की शैतान फौज के साथ धमाचौकड़ी मचाने में उस्ताद हो चुका था। ये सभी पात्र एक साथ १९३५ में मिकीज सर्विस स्टेशन कार्टून फिल्म में दिखाई दिए। एक साल में १९३५ तक डोनल्ड दर्शकों को रिझाना सीख चुका था। ९ जनवरी १९३७ में वह पहली बार नायक की भूमिका में दिखाई दिया। उसे डेजी डक का साथ मिला और उसके भतीजे लुई, हुई और डुई भी फिल्मों में दिखाई देने लगे। निर्देशक जैक किंग ने अंकल डोनल्ड के साथ तीनों भतीजों को लेकर अपनी फिल्म ‘डोनाल्ड्स नेफ्यूज’ बनाई। १९४९ तक डोनल्ड मिकी के साथ दुनिया का सबसे प्रसिद्ध कार्टून पात्र बन चुका था।

उसने नाजियों की प्रचार फिल्मों में भी काम किया। फिल्म की तस्वीरों में उसे अडॉल्फ हिटलर को सलामी देते हुए दिखाया गया था। इनमें से एक फिल्म ‘डेर फ्यूहुएर्स फेस’ १९४३ में पुरस्कृत भी हुई। डोनल्ड ने ‘स्काई ट्रूपर’, ‘फॉल आउट, फॉल इन’ और ‘कमांडो डक’ जैसी सैन्य पृष्ठभूमि वाली फिल्मों में काम किया। फिर क्या था सेलर शर्ट के कमाल से उसे संयुक्त राष्ट्र की कोस्ट गार्ड आग्जिलरी का मस्कट होने का सौभाग्य भी मिल गया। अमेरिकी रेडियो कलाकार क्लेरेंस नैश वे व्यक्ति थे जिनकी आवाज सुनकर डिज्नी के मन में डोनल्ड के चरित्र ने जन्म लिया था। नैश जीवन भर डोनल्ड को अपनी आवाज़ देते रहे। परंतु १९८५ में उनकी मत्यु के बाद भी डोनल्ड की आवाज़ बंद नहीं हुई। उसे जारी रखने का काम किया टोनी अन्सेल्मो ने।

१९८४ में जब डोनल्ड पचास साल का हुआ तो संयुक्त राष्ट्र की सेना में उसकी भी पदोन्नति हुई, वह सार्जेन्ट से आर्मी अफसर बन गया। इस अवसर को रेखांकित करने के लिए एक समारोह का आयोजन विधिवत उसी प्रकार किया गया जैसी अमेरिकी सेना में पारंपरा है। यह एक विशेष अवसर था सो गर्लफ्रेंड डेजी डक की उपस्थिति भी वहाँ बनी रही। डिज़्नी के अन्य कार्टून चरित्रों की तरह डोनल्ड बच्चा नहीं है बल्कि प्रौढ़ है लेकिन उसका भोलापन बच्चों को भी मात देता है। शायद इसी भोलेपन में उसकी लोकप्रियता का रहस्य छुपा है।

मंगलवार, 2 जून 2009

सभ्यताओं के संवाद - फेंकते हुए



आधुनिक सभ्यता ने हमें जो चीज़ सबसे ज्यादा सिखाई है वह है फेंकना। एक थे बाबा कबीर जो जतन से ओढ़ के चदरिया ज्यों की त्यों धर देते थे। आज न वैसी चदरिया है और न वैसे ओढ़नेवाले। आज की चदरिया है डिस्पोज़ेबल। इमारात के स्वास्थ्य केन्द्रों में देखें तो हर चिकित्सक की परीक्षण मेज़ के सिरहाने टिशू के रोल जैसे चादरों के रोल लगे हैं। नया मरीज़ आया रोल खींचा, नई चादर बिछा दी। मरीज़ गया, चादर फाड़ी, फेंक दी।

गनीमत है कि घर इससे बचे हुए हैं। वर्ना कथरियों का बहुरंगी सौंदर्य ऐतिहासिक हो जाता। जिसने राजस्थान या गुजरात देखा है वह कथरियों के सौंदर्य को कभी भूल नहीं सकता। माँ आनंदमयी का आश्रम याद आता है जहाँ जिस कुल्हड़ में खीर खाते थे उसी में पानी पीते थे, कुल्हड़ में गोरस लगा हो तो उसको फेंका नहीं जाता था। अब गोरस तो ऐतिहासिक हो चुका। सहवाग ब्रांडेड दूध पीते हैं और डब्बा फेंकते है। कार्यालय में देखें तो पानी के डिस्पेंसर पर प्लास्टिक के गिलास रखे हैं। एक बार खाना खाते समय दो बार पानी पीना हो तो दो गिलास फेंको।

फेंकने से रसोई में गंदे बर्तन जमा नहीं होते, फेंकने से रोग नहीं फैलते। फेंकना ही सफ़ाई है, फेंकना ही सौंदर्य है, फेंकना ही प्रतिष्ठा है। जतन का कोई महत्व नहीं। धोनी भी यही कहते हैं नया जमाना है नए कपड़े पहनो, पुराने फेंक दो (और नए खरीदने के लिए अपने माँ बाप के मेहनत से कमाए गए पैसे फेंक दो)। फेंकना सिर्फ पैसों और चीज़ों तक सीमित रहे वहाँ तक तो ठीक पर संस्कृति और मानवीय मूल्यों तक पहुँचे तो क्या होगा?