सोमवार, 22 जून 2009

हंगामा-ए-जलाबिया


इमारात में आजकल पेरिस हिल्टन का हंगामा है। अभिनेता अभिनेत्रियों के हंगामे न हों तो फिर जीवन व्यर्थ। सो हंगामा हुआ पेरिस के जलाबिए को लेकर। आप पूछेंगे कि जलेबी को जलाबिया कहने की क्या तुक है लेकिन बात जलेबी की नहीं जलाबिया की ही है।

बात यह है कि आजकल पेरिस हिल्टन अपने शो 'माई न्यू बी.एफ.एफ. ' के साथ दुबई पर कब्जा जमाए हैं कभी अखबार में छप रही हैं, कभी इंटरव्यू दे रही हैं, तो कभी प्रेस कान्फ्रेंस। वायदे पर वायदे कर रही हैं कि वे मध्यपूर्व की संस्कृति का हर तरह से सम्मान करेंगी और उनके इमाराती कार्यक्रम में ऐसी-वैसी कोई बातें नहीं होगी जैसी अमेरिकी या यूरोपीय कार्यक्रमों में होती रही हैं। यहाँ यह बता देना रोचक होगा कि बी.एफ.एफ. का अर्थ है बेस्ट फ्रेंड फ़ार एवर लेकिन यह अर्थ समय समय पर अपने रूप बदलता रहा है। उदाहरण के लिए इमारात में इसे बिज़ार फ़ेमस फ्रेंडशिप्स के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि पेरिस का यह शो राखी सावंत के स्वयंवर से मिलता जुलता है। खैर इतना तो तय है कि पेरिस अरबियों को हर हाल में लुभा लेना चाहती हैं और लुभाने का भला इससे अच्छा उपाय क्या हो सकता है कि जिस देश में आप जाएँ उसी देश का परिधान पहन लें। बस इसी मंत्र को ध्यान में रखते हुए १७ जून की प्रेस कान्फ्रेंस में पेरिस ने जलाबिया धारण कर लिया। जलाबिया भी ऐसा वैसा नहीं, दुबई की प्रसिद्ध ड्रेस डिज़ाइनर ज़ारा करमोस्तजी का डिज़ाइन किया हुआ ज़री के काम का हरा जलाबिया जिसे पिछले साल मियामी फैशन वीक में सर्वश्रेष्ठ रात्रि-परिधान के रूप में सम्मानित करते हुए पुरस्कार दिया गया था।

हाँ तो कान्फ़्रेंस में जब पत्रकारों ने पेरिस से उनके जलवागर जलाबिए के डिज़ाइनर का नाम पूछा तो पेरिस ने सारा बेल्हासा का नाम लिया। धड़ाधड़ मीडिया में सारा बेल्हासा का नाम चमक गया। हंगामा अगले दिन हुआ जब ज़ारा करमोस्तजी मियामी फैशन वीक की तस्वीरें लेकर मीडिया के पास पहुँचीं और यह राज़ खोला कि जलाबिए की डिज़ाइनर ज़ारा करमोस्तजी हैं न कि सारा बेल्हासा। अगले दिन हर अखबार में वे चित्र छपे जो इस लेख के प्रारंभ में हैं। दुनिया सन्न! कि आखिर सारा बेलहासा कौन है और बीच में कहाँ से आ गईं? बाद में सारा ने स्पष्ट किया कि उन्होंने कभी इस जलाबिए का डिज़ाइनर होने का दावा नहीं किया। वे तो सिर्फ़ सारा बेलहासा नामक उस नामचीन शोरूम की मालकिन हैं जो दुबई में दुनिया के जाने माने डिज़ाइनरों के डिज़ाइन किए हुए परिधान बेचता है। पेरिस की स्टाइलिस्ट ने यह जलाबिया सारा की दूकान से खरीदा था, शायद इसीलिए यह नाम उनकी ज़ुबान पर आ गया।

अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि जलाबिया आखिर है क्या। ईवनिंग गाउननुमा यह परिधान अरबी महिलाओं द्वारा पहना जाता है। चित्र में बायीं ओर पेरिस हैं प्रेस कान्फ़्रेंस में और दाहिनी ओर एक मॉडेल मियामी फैशन वीक में। अच्छी तरह देखना चाहें तो चित्र को क्लिक करके बड़ा आकार देख सकते हैं।

गुरुवार, 11 जून 2009

डोनल्ड का पचहत्तरवां जन्मदिन


इस मंगलवार को डोनल्ड ने अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे किए हैं, बढ़ती उम्र के साथ उसकी लोकप्रियता भी दिन पर दिन बढ़ती ही गई है। वाल्ट डिज़्नी के इस कार्टून चरित्र को पहली बार ९ जून १९३४ को पर्दे पर उतरा गया था। अनेक कार्टून कथाओं के अतिरिक्त वह १८ फ़ीचर फ़िल्मों, १५० से अधिक छोटी कार्टून फिल्मों, ८ टेलीविज़न धारावाहिकों और २१ वीडियो गेम्स में प्रमुख भूमिका निभा चुका है। सिली सिम्फनीज की ‘द वाइज लिटिल हेन डोनल्ड’, डोनल्ड की पहली फ़िल्म थी। फ़िल्मों में आने के लिए उसे हर फ़िल्मी कालाकार की तरह मेकओवर की ज़रूरत हुई। यह उत्तरदायित्व निभाया रिचर्ड डिक लंडी ने, जो अपने समय के प्रसिद्ध एनिमेशन कलाकार और फ़िल्म निर्माता थे। उन्होंने इसे नीली सेलर कमीज दी और टोपी में पंख लगा दिया। फिर क्या था डोनल्ड तो उड़ चला।

११ अगस्त १९३४ को ‘द लिटिल वाइज हेन’ के निर्देशक बट जिलेट ने उसे मिकी माउस की फिल्म ‘द ऑफ्रेंस बेनिफिट’ मे काम करने का मौका दिया। अब तक वह मिकी, मिनी, गूफी और प्लूटो की शैतान फौज के साथ धमाचौकड़ी मचाने में उस्ताद हो चुका था। ये सभी पात्र एक साथ १९३५ में मिकीज सर्विस स्टेशन कार्टून फिल्म में दिखाई दिए। एक साल में १९३५ तक डोनल्ड दर्शकों को रिझाना सीख चुका था। ९ जनवरी १९३७ में वह पहली बार नायक की भूमिका में दिखाई दिया। उसे डेजी डक का साथ मिला और उसके भतीजे लुई, हुई और डुई भी फिल्मों में दिखाई देने लगे। निर्देशक जैक किंग ने अंकल डोनल्ड के साथ तीनों भतीजों को लेकर अपनी फिल्म ‘डोनाल्ड्स नेफ्यूज’ बनाई। १९४९ तक डोनल्ड मिकी के साथ दुनिया का सबसे प्रसिद्ध कार्टून पात्र बन चुका था।

उसने नाजियों की प्रचार फिल्मों में भी काम किया। फिल्म की तस्वीरों में उसे अडॉल्फ हिटलर को सलामी देते हुए दिखाया गया था। इनमें से एक फिल्म ‘डेर फ्यूहुएर्स फेस’ १९४३ में पुरस्कृत भी हुई। डोनल्ड ने ‘स्काई ट्रूपर’, ‘फॉल आउट, फॉल इन’ और ‘कमांडो डक’ जैसी सैन्य पृष्ठभूमि वाली फिल्मों में काम किया। फिर क्या था सेलर शर्ट के कमाल से उसे संयुक्त राष्ट्र की कोस्ट गार्ड आग्जिलरी का मस्कट होने का सौभाग्य भी मिल गया। अमेरिकी रेडियो कलाकार क्लेरेंस नैश वे व्यक्ति थे जिनकी आवाज सुनकर डिज्नी के मन में डोनल्ड के चरित्र ने जन्म लिया था। नैश जीवन भर डोनल्ड को अपनी आवाज़ देते रहे। परंतु १९८५ में उनकी मत्यु के बाद भी डोनल्ड की आवाज़ बंद नहीं हुई। उसे जारी रखने का काम किया टोनी अन्सेल्मो ने।

१९८४ में जब डोनल्ड पचास साल का हुआ तो संयुक्त राष्ट्र की सेना में उसकी भी पदोन्नति हुई, वह सार्जेन्ट से आर्मी अफसर बन गया। इस अवसर को रेखांकित करने के लिए एक समारोह का आयोजन विधिवत उसी प्रकार किया गया जैसी अमेरिकी सेना में पारंपरा है। यह एक विशेष अवसर था सो गर्लफ्रेंड डेजी डक की उपस्थिति भी वहाँ बनी रही। डिज़्नी के अन्य कार्टून चरित्रों की तरह डोनल्ड बच्चा नहीं है बल्कि प्रौढ़ है लेकिन उसका भोलापन बच्चों को भी मात देता है। शायद इसी भोलेपन में उसकी लोकप्रियता का रहस्य छुपा है।

मंगलवार, 2 जून 2009

सभ्यताओं के संवाद - फेंकते हुए



आधुनिक सभ्यता ने हमें जो चीज़ सबसे ज्यादा सिखाई है वह है फेंकना। एक थे बाबा कबीर जो जतन से ओढ़ के चदरिया ज्यों की त्यों धर देते थे। आज न वैसी चदरिया है और न वैसे ओढ़नेवाले। आज की चदरिया है डिस्पोज़ेबल। इमारात के स्वास्थ्य केन्द्रों में देखें तो हर चिकित्सक की परीक्षण मेज़ के सिरहाने टिशू के रोल जैसे चादरों के रोल लगे हैं। नया मरीज़ आया रोल खींचा, नई चादर बिछा दी। मरीज़ गया, चादर फाड़ी, फेंक दी।

गनीमत है कि घर इससे बचे हुए हैं। वर्ना कथरियों का बहुरंगी सौंदर्य ऐतिहासिक हो जाता। जिसने राजस्थान या गुजरात देखा है वह कथरियों के सौंदर्य को कभी भूल नहीं सकता। माँ आनंदमयी का आश्रम याद आता है जहाँ जिस कुल्हड़ में खीर खाते थे उसी में पानी पीते थे, कुल्हड़ में गोरस लगा हो तो उसको फेंका नहीं जाता था। अब गोरस तो ऐतिहासिक हो चुका। सहवाग ब्रांडेड दूध पीते हैं और डब्बा फेंकते है। कार्यालय में देखें तो पानी के डिस्पेंसर पर प्लास्टिक के गिलास रखे हैं। एक बार खाना खाते समय दो बार पानी पीना हो तो दो गिलास फेंको।

फेंकने से रसोई में गंदे बर्तन जमा नहीं होते, फेंकने से रोग नहीं फैलते। फेंकना ही सफ़ाई है, फेंकना ही सौंदर्य है, फेंकना ही प्रतिष्ठा है। जतन का कोई महत्व नहीं। धोनी भी यही कहते हैं नया जमाना है नए कपड़े पहनो, पुराने फेंक दो (और नए खरीदने के लिए अपने माँ बाप के मेहनत से कमाए गए पैसे फेंक दो)। फेंकना सिर्फ पैसों और चीज़ों तक सीमित रहे वहाँ तक तो ठीक पर संस्कृति और मानवीय मूल्यों तक पहुँचे तो क्या होगा?

मंगलवार, 26 मई 2009

बीते हुए दिन... हाय!

शारजाह क्रिकेट स्टेडियम शारजाह की शान है। आखिर इसी के कारण तो इमारात के इस छोटे से सुंदर शहर को घर घर में पहुँचने का अवसर मिला और रातों रात लोग इसके उन प्रमुख स्थलों को पहचानने लगे जो लाइव क्रिकेट के मध्यांतर में दिखाए जाते थे। क्या आप उन खूबसूरत महिलाओं को कभी भूल सकते हैं जो दुबई के फैशनेबल बाज़ारों से खरीदे गए बड़े-बड़े बुंदे पहने दर्शक दीर्घा में हँसती बतियाती दिखती थीं और जिन पर कैमरा बार-बार ठहर जाता था। इसी स्टेडियम के कारण शारजाह को विश्व में सबसे अधिक एक दिवसीय क्रिकेट आयोजित करने का कीर्तिमान प्राप्त हुआ था। १९८४ से २००३ तक बीस वर्ष के अपने स्वर्ण युग से गुजरे इस स्टेडियम में १९८ एकदिवसीय और चार टेस्ट शृंखलाओं को आयोजित करने का गौरव प्राप्त है।

१९८२ में बने इस स्टेडियम का यह कीर्तिमान दूसरे स्थान पर सिडनी के १२९ और मेलबॉर्न के १२४ एक दिवसीय मैचों से आज भी बहुत आगे है। इस महाद्वीप की दो दिग्गज टीमों के बीच मैच के शानदार दिन भूलने की चीज़ नहीं जब भारत और पाकिस्तान के बराबर दर्शक स्टेडियम को अपनी उपस्थिति से गुलज़ार किए रहते थे। उस समय शहर में शायद ही लोग किसी और विषय पर बात करते हों। उन दिनों सीमित ओवरों के खेल में एक एक रन के लिए संघर्ष करते कुछ रोमांचक पल और विश्व रेकार्डों की स्थापना के स्वर्णिम अवसर भी इस स्टेडियम के इतिहास में सुरक्षित है।

अतीत में क्रिकेट की आन-बान के प्रतीक इस स्टेडियम में अब कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच नहीं होते। बीसवीं शती के अंत में मैच फ़िक्सिंग के कारण बदनाम हुआ यह स्टेडियम आज अपने बुरे दिनों से गुज़र रहा है। जिस समय भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच बंद हुए उसी समय से यह स्टेडियम अपना आकर्षण खोने लगा था। कुछ अंतर्राष्टी़य मैच यहाँ आयोजित किए गए पर भारत और पाकिस्तान की टीमों के बिना वे दर्शकों को स्टेडियम तक खींच लाने में सफल नहीं हुए। मानो भीड़ केवल भारत और पाकिस्तान के मैच ही देखने आती थी। बाद में यहाँ कुछ सफल संगीत कार्यक्रम आयोजित किए गए कभी कदा कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए इसका प्रयोग किया गया पर जो बात पहले क्रिकेट की थी वह नहीं बन पाई।

लोकप्रियता घटी तो रखरखाव और सौंदर्य में कटौती झेलता यह स्टेडियम अपना रूप खोने लगा। जिसे भी शारजाह और क्रिकेट से प्यार है वह स्टेडियम के इस रूप को देखकर दुखी है। आज के स्थानीय समाचार पत्र में इमारात क्रिकेट बोर्ड के प्रबंधक मज़हर ख़ान का वक्तव्य छपा है। वे कहते हैं कि नई क्रिकेट शृंखला के आयोजन के लिए बातचीत जारी है। अगर सब निश्चित हो गया तो चार महीने में वे इस स्टेडियम का कायाकल्प कर देंगे। यह वक्तव्य आशा की किरन लेकर आया है। शायद बीते हुए दिन लौटने वाले हैं।

सोमवार, 18 मई 2009

यार ख़ैयार


गरमी की तपन और ख़ैयार (या ख़ियार) की तरावट का मज़ा वही जान सकता है जो इमारात में रहता है। ख़ैयार अरबी खीरा है जो यहाँ हर मौसम में मिलता है और तरह तरह से खाया जाता है। चाहे ख़ैयार-बि- लबान बनाएँ, मास्त-ओ-ख़ैयार बनाएँ या बोरानि-ए- ख़ैयार बनाएँ यह सब मिलते जुलते व्यंजन है जिन्हें खीरे को दही और पुदीने के साथ मिलाकर बनाया जाता है।

ज़ाहिर है इमारात की गरमी में दही और पुदीने के साथ मिली खीरे की तरावट का जवाब नहीं। ख़ैयार का अचार भी बनता है। कोई अरबी दावत ऐसी नहीं जो ख़ैयार के बिना पूरी हो। कोई सब्ज़ी की दूकान, कोई सुपर मार्केट कोई परचून की दूकान ऐसी नहीं जहाँ ख़ैयार न मिलता हो। रहीम दादा कह गए हैं-- खीरा मुख से काट कर मलियत लोन लगाय, लेकिन ख़ैयार तो जन्मा ही मीठा है। न मुख काटने की ज़रूरत न लोन मलने की। छिक्कल भी बिलकुल पतला जिसे छीलने तक की ज़रूरत नहीं बस खरीदो और खा लो।

कुदरत ने इस देश को गरमी की सज़ा के साथ मीठे स्वादिष्ट ख़ैयार का वरदान दिया है। यहाँ शायद ही कोई घर हो जहाँ ख़ैयार रोज़ न खाया जाता हो। देखने में भारत की चिकनी तुरई जैसी शक्ल वाला ख़ैयार इमारात में हर मौसम का यार है। इस देश में जीना है तो ख़ैयार से यारी बड़े काम की है क्यों कि ख़ैयार इस देश की आत्मा है और आत्मा के बिना भी कोई ज़िन्दगी होती है।

बुधवार, 13 मई 2009

शावरमा


शावरमा अरब दुनिया का समोसा है। हर सड़क पर इसकी एक दूकान ज़रूर होगी। मज़ेदार नाश्ता तो यह है ही, जल्दी हो तो सुबह या शाम का खाना भी इससे निबटाया जा सकता है।

शावरमा दो चीज़ें मिलाकर तैयार होता हैं। खमीरी रोटी जिसे खबूस कहते हैं और मसाला जो खबूस में भरा जाता है। खबूस कुछ कुछ भटूरे जैसी होती है लेकिन यह तली नहीं जाती भट्ठी में सेंकी जाती है। भरावन आमतौर पर ३ तरह की होती है मुर्गे, मीट या फ़िलाफ़िल की। फिलाफिल दाल के पकौड़े होते हैं जो तल कर बनाए जाते हैं और तोड़कर खबूस में भरे जाते हैं। मुर्ग या मीट को मसाले के साथ एक घूमती हुई स्वचालित छड़ी में बिजली के हीटर के सामने रोस्ट किया जाता है। जब बाहरी परत नर्म और सुनहरी हो जाती है तब तलवार जैसी बड़ी छुरी से उसको फ्रेंच फ्राई जैसा काट देते हैं और खबूस की दो परतों के बीच सलाद, तुर्श, ताहिनी और फ्रेंच फ्राई के साथ भर कर रोल बना देते हैं।

ताहिनी, लहसुन की हल्की गंधवाला, स्वाद में रायते जैसा होता है। तुर्श के नाम से ही जान सकते हैं कि यह तीखा और खट्टा होता है जिसे गाजर, हरी मिर्च और चुकंदर में सिरके के साथ नमक और कुटी मिर्च डालकर तैयार किया जाता है। गरम गरम शावरमा के साथ पिया जाता है ठंडा लबान, पर उस विषय में फिर कभी। हाँ बदलते समय के साथ लबान की जगह कोकाकोला लोकप्रिय होने लगा है, साँच को आँच क्या आप खुद ही देख लें।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

खोती हुई आवाज़ें


फुटबॉल इमारात का राष्ट्रीय खेल है। यहाँ के गर्म मौसम के कारण खेल का समय साल में कुछ दिन ही रहता है- सर्दियों के महीनों में। सर्दियाँ भी बिलकुल हल्की गुलाबी रौनक भरी दुपहरी वाली। इन दिनों आवासीय कॉलोनियों की हर सड़क पर फुटबॉल की ऐसी धूम रहती है जैसी भारत में क्रिकेट की। खेल की भी एक आवाज़ होती है.... विजय में डूबी उमंग की, जोश से भरे उत्साह की, कारों के भयभीत हॉर्न की, खिड़की के बिखरते काँच की, बच्चों पर बरसती फटकार की। ये आवाज़ें बड़ी लुभावनी होती हैं और पूरे मुहल्ले को अपने रंग से भर देती हैं।

मई के आरंभ तक यहाँ सर्दियों का अंत हो जाता है। यानी दिन सुनसान होने लगते है। पिछले दस सालों में इमारात की संस्कृति में तेज़ी से बदलाव आया है। लगभग पूरा दुबई काँच की गगनचुंबी इमारतों में परिवर्तित हो गया है। पुराने मुहल्ले या तो ख़त्म हो गए हैं या ख़त्म होने की कगार पर हैं। इनके स्थान पर काँच की दीवारों वाली बहुमंज़िली इमारतें आ गई हैं। जो मुहल्ले बच गए हैं, उनमें रहने की अलग शैली है। इनके आलीशान घरों में रहने वाले आभिजात्य बच्चे सड़कों पर नहीं खेलते। वे फुटबॉल के लिए बनाए गए विशेष मैदानों पर खेलते हैं। विशेष मैदान होना अच्छी बात है, पर विकास के साथ हम बहुत सी दिलकश आवाज़ों को भी खो रहे हैं जो भविष्य में कभी कहीं सुनाई नहीं देंगी। सड़कों पर खेलते हुए बच्चों की आवाज़ें भी उनमें से एक हैं।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

हरा समंदर गोपी चंदर


इमारात में दो तरह के समंदर हैं। एक पानी का और दूसरा रेत का। रेत समंदर जैसी क्यों और कैसे दिखाई देती है यह वही जान सकता है जिसने रेगिस्तान देखा हो। रेत में भी समंदर की तरह लहरें होती हैं, तूफ़ान होते हैं और जहाज़ होते हैं। रेगिस्तान के जहाज़ यानी ऊँट। दूर से देखने पर रेत में गुज़रता हुआ ऊँट, पानी में गुज़रते जहाज़ की तरह मद्धम डोलता है और धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो जाता है, क्यों कि समंदर चाहे पानी का हो या रेत का दोनों ही होते हैं अंतहीन।


समंदर में तूफ़ान आता है तो लहरे तट पर सर पटकती हैं पर रेत में तूफ़ान आता है तो यह पूरे शहर में बवाल करती फिरती है। कार के शीशे पर गुलाल की तरह बरसती है, चौड़ी सड़कों पर बवंडर की तरह दौड़ती है और घरों के बरामदों में ढेर की तरह आ जुटती है।


यहाँ पानी का समंदर होता है हरा और रेत का समंदर लाल। दूर क्षितिज पर जब यह हरा समंदर नीले आसमान के साथ क्षितिज रेखा बनाता है तो मुझे क्षितिज के पार भारत का समंदर याद आता है, जो हरा नहीं नीला होता है और बहुत दूर तक आसमान के साथ बहते हुए उसमें विलीन हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे हम भारतवासी दूर दूर तक हर देश में उस देश के हवा पानी के साथ घुल-मिल जाते हैं।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

आवजो... फिर आना


खाना जीवन की पहली ज़रूरत तो है ही, विलासिता में भी यह पहले स्थान पर है। एक समय था जब थाली वाले होटल आम-आदमी के भोजन की सस्ती जगह समझे जाते थे। आज यह सस्ती थाली नाज़ो-नखरे के साथ, विभिन्न देशों के अनेक होटलों और रेस्त्राओं से सजे दुबई में लोकप्रियता के रेकार्ड बना रही है। पिछले साल यहाँ खुले 'राजधानी' नाम के रेस्त्रां के सामने लगी भीड़ से ऐसा लगता है जैसे खाना यहाँ मुफ़्त बँट रहा है। ऐसी भीड़ थाली वाले रेस्त्रां में मैंने पहले पूना के श्रेयस में देखी थी। पर वहाँ के भोजन में मराठी अंदाज़ हैं और यहाँ इस रेस्त्रां के गुजराती। पतली कार्निस पर रखी लकड़ी की धन्नियों वाली छत से सजे इस रेस्त्रां की आंतरिक सज्जा में पारंपरिक सौंदर्य भरने का सुरुचिपूर्ण प्रयत्न किया गया है।

भारत में पहले ही 'राजधानी थाली' नाम से ३४ रेस्त्रां चलाने वाली इस भोजन शृंखला का यह पहला विदेशी उपक्रम था। अभी तक भारत में इसकी शाखाओं की संख्या ३८ हो चुकी है। इस बीच राजधानी थाली सिडनी और वियतनाम में भी यह अपने पाँव जमा चुकी है। ६० साल से अधिक पुराने इस पारंपरिक रेस्त्रां की पहली शाखा १९४७ में मुंबई के क्रॉफ़र्ड मार्केट में खुली थी।

खाने के पहले और बाद ताँबे के तसले में अरबी जग से हाथ धुलवाने की ऐसी परंपरा शायद दुबई के किसी अन्य रेस्त्रां में नहीं। धुएँ का छौंक लगी लस्सी लाजवाब है और अगर २८ व्यंजनों वाली थाली का खाना खाकर दिल खुश हो जाए तो आप रेस्त्रां में टंगी थाली को वहीं रखी छड़ीनुमा हथौड़ी से बजा सकते हैं। थाली की झंकार सुनते ही वेटरों का समवेत स्वर गूँजता है- आवजो यानी फिर आना और प्रवासी की आँखें गीली गीली।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

दौड़ ऊँटों की


अरबी घोड़ों का बड़ा नाम और बड़ी शान है पर अरबी ऊँटों की शान से उनका कोई मुकाबला नहीं। इसको समझने के लिए इमारात की ऊँट-दौड़ देखना ज़रूरी है। यहाँ के राज परिवार और रईसज़ादे इस खेल को बड़ी रुचि से खेलते हैं।

घोड़ों के रेसकोर्स की तरह ऊँटों के भी रेसकोर्स होते हैं पर घोड़ों की तरह उनके सवार इंसान नहीं होते। इनके जॉकी होते हैं हाईटेक रोबोट। ये रोबोट एक छोटे बच्चे जैसे दिखाई देते हैं और कोड़ा चलाते हुए चिल्लाकर ऊँट को दिशा निर्देश देते हैं। रोबोट का रिमोट होता है मालिकों के हाथ में। जिन दीर्घाओं (लेन) में ऊँट दौड़ते है वे कच्ची होती हैं, पर उसके साथ ही एक चौड़ी पक्की दीर्घा भी बनाई जाती है जिस पर ऊँट मालिकों की कारें ऊँटों के साथ-साथ दौड़ती हैं। एक कार में आमतौर पर दो व्यक्ति होते हैं। एक जो कार चलाता है और दूसरा जो रिमोट संचालित करता है। क्या दृश्य होता है! एक गली में ऊँट रेस तो तो दूसरी गली में कार रेस और वह भी एक दूसरे के साथ संतुलन साधती हुई।

दौड़ में प्रथम द्वितीय और तृतीय आने वाले विजयी ऊँटों को तुरंत सम्मानित किया जाता है उनके सिर और गले पर केसर का लेप लगाकर। इस प्रकार के लाल सिर वाले ऊँट की विशेष कार को जब अरबी अपनी फ़ोर व्हील ड्राइव से जोड़ कर घर लौटता है तो लोग उसे मुड़ मुड़ कर देखते हैं। तब उसकी शान देखते ही बनती है।

मंगलवार, 17 मार्च 2009

सुडोकु के साये में पेन्सिल और शार्पनर


सुबह सुबह ताज़े अख़बार के साथ के नए सुडोकु को भरने के लिए पेंसिल उठाई तो उसे नोकीला करने की ज़रूरत महसूस हुई। शार्पनर देखकर याद आया कि हमारे बचपन में ऐसे ढक्कन वाले शार्पनर नहीं होते थे, जिसमें पेंसिल की छीलन जमा हो जाए और बाद में इसे सुविधानुसार फेंका जा सके।

शायद तीसरे दर्जे की बात है १९६२-६३ का समय, कक्षा में पेंसिल छीलनी हो तो कोने में रखी रद्दी काग़ज़ की टोकरी तक जाने का नियम था। उस अवसर का इंतज़ार कमाल का होता था और उससे मिलने की खुशी का ठिकाना नहीं। कोई और विद्यार्थी पहले से वहाँ हो फिर तो कहना ही क्या! एक दो बातें भी हो जाती थीं और इस सबसे जो स्फूर्ति मिलती थी उसकी कोई सीमा न थी। यह सब याद आते ही चेहरे पर मुस्कान छा गई। आजकल के बच्चे उस खुशी के बारे में नहीं जानते हैं। उनके जीवन में बहुत सी नई खुशियाँ आ मिली हैं।

जानना चाहेंगे आज के सुडोकु का क्या अंत हुआ? आज का सुडोकु था चौथे नंबर का दुष्ट यानी डायबोलिक या इविल। बड़ा ही संभलकर खेला, धीरे धीरे कदम बढ़ाए, एक पूरा घंटा सूली पर चढ़ा दिया, पर... फँस ही गई अंतिम पंक्ति में, फिर हिम्मत छोड़ दी, सोचा ज़रूरी कामों को पूरा किया जाए। दुआ करें कि कल आने वाले सुडोकु में इतनी मारामारी ना हो।

यहाँ एक आसान सुडोकु है। दिल मचले तो कोशिश करें। वेब पर सुडोकु खेलने का मन करे तो यह जालस्थल सर्वोत्तम है।

सोमवार, 9 मार्च 2009

कहें तितलियाँ


(कुछ दोहे पर्व और मौसम की शान में)

कहें तितलियाँ फूल से चलो हमारे संग
रंग सजा कर पंख में खेलें आज वसंत

फूल बसंती हंस दिया बिखराया मकरंद
यहाँ वहाँ सब रच गए ढाई आखर छंद

भंवरे तंबूरा हुए मौसम हुआ बहार
कनक गुनगुनी दोपहर मन कच्चा कचनार

अबरक से जगमग हुए उत्सव वाले रंग
सब जग को भाने लगे होली के हुड़दंग

घाटी में घुलने लगा फागुन का त्यौहार
नाच गान पकवान में खुशियां अपरंपार

भोर जली होली सखी दिनभर रंग फुहार
टेसू की अठखेलियाँ पूर गईं घर द्वार

यमन देश की रात में छिड़ी बसंत बहार
चली भोर तक भैरवी फागुन के दिन चार

आएंगे अगले बरस फिर से लेकर रंग
जाते जाते कह गया भीगे नयन वसंत

-पूर्णिमा वर्मन

मंगलवार, 3 मार्च 2009

बार्बी हुई पचास की


बार्बी डॉल इस साल अपना पचासवाँ जन्मदिन मना रही है। उसका जन्म १९५९ में हुआ था यानी लगभग मेरी हमउम्र है लेकिन मेरे या मेरी सहेलियों के खिलौनों में उस समय बार्बी कभी नहीं रही। जहाँ तक मुझे याद है भारत में बार्बी पहली बार १९७२ में आई। जल्दी ही वह भारतीय परिवारों का सदस्य बन गई यहाँ तक कि उसने साड़ी पहनना भी सीख लिया।

३ मार्च १९५९ को जब इसे लोकार्पित किया गया था, वह काले सफ़ेद रंग का स्विम सूट पहने धूप का चश्मा लगाए तैरने की मुद्रा में थी। इसको एक अमरीकी महिला उद्योगपति रूथ हान्डलर ने अपनी बेटी बार्बरा के नाम पर बनाया था और नाम रखा था- बार्बी मिलिसेंट राबर्ट। तब से अब तक मैटेल कंपनी विश्व के १५० देशों में १ अरब से अधिक बार्बी डॉल बेच चुकी हैं। प्रतिष्ठान का दावा है कि हर एक सेकेंड में तीन बार्बी डॉल बिक जाती हैं। कामकाजी बार्बी ११० व्यवसाय संभाल चुकी है। उसके पास पायलेट का लाइसेंस है, वह एस्ट्रोनॉट, नर्स, डेन्टिस्ट, फुटबॉल खिलाड़ी शेफ़, राजकुमारी और बैले नर्तकी रह चुकी है। इतने व्यस्त जीवन में भी उसने रोमांस के लिए समय निकाला और १९६१ में उसे पुरुष मित्र केन मिल गया। दोनो की जोड़ी खूब जमी लेकिन फरवरी २००४ में मैटेल कंपनी ने खबर दी कि बार्बी और केन अलग हो गए हैं। दो साल बाद दोनों गिले शिकवे भुलाकर फिर एक हो गए। बार्बी के पास बहुत से पालतू जानवर, घर और गाड़ियाँ हैं। उसके डिज़ायनर कपड़ों को डॉयर, रेल्फ़-लॉरेन, वरसेस और अरमानी जैसे विश्व के जाने-माने डिजायनरों ने बनाया है। यही नहीं उसके पास मोबाइल, लैपटॉप, बेहतरीन स्टेशनरी, कन्फ़ेक्शनरी, आभूषण और सौंदर्य प्रसाधनों का भी समृद्ध संग्रह है।


सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ती बार्बी को आलोचना का सामना भी करना पड़ा है। २००३ में सऊदी अरब में यह कहकर उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया कि उसके वस्त्र इस्लामी आदर्शों के अनुरूप नहीं है। लेकिन बार्बी ने हार नहीं मानी उसने फुल्ला नाम से हिजाब और अबाया पहन कर २००४ में मिस्र के बाज़ारों में प्रवेश किया। इन्हीं वस्त्रों में वह अध्यापिका बनी और डॉक्टर भी। उसका यह रूप मध्यपूर्व के देशों में खूब लोकप्रिय हुआ।

पचास साल के लंबे जीवन में बार्बी सदा 'डॉल' ही बनी रही गुड़िया कभी नहीं बन पाई। गुड़िया यानी वह नन्हीं बच्ची जिसे छोटी लड़कियाँ गोद में बच्चे की तरह खिलाती हैं। शायद बदलते समय के साथ छोटी लड़कियों को गुड़िया की नहीं बेबी-डॉल की ही ज़रूरत है या फिर पश्चिम का पूँजीवाद पूर्व की सांस्कृतिक परंपराओं पर बचपन से ही हावी होने लगा है?

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

बात नाक की


दुनिया में नाक ऊँची रखना सबसे मुश्किल काम है। ठीक नाक के सामने, अपनी ही नाक कब कट जाए समझ पाना आसान नहीं। खुद को कुछ पता नहीं चलता, दूसरे कहते हैं तो विश्वास नहीं होता, अहसास तो तब जाकर होता है जब ज़माना कटी नाक को देख नाक-भौं सिकोड़ने लगता है।

किया भी क्या जाए, किसी की नाक में नकेल तो डाली नहीं जा सकती। समय स्वतंत्रता का है हर किसी को, हर किसी काम में अपनी नाक घुसेड़ने की पूरी आज़ादी है। आप चाहें उनकी नाक में दम कर दें, वे सुधरने वाले नहीं, नाक नीची किए चुपचाप बैठे रहेंगे और मौका पड़ते ही आपकी नाक ले उड़ेंगे। फिर अपनी नाक बचाने के लिए आप उनको नाकों चने चबवा पाते हैं, या खुद अपनी नाक रगड़ते हैं ये सब कूटनीति की बातें है, जिसका हिसाब कोई मामूली व्यक्ति नहीं दे सकता। इसके लिए तो कोई नाक वाला चाहिए और नाक वाला भी ऐसा जो नाक पर मक्खी न बैठने दे, वर्ना लोग कहने लगेंगे कि नाक कटी पर हठ न हटी।

सो दुआ यही है कि नाक रह जाए, बात रह जाए। सबकी बुरी हठ हटे पर किसी की नाक न कटे।

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

चपाती और फुलका


"रोटी तो रोटी है चाहे चपाती कहो या फुलका क्या फ़र्क पढ़ता है?" लेकिन मेरे इस विचार से हरिराम जी सहमत नहीं थे। वे हमारे नए खानसामा थे। उनका कहना था, कम से कम रोज़ खाई जाने वाली चीज़ों के बारे में सबको सही जानकारी होनी चाहिए।

पहली बार उनसे जाना कि चपाती और फुलके में अंतर है। चपाती होती है ढीले और नर्म आटे की। बेलते समय ध्यान रखा जाता है कि रोटी सिर्फ़ एक ही तरफ़ से बेली जाए, ताकि फूलने के बाद इसकी एक परत बिलकुल बारीक हो जैसे छिक्कल और दूसरी परत अपेक्षाकृत मोटी। फिर आग पर बस एक पल रखा जाय फूलने तक। इस रोटी को चबाने की ज़रूरत नहीं। मुँह में रखेंगे तो ऐसे ही घुल जाएगी। बीमार को रोटी का बक्कल देना हो तो ऐसी ही रोटी चाहिए।

लेकिन फुलका अलग है। इसको चूल्हे से खाने वाले की थाली में पहुँचने तक फूला ही रहना चाहिए। इसका आटा माड़ते हैं कड़क और बेलते हैं दोनों तरफ़ से, ताकि फूलने बाद दोनों परतों की मोटाई बराबर रहे। फिर आग पर पलट-पलट कर दोनों तरफ़ अच्छी तरह चित्तियाँ डालते हैं जिससे हल्का कुरकुरापन आता है।

है ना ज्ञान की बात? तो क्या ज्ञान प्राप्त होने के बाद इस बात से कुछ अंतर पड़ता है कि आज घर में चपातियाँ बन रही हैं या फुलके?

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

यह अनुशासन - यह धैर्य

शाम घिरने के बाद घर से निकली हूँ। चौराहे पर बने फव्वारे के चारों ओर बिछी घास पर समुद्री बगुलों का झुंड अठखेलियाँ कर रहा है। रात के झुटपुटे में पार्क की तेज़ रौशनी के बावजूद दूर से इनके सिर, पैर और पूँछ नहीं दिखाई देते। टेनिस की गेंद जैसे सफ़ेद बुर्राक ये बगुले इमारात को गुलाबी सर्दी की देन हैं और शहर के हर प्राकृतिक नुक्कड़ को अपने सौंदर्य से भर देते हैं। मुश्किल से आठ इंच लंबे इन बगुलों के झुंड बहुत बड़े होते हैं। इस चौराहे पर बैठा झुंड शायद 50-60 से कम का नहीं होगा।

थोड़ा आगे बढ़ती हूँ तो सड़क के ऊपर बने पुल से नीचे की ओर फैली घास की ढलान पर ये सैकड़ों की संख्या में बैठे हैं। सब समान दूरी पर, एक ही ओर मुख किए हुए। इनको देखकर विश्वास हो जाता है कि ऊपरवाले ने बुद्धि और कौशल बाँटते समय मानव के साथ बड़ा पक्षपात किया है। यह अनुशासन, यह धैर्य बिना पुलिस और डंडे के हमारी दुनिया में मुश्किल है। 

गई थी सब्ज़ी लेने आधे घंटे बाद मंडी के बाहर आई हूँ और देखती हूँ कि अभी भी वैसे ही बैठे हैं सब, अपनी मौन साधना में। शायद यही मुद्रा देखकर किसी ने इन्हें बगुला भगत कहा होगा। दाहिनी ओर के चित्र में कैद झुंड थोड़ा छोटा है पर देखिए तो क्या अदा है... ऊपर वाले ने गर्दन पर थोड़ा पीछे एक काला टीका भी लगा दिया है। नज़र न लगे गोरे गोरे मुखड़े को... किसी ने बताया इन्हें अँग्रेजी में सी-गल और हिंदी में गंगा-चिल्ली कहते हैं।

बुधवार, 28 जनवरी 2009

लखटकिया राजा और नैनोरानी


एक था लखटकिया राजा। लखटकिया यानी जिसके पास एक लाख रुपये हों। बड़े राजों महाराजों के ख़ज़ानों में तो सैकड़ों नौलखे हार होते थे। नौलखे यानी नौ लाख रुपयों के। पर लखटकिया राजा की शान में इससे कोई कमी नहीं होती थी। लखटकिया हुआ तो क्या, था तो वह राजा ही। इतिहास ने करवट ली। हारों का समय गया और कारों का समय आया। नौ लाख वाली कारों के मालिक भी कम नहीं होंगे भारत में, पर लखटकिया राजा की लाज रखी रतन टाटा ने। बने रहें लखटकिया राजा बनी रहे लखटकिया कार!

हार, कार और बदलता संसार एक तरफ़, हम ठहरे शब्दों के सिपाही सो, सलाम उस पत्रकार को जिसने लखटकिया जैसे प्यारे और पुराने शब्द में फिर से जान फूँकी, नैनो-रानी के बहाने। हिंदुस्तानी चैनलों का इस नन्हीं सी जान पर फ़िदा हो जाना तो स्वाभाविक है लेकिन मध्यपूर्व के अखबार भी रंगे पड़े थे ढाई हज़ार डॉलर में मिलने वाली दुनिया की सबसे सस्ती कार के किस्सों से। किस्सा तो नैनो के नाम का भी है पर वह फिर कभी।

सुना है नैनोरानी लखटकिया राजाओं की सेवा में आने से पहले ही मुसीबतों से घिर गयीं। महल उठाकर भागना पड़ा। बहुत दिनों से कोई खबर नहीं क्या किसी को मालूम है कि नैनोरानी कब आ रही हैं?

सोमवार, 26 जनवरी 2009

हिन्दी अंक अंग्रेज़ी अंक


हम सभी जानते हैं कि भारत की प्राचीन सभ्यता अत्यंत विकसित थी और हज़ारों वर्ष पूर्व अनेक ऐसे आविष्कार यहाँ हो चुके थे जिनको १६वीं शती के आसपास पाश्चात्य देशों ने अपने नाम पेटेंट करवाया। ऐसे अनेक आविष्कारों और विकासों के तथ्य और प्रमाण आज सार्वजनिक नहीं हैं लेकिन निर्विवाद रूप से सारा विश्व यह स्वीकार करता है कि आर्यभट्ट ने शून्य और दशमलव का आविष्कार किया तथा गणित का प्रारंभिक विकास भारत में ही हुआ। अपनी भाषा, संस्कृति और पूर्वज गणित-विशेषज्ञों के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए हमने २००८ से अभिव्यक्ति में देवनागरी अंकों का प्रयोग प्रारंभ किया था।

यह बहस तब शुरू हुई जब हम विकिपीडिया में अंकों की नीति निर्धारित कर रहे थे। हमने कहा कि यूरोप के तमाम देशों, जापान तथा सुदूर पूर्व के देशों ने अंग्रेज़ी अंको को अपनी अपनी भाषा को विकिपीडिया में स्थान दिया है और फिर भारत सरकार ने अंग्रेज़ी अंकों के सामान्य प्रयोग पर सहमति भी व्यक्त की है। भारत में ज्यादातर पत्र पत्रिकाएँ अँग्रेज़ी अंकों का प्रयोग कर रहे हैं। तो हम हिन्दी विकिपीडिया में भी क्यों न ऐसा ही करें। इस पर एक ब्रिटिश और एक फ्रांसिसी प्रबंधक ने आपत्ति दर्ज की, कि दूसरी भाषाओं की अंक प्रणाली अंग्रेज़ी के बाद विकसित हुई। इसलिए उन्होंने अंग्रेज़ी अंकों को अपनाया। जबकि अंकों का आविष्कार और गणित की तमाम शाखाओं का विकास सबसे पहले भारत में कम से कम इस बात को सम्मान देने के लिए आप हिन्दी में नागरी अंकों का प्रयोग कर सकते हैं। हमें वह सब करने की ज़रूरत नहीं जो सब कर रहे हैं बल्कि वह करने की ज़रूरत है जो उचित है। विकिपीडिया में चीनी, अरबी, फारसी, बांग्ला और तमाम भाषाएँ अपनी लिपि के अंकों का प्रयोग करती हैं, तो हम हिन्दी अंकों का प्रयोग क्यों नहीं कर सकते। अगर भारत में नागरी अंकों का प्रयोग घट रहा है तो उसके लिए काम करने की ज़रूरत है न कि जो हो रहा है उसके पीछे दौड़ने की। हमने मतदान का निश्चय किया और मतदान का नतीजा हिन्दी अंकों के पक्ष में रहा। यह निश्चय किया गया कि वैज्ञानिक फ़र्मूलों के लिए हम अँग्रेज़ी अंकों का प्रयोग करते रहेंगे ताकि विकि के आंतरिक लिंक न टूटें।

अंत में- क्या आप जानते हैं कि एम.एस.ऑफ़िस हिन्दी में नागरी अंकों को किसी भी फॉन्ट में स्थान नहीं दिया गया है। यानी अगर आपकी मशीन पर एम.एस.ऑफ़िस हिन्दी है तो आप हिन्दी अंक नहीं लिख सकते। संबंधित अधिकारियों से निवेदन है कि कम से कम किसी एक फॉन्ट में नागरी अंकों की व्यवस्था कर दें ताकि हिन्दी अंकों का प्रयोग करने वालों को निराश न होना पड़े।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

वसंत भीड़ में

वसंत की तीसरी कविता जो पिछले साल दूसरी व्यस्तताओं के चलते रह गई, इस बार वसंत बीतने से पहले प्रस्तुत है-
हरी घास पर
गदबदी टाँगों से कुलाचें भरता
कोयल सा कुहुकता
भँवरे सा ठुमकता
फूलों के गुब्बारे हाथों में थामे
अचानक गुम हो गया वसंत
मौसमों की भीड़ में बेहाल परेशान
बिछड़ा नन्हा बच्चा
जैसे मेले की भीड़ में खो जाए माँ

मौसम तो सिर्फ छह थे
जाने पहचाने
लेकिन भीड़ के नए मौसम
वसंत बेचारा क्या जाने
चुनाव का मौसम
आतंकवादियों का मौसम
भूकंप का मौसम
पहाड़ गिरने का मौसम
बाढ़ का मौसम, सूखे का मौसम
नेताओं के आने का मौसम
बड़े बड़े शिखर सम्मेलनों का मौसम
फ़िल्म उत्सवों का मौसम
फ़ैशन परेडों का मौसम
गालियों का मौसम, पुरस्कारों का मौसम
गरीबी का मौसम, नारों का मौसम, औज़ारों का मौसम
विस्फोटों का मौसम, हथियारों का मौसम

वसंत
नन्हा दो माह का बच्चा
इस भीड़ में गुम न होता तो क्या होता?

बुधवार, 21 जनवरी 2009

नव वर्ष अभिनंदन


नव वर्ष की शुभ कामनाएँ।

कामनाएँ जीवन का आवश्यक तत्व हैं, इन्हें भारतीय जीवन दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में तीसरे सोपान पर रखा गया हैं। कामनाओं में जो 'काम' है वही हमें काम करने की प्रेरणा देता है और उसको पूरा करने का साहस भी। शुभ में शुचिता, सुंदरता और कल्याण के अनेक अर्थ छुपे हैं। कामनाएँ कमनीय हों, कल्याणकारी हों और पवित्र हों तो फिर कहना ही क्या! आज की शुभ कामनाएँ हमें अच्छे कामों में लगाएँ और जीवन को शुभ बनाएँ!
लंबे समय के बाद लौटी हूँ शायद यह सिलसिल इस बार थोड़ा बेहतर रहे।

कुछ नए दोहे प्रस्तुत हैं-

विपदा से हारा नहीं झेला उसे सहर्ष
तूफ़ानों को पार कर पहुँचा है नव वर्ष

नभ मौसम सागर सभी करें कृपा करतार
जंग और आतंक की पड़े कभी ना मार

बागों में खिलते रहें इंद्रधनुष के रंग
घर-घर में बजते रहें खुशियों वाले चंग

एक बार फिर नए साल की मंगल कामनाएँ!