शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

सड़कों पर


सड़कों पर हो रही सभाएँ
राजा को-
धुन रही व्यथाएँ


प्रजा
कष्ट में चुप बैठी थी
शासक की किस्मत ऐंठी थी
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
राजतंत्र की हुई ठिठोली
अखबारों-
में छपी कथाएँ


दुनिया भर
में आग लग गई
हर हिटलर की वाट लग गई
सहनशीलता थक कर टूटी
प्रजातंत्र की चिटकी बूटी
दुनिया को-
मथ रही हवाएँ


जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

फागुन के दोहे

1
ऐसी दौड़ी फगुनहट ढाणी चौक फलांग।
फागुन आया खेत में गये पड़ोसी जान।।


आम बौराया आँगना कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा मौसम हुआ बहार।।


दूब फूल की गुदगुदी बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी मौसम को है आस।।


वर गेहूँ बाली सजा खड़ी फ़स़ल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ सरसों पीली गात।।


ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात।
मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश।।


ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत।
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।।


मौसम के मतदान में हुआ अराजक काम।
पतझर में घायल हुए निरे पात पैगाम।।


दबा बनारस पान को पीक दयी यौं डार।
चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार।।


सजे माँडने आँगने होली के त्योहार।
बुरी बलायें जल मरें शगुन सजाए द्वार।।


मन के आँगन रच गए कुंकुम अबीर गुलाल।
लाली फागुन माह की बढ़े साल दर साल।।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

स्वागत २०११


गणतंत्र दिवस शुभ हो साथ ही नव वर्ष में सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि की ढेरों शुभकामनाएँ!


मंगलकामनाओं के इस दौर के साथ अभिव्यक्ति की सहयोगी पद्य-पत्रिका अनुभूति १ जनवरी को अपने जीवन के १० वर्ष पूरे कर रही है। इन दोनों पत्रिकाओं के निर्माण, संयोजन, संचालन और पठन-पाठन में लगे उन असंख्य लोगों का हार्दिक आभार जिनके सहारे इतना रास्ता पार कर ये दोनो पत्रिकाएँ यहाँ तक पहुँची हैं।


पुराने वर्ष के अवसान के साथ अभिव्यक्ति के कुछ पुराने स्तंभ भी अभिव्यक्ति से विदा ले चुके हैं और नए साल के आगमन के कुछ नए स्तंभ हमारे साथ सम्मिलित हो रहे हैं। दस वर्ष पुराना "सप्ताह का विचार" इस साल से प्रकाशित नहीं होगा। तीन वर्ष पुराने- "क्या आप जानते हैं" और "हास परिहास" भी इस अंक से नहीं होंगे, एक वर्ष पुराना "रसोईघर से सौंदर्य सुझाव" भी पिछले अंक के साथ पूरा हो चुका है।


इसके स्थान पर पाँच नए स्तंभ जुड़ रहे हैं जिसमें से एक- "वर्ग पहेली" नए साल से पहले ही प्रारंभ हो चुका है। इस स्तंभ को आकार देने में भारत से गोपालकृष्ण भट्ट और रश्मि आशीष ने अपने व्यस्त कार्यजीवन से समय निकालकर कड़ी मेहनत की है। इसके साथ ही रश्मि कंप्यूटर से संबंधित छोटी छोटी बातों का एक स्तंभ शुरू कर रही है कंप्यूटर की कक्षा। वे इस अंक से एक ५००० शब्दों के साथ शब्दकोश पर भी काम प्रारंभ कर रही हैं। वर्ष के अंत तक यह १ लाख शब्दों का संपूर्ण शब्दकोश हो जाएगा।


रसोईघर की कायापलट कर रही हैं- मारिशस टी.वी. की अत्यंत लोकप्रिय व्यक्तित्व मधु गजाधर। पारंपरिक भारतीय भोजन को स्वास्थ्यवर्धक शैली में प्रस्तुत करने की विशेषज्ञ, वे प्रति सप्ताह भारतीय स्वाद के अनुरूप पारंपरिक या आधुनिक शैली का एक व्यंजन हमारे पाठकों के लिये प्रस्तुत करेंगी।


"बचपन की आहट" के साथ घर परिवार को उपयोगी और रोचक बना रही हैं संयुक्त अरब इमारात की इला गौतम। दो से अधिक वर्षों से निरंतर शिशुविकास के अध्ययन में संलग्न इला ने बच्चों के विकास को साप्ताहिक चरणों में लिपिबद्ध करने का महत्तवपूर्ण काम किया है। इस अंक से उनका यह रोचक अवलोकन छोटी टिप्पणियों और संपूर्ण लेखों के माध्यम से पाठकों तक पहुँचेगा।


रसोईघर के सुझावों को नया रूप दे रही हैं अलका मिश्रा- "रसोईघर से स्वास्थ्य सुझाव" में। पिछले पाँच वर्षों से
भी अधिक समय से आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों की खेती और दवाओं में उनके प्रयोग पर अनुसंधान में रत अलका, सरलता से उपलब्ध भारतीय मसालों और जड़ी बूटियों पर आधारित स्वास्थ्यवर्धक सुझाव इस सप्ताह से प्रारंभ कर रही हैं।


वेब पर सबसे लोकप्रिय और भारत की जानी मानी ज्योतिषाचार्या संगीता पुरी इस अंक से अभिव्यक्ति में पहली बार प्रस्तुत कर रही हैं पाक्षिक भविष्य फल। आशा है ये स्तंभ पाठकों को रुचेंगे। नववर्ष में बदले हुए रंगरूप के साथ इन आयोजनों के विषय में आपकी राय और सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

अभिव्यक्ति दस साल की


इस सप्ताह स्वतंत्रता दिवस के शुभ दिन अभिव्यक्ति, ४५०वें अंक के साथ अपने जीवन के दस वर्ष पूरे करेगी। इसका पहला अंक १५ अगस्त २००० को प्रकाशित हुआ था। पत्रिका का प्रारंभ मासिक पत्रिका के रूप में हुआ था पर जल्दी ही यह पाक्षिक और फिर साप्ताहिक रूप में प्रकाशित होने लगी।

पाठकों के अपरिमित स्नेह, साथियों के निरंतर सहयोग और रचनाकारों के कर्मठ उद्यम के लिये कृतज्ञता प्रकट करने का इससे उपयुक्त समय और भला क्या होगा। अभिव्यक्ति की स्थायी टीम प्रो.अश्विन गांधी, प्रवीण सक्सेना, पूर्णिमा वर्मन और दीपिका जोशी की ओर से पाठकों, स्तंभकारों व रचनाकारों का सादर अभिनंदन व हार्दिक आभार! आनेवाले समय के लिये भारतीय साहित्य, संस्कृति और कला से प्रेम रखने वालों के लिए ढेरों शुभकामनाएँ। आशा है आगे की यात्रा साहित्य, तकनीक, कला और सार्थकता की दृष्टि से बेहतर बनेगी।

यह देखकर प्रसन्नता होती है कि वर्ष २००० जहाँ हमारे पहले अंक को पढ़नेवाले माह में केवल ६० थे आज इनकी संख्या लगभग ५ लाख है। हिंदी में लिखे गए ढेरों शुभकामना संदेश इस समय अभिव्यक्ति के फेसबुक वाले समूह पृष्ठ पर पढ़े जा सकते हैं। ये सभी संदेश हिंदी के अनन्य प्रेमियों या साहित्यकारों के हैं जिन पर तकनीक से दूरी बनाए रखने के आरोप लगते रहे हैं। कुछ संदेश ऐसे पाठकों के भी हैं जो भारतीय मूल के नही हैं। यह हिंदी के लिये सुखद स्थिति है और इंगित करती है कि हिंदी का प्रयोग करने वालों में कंप्यूटर का ज्ञान व रुझान तेजी से बढ़ रहा है साथ ही हिंदी विदेशियों में भी लोकप्रिय हो रही है।

जहाँ तक पहुँचे हैं उसका संतोष है, भविष्य के लिये कुछ योजनाएँ हैं जो धीरे धीरे अपना रूप लेंगी। आशा है सभी का स्नेह और सहयोग इसी प्रकार मिलता रहेगा।

स्वतंत्रता दिवस की अनेक शुभकामनाओं के साथ,

पूर्णिमा वर्मन

बुधवार, 9 जून 2010

मन के मंजीरे

भारत में शायद शांति देवी के विषय में बहुत कम लोग जानते होंगे लेकिन इमारात में पिछले सप्ताह "गल्फ न्यूज" नामक समाचार पत्र की "फ्राइ डे" नामक साप्ताहिक पत्रिका में वे व्यक्तित्व के अंतर्गत छाई रहीं। शांति देवी दिल्ली की ओर जाने वाली एक प्रमुख सड़क पर स्थित अपने छोटे से गैरेज में पति के साथ ट्रक मैकेनिक का काम करती हैं। उनका कहना है कि लोग उनको ट्रक मैकेनिक का काम करता हुआ देखकर अचरज करते हैं लेकिन इस काम को करते हुए उन्हें स्वयं कोई अचरज नहीं होता। वे जितनी सहजता से रोटी पकाती हैं या सिलाई मशीन चलाती हैं उतनी ही सहजता से ट्रक मैकेनिक का काम भी कर लेती हैं।

मध्य प्रदेश की रहने वाली शांति बीस साल पहले अपने पति के साथ दिल्ली आयीं थी और यहीं की होकर रह गई। पूरे भारत में शायद वे एकमात्र महिला ट्रक मैकेनिक हैं। उन्होंने टायर बदलना और ट्रक की दूसरी मरम्मत करने का काम अपने पति से सीखा और निरंतर अपने ज्ञान को बढ़ाती रहीं। आज वे अनेक पुरुषों से बेहतर ट्रक मैकेनिक मानी जाती हैं। उनका कहना है कि अगर किसी महिला में पुरुषों द्वारा किए जाने वाले कामों को करने का जुनून हो तो अवश्य ही वह उसे पुरुषों जैसा या उनसे भी बेहतर कर सकती है।

शांति बाई को पढ़ने लिखने का अवसर तो नहीं मिला लेकिन उन्हें जो भी काम सीखने का अवसर मिला उसे उन्होंने तन्मयता से सीखा और उसके द्वारा अपने परिवार को आर्थिक सहयोग भी किया। एक सौ पचास रुपये महीने पर एक सिलाई मशीन से अपना कार्यजीवन प्रारंभ करने वाली शांति ने पाँच साल पहले दिल्ली में अपना पक्का मकान बना लिया है। अपनी सफलता का श्रेय पति को देती हुई वे कहती हैं कि हमारी सफलता का राज़ यही है कि हम दोनों साथ काम करते हैं। उन्होंने मुझे हर काम सीखने में सदा सहायता की और किसी भी काम के प्रति हतोत्साहित नहीं किया। उनका विचार है कि पढ़ना लिखना जीवन के लिए आवश्यक है लेकिन किसी एक काम में तकनीकी निपुणता प्राप्त करना भी ज़रूरी है। अगर भारत की सारी महिलाओं को शांति देवी जैसे काम करने के अवसर मिलें ते भारत की अर्थव्यवस्था बदलने में पल भर की भी देर न लगेगी।

कुछ वर्ष पहले की बात है शुभा मुद्गल का गाया हुआ मन के मंजीरे नामक एक गीत का वीडियो अक्सर टीवी पर दिखाई देता था जिसमें एक महिला ट्रक ड्राइवर की कहानी दिखाई गई थी। बड़े ही काव्यात्मक बोलों वाले इस वीडियों में अभिनय मीता वशिष्ठ ने किया था। बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि इस गीत के रचयिता आज के प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी थे। यह वीडियो "ब्रेक थ्रू" नामक एक समाजसेवी संस्था द्वारा जारी किया गया था जो लोकप्रिय कला माध्यमों द्वारा सामाजिक न्याय के लिए आवाज़ उठाती है। न जाने क्यों शांति देवी की कहानी पढ़ते हुए यह गीत ध्यान में आ गया। शायद इसलिए कि दोनो बातों में ट्रक और महिला का संयोग एक सा है। गीत की याद आ गई तो उसे यू ट्यूब पर खोलकर एक बार फिर से सुना। सुनते सुनते लगा कि अपने-अपने जीवन में संघर्षरत हर व्यक्ति के मन के मंजीरे इसी प्रकार सफलता की धुन में बजें और बजते ही रहें।

बुधवार, 26 मई 2010

कैसी कैसी कार चोरियाँ


यों तो इमारात में गर्मी का मौसम अभी शुरू नहीं हुआ है पर दोपहर में इतनी गरमी ज़रूर हो जाती है कि बंद कार अगर आधा घंटा धूप में खड़ी रह जाए तो उसे फिर से ठंडा होने में १५ मिनट का समय लग जाए। इससे बचने के लिए अक्सर लोग ए.सी. खोलकर कार में ताला लगाए बिना दूकानों में चले जाते हैं ताकि वापस लौटने पर कार ठंडी मिले। कभी कभी लोग घर से निकलने के १०-१५ मिनट पहले कार चालू कर देते हैं ताकि यात्रा शुरू करने से पहले कार थोड़ी ठंडी हो जाए।

मेरे पिताजी के लिए इसमें से दो बातें बडे ही आश्चर्य की थीं। उन्होंने पूछा था, "क्या लोग कार खुली छोड़कर दूकान के अंदर चले जाते हैं? और वो चोरी नहीं हो जातीं?"
"क्या बिना चलती हुई कार में ए.सी. और रेडियो चलाने से उनकी बैटरी डाउन नहीं होती?"

बिना चलती हुई कार में ए.सी. और रेडियो कैसे चलता है यह बात तो उन्हें जल्दी ही समझ में आ गई लेकिन खुली पड़ी कारें चोरी नहीं होतीं इसका आश्चर्य बना ही रहा था। मैंने कहा था, यहाँ आमतौर पर लोग सूटकेस बाहर छोड़कर रेस्त्रां में चाय पीने चले जाते हैं। आधे घंटे बाद आने पर भी सूटकेस वहीं मिलता है। चोरी की घटनाएँ आमतौर पर नहीं होती हैं। तब से अब तक १५ साल में इमारात की जनसंख्या दुगनी हुई है। भीड़ बढ़ने के साथ साधनों की कमी हुई है, महँगाई बेतहाशा बढ़ी है और साथ ही बढ़वार हुई है अपराधों की। अन्य गंभीर अपराध तो बढ़े ही हैं, सामान्य रूप से पड़ी हुई चीज़ चोरी नहीं होगी ऐसा अब नहीं कहा जा सकता। ए.सी. चलाकर बिना ताला लगाए छोड़ी गई कारों पर भी इसका असर हुआ है।

दुबई पुलिस द्वारा जारी एक समाचार के अनुसार २००८ की गर्मियों में ए.सी. चालू कर के छोड़ी गई ४० कारें चोरी हुई थीं जिसमें से ३५ बरामद कर ली गई थीं। २००९ में ६४ कारें चोरी हुईं और सभी को पुलिस ने बारमद कर लिया। इस वर्ष चोरी की घटनाओं से बचने के लिए गरमी शुरू होने से पहले ही पुलिस द्वारा अखबारों में निरंतर चेतावनी प्रकाशित की जा रही है कि कार का ए.सी. चलाकर उसे अकेला न छोड़ें। इस सबके बावजूद ९ कारें चोरी हो चुकी हैं जिसमें से ४ अभी भी लापता है। महँगी और शानदार गाड़ियाँ चोरी का ज्यादा शिकार होती हैं। तो क्या शहर में गाड़ी चोरों का गैंग आ बसा है?

पुलिस का कहना है कि ए.सी. चलाकर छोड़ी गई महँगी कारों की चोरी हमेशा उन्हें बेचकर धन कमाने के लिए नहीं की जाती। एक चोर ने स्वीकारा कि जब वह सड़क के किनारे टैक्सी का इंतज़ार कर रहा था उसके सामने ही एक लग्जरी कार आकर रुकी जिसका चालक उसे खुली छोड़कर सुपर मार्केट के अंदर चला गया। टैक्सी की प्रतीक्षा करने वाला व्यक्ति लग्जरी कार पर सवारी के लालच को रोक न सका और कार लेकर उड़ता बना। बाद में उसने गंतव्य पर पहुँचकर कार को उसी प्रकार खुला छोड़ दिया जैसा उसके मालिक ने छोड़ा था।

कमाल है जनाब! चोरी में भी इतनी शराफ़त! मालूम नहीं यह कहानी पढ़कर पिताजी की क्या प्रतिक्रिया होगी। शायद वे जोर का एक ठहाका लगाएँगे।

सोमवार, 17 मई 2010

प्रयास- ऐल्ते विश्वविद्यालय की साहित्यिक पहल

विदेशों में भारतीय संस्कृति और हिंदी भाषा से जुड़ने का जो अनुशासन दिखाई देता है वह इससे जुडी प्राचीन विद्याओं के प्रति उनके आध्यात्मिक लगाव और समझ को व्यक्त करता है। पिछले सप्ताह हंगरी की राजधानी बुदापैश्त के ऐल्ते विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में इसका अनुभव एक बार और हुआ।

यह विभाग 'प्रयास' नाम से हिंदी में एक त्रैमासिक भित्ति पत्रिका का प्रकाशन करता है। इसमें ऐल्ते और पेच विश्वविद्यालयों के वर्तमान छात्र, भूतपूर्व छात्र व दूतावास द्वारा चलाई जानेवाली कक्षा के छात्रों व अध्यापकों का सहयोग लिया जाता है। पत्रिका के संस्थापक व वर्तमान संपादक ऐल्ते विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अतिथि प्रोफेसर डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा हैं। विभागाध्यक्ष मारिया नेज्यैशी का सहयोग और सौजन्य स्वाभाविक रूप से इस पत्रिका को प्राप्त है। उनकी कुछ हिंदी रचनाएँ भी इसमें प्रकाशित हुई हैं। पत्रिका में मौलिक रचनाओं के अतिरिक्त हंगेरियन से हिंदी अनुवाद, साक्षात्कार, यात्राविवरण आदि भी प्रकाशित किए गए हैं। रोचक बात यह है कि अनेक मूल रचनाओं में संपादन नहीं किया गया है। इससे सामान्य हिंदी पाठकों को यह जानने का अवसर मिलता है कि एक हंगेरियन छात्र को हिंदी भाषा की किस बात को समझने में कठिनाई होती है और वह कहाँ कहाँ गलतियाँ कर सकता है।

पिछले माह इसके वेब संस्करण का भी लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर वहाँ उपस्थित छात्रों से बात करने, उन्हें अभिव्यक्ति-अनुभूति के बारे में बताने और हंगरी व हिंदी में काम करने वाले लोगों से मिलने का सौभाग्य मिला। यह देखकर प्रसन्नता हुई कि किसी विदेशी विश्वविद्यालय ने वेब तक अपने हाथ फैलाकर हिंदी का परचम लहराया है। विश्व में किसी भी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की यह पहली पत्रिका है जो वेब पर आ खड़ी हुई है। आशा है शीघ्र ही अनेक विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की पत्रिकाएँ भी वेब पर आएँगी और हिंदी वेब के सार्थक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगी। इस लेख को पढ़नेवाले कोई पाठक अगर किसी विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर या छात्र हैं और विभाग की पत्रिका से जुड़े हैं तो अभिव्यक्ति को नीचे दिए गए पते पर ईमेल लिखकर सहयोग का अनुरोध कर सकते हैं। अगर ऐसी दस पत्रिकाएँ भी जुड़ सकीं तो अभिव्यक्ति की ओर से सबसे अच्छी पत्रिका का चुनाव कर एक वार्षिक पुरस्कार भी दिया जा सकेगा।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

कोहरे की नदी


समय और स्थान बदलने से बहुत सी धारणाएँ किस तरह बदल जाती हैं इसका आभास पिछले कुछ सालों में गहराई से हुआ है। पृथ्वी जैसी ज़मीन से दिखती है वैसी ही तीसवीं मंज़िल से नहीं दिखती इसका आभास भी बहुत से लोगों को होगा। हम सब यह भी जानते हैं कि पहाड़ी शहरों में बादल खुली खिड़कियों से कमरे में आ जाते हैं और अक्सर नीचे घाटियों में तैरते दिखाई देते हैं या कोहरा घाटी से उठता है और आकाश में जम जाता है। मैदानी शहरों में रहने वाले यह भी जानते हैं कि सर्दी की ठंडी रातों में देर रात कोहरा फुहार की तरह बरसता है, लेकिन सुबह का कोहरा आसमान में नहीं ज़मीन में नदी की तरह बहता है उसका आभास पिछले दिनों दुबई के निवासियों को शायद पहली बार हुआ।

यह तो मैंने पिछले एक लेख में लिखा ही था कि इमारात में गर्मियों की कई सुबहें कोहरे से भरी होती हैं। इस बार दस मार्च को एक ऐसी ही सुबह थी। दुबई की बहुमंज़िली इमारतों में रहने वाले लोगों ने सुबह उठकर खिड़की के बाहर गहरी सड़क की जगह ऊपर तक उफनती कोहरे की एक नदी देखी। यों तो समंदर में आसमान तक भरे कोहरे, या शहर की सड़कों पर यातायात अवरुद्ध करते हुए कोहरे को हम सबने देखा है लेकिन नीचे की ओर सड़क में भरे कोहरे को देखने का यह अनुभव अनोखा था। ऐसा लगा जैसे खुले हुए प्राकृतिक स्थलों से इसे जबरदस्ती मार भगाया गया है और वह शहर की सड़कों में अट्टालिकाओं के बीच आ छुपा है। दोपहर दस बजे के बाद यह नदी धीरे धीरे घुलकर गायब हो गई। कहना न होगा कि लोगों ने इस दृश्य का जी भर कर आनंद लिया, फोटो खींचे और देर तक इसके साथ लगे रहे। समाचार पत्रों में भी अगले दिन कोहरे की इस नदी के खूब चित्र छपे। इन्हीं में से लिया गया एक चित्र ऊपर प्रस्तुत है। बड़ा आकार देखने के लिए चित्र को क्लिक करना होगा। आशा है प्रकृति का यह अनोखा सौंदर्य उन सबको लुभाएगा जिन्होंने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा है।

जंगलों की ओर बढ़ते शहरों ने जिस तरह पशुओं को बेघर कर के शहर में बेघर घमने पर मजबूर कर दिया है आशा है उस तरह का हाल प्रकृति का नहीं होगा। नदियाँ सदानीरा बनी रहेंगी, पर्वत हरियाली संभाले रहेंगे, समंदर शहरों पर कहर नहीं ढाएँगे और कोहरे की नदी खिड़की पर आएगी तो, पर कुछ भी बहा नहीं ले जाएगी।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

चमकते सितारे उड़ते लश्कारे

यह चेहरा कुछ पहचाना सा है न? अनिल कपूर ही तो हैं, शायद किसी भूमिका के लिए वज़न कुछ बढ़ाया गया है। मैंने भी पहली नज़र में यही सोचा था, लेकिन सोच सही नहीं निकली। ये अनिल कपूर नहीं अरबी दुनिया के लोकप्रिय पॉप गायक राघेब अल्लामा है। पिछले दिनों इनके अमर दिआब के साथ विवाद के चर्चे अखबारों में खूब छपे। जल्दी ही सब कुछ शांत हो गया और दोनो दोस्त बन गए। ठीक वैसे ही जैसे हमारे बॉलीवुड में होता है। जहाँ सितारे चमकेंगे वहाँ कुछ लश्कारे तो उड़ेंगे ही।

अरबी पॉप धमाकेदार संगीत है। इसकी ताल का जवाब नहीं। फिर भी यह माना होगा कि भारतीय फिल्मी संगीत जैसा दुनिया के किसी देश की फिल्मों का संगीत नहीं होता। शायद इसीलिए सारी दुनिया को पॉप संगीत की आवश्यकता होती है। अरबी पॉप की दुनिया काफ़ी बड़ी है जो मिस्र से लेकर लेबनॉन तक फैली है। राघेब मूलरूप से लेबनान के हैं और अमर दिआब मिस्र के और ये दोनो ही गायक इमारात में खूब लोकप्रिय हैं।

अमर दिआब ने अपनी सफलती की ऊँचाइयों को वर्ष 2000 में तब छुआ जब उनका एलबम तमल्ली मआक जारी हुआ। इसने अरबी दुनिया में खूब धूम मचाई। उस समय इमारात की हर संगीत की दुकान, सुपर मार्केट और कार में यही गीत दिन रात सुनाई देता था। केवल अरबी दुनिया ही नहीं यूरोप में भी इसे खूब लोकप्रियता प्राप्त हुई। हमारा भारत भी इसकी गूँज से नहीं बचा। बहुत से पाठकों को अन्नू मलिक द्वारा संगीतबद्ध किया मल्लिका शेरावत और इमरान हाशमी पर फ़िल्माया गया मर्डर फिल्म का एक गीत 'कहो न कहो' याद होगा। वह गीत इसी धुन पर आधारित था।

जो गीत इतना लोकप्रिय हो उसमें कुछ तो विशेष होता ही है। इस गीत में अरबी संगीत की जोशीली ताल को स्पैनिश गिटार के साथ प्रयोग में लाया गया है और ऐसा करते हुए गीत को जोशीला बनाने की बजाय बोलों के अनुरूप मधुर बनाया गया है। यही इस गीत की विशेषता है। यू ट्यूब पर खोजें तो इस गीत पर आधारित दो वीडियो मिलते हैं। एक में अरबी पृष्ठभूमि है तो दूसरे में यूरोपीय। यहाँ प्रस्तुत है अरबी पृष्ठभूमि वाले वीडियो की कड़ी। इसमें अरबी संगीत और नृत्य की झलक देखी जा सकती है। गिटार जैसा दिखने वाला थोड़ा छोटा और मोटा जो वाद्य बजाया जा रहा है वह ओउद है और स्वरमंडल जैसा एक दूसरा सफ़ेद वाद्य क़नून है। यह स्वरमंडल से थोड़ा बड़ा होता है और इसमें 75 तार लगे होते हैं। वीडियो के पूर्वार्ध में जिस तरह लोग नृत्य कर रहे हैं उसमें हाथों और पैरों को कुछ विशेष मुद्राओं में संचालित किया जा रहा है। ये दो तीन मुद्राएँ अरबी नृत्य की आधारभूत मुद्राएँ है और हर अरबी इन मुद्राओं में नृत्य करना जानता है। तो फिर देर किस बात की, वीडियो पर क्लिक करें और अरबी संगीत का आनंद लें। वीडियो देखते हुए अमर दिआब के चेहरे में किसी किसी कोण से कुछ लोगों को मिलिंद सोमन की झलक मिल सकती है। इसका एक और वीडियो यहाँ देखा जा सकता है।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

देसी होली विदेशी सुगंध


पिछले दिनों दुबई एअरपोर्ट पर खरीदारी करते मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं जब मैंने केंज़ो अमोर की शेल्फ़ पर हिंदी में नाम लिखी परफ्यूम की एक बोतल देखी। न मुझे केन्ज़ो का मतलब मालूम है न अमोर का। मुझे सिर्फ इतना मालूम है कि हाउस ऑफ केंज़ो सुगंध के क्षेत्र में एक जाना-माना फ्रांसीसी ब्रांड है, जिसकी शेल्फों पर फैशनेबल महिलाएँ अक्सर जमी ही रहती हैं। मुझे ऐसी चीज़ों में आमतौर पर दिलचस्पी नहीं महसूस होती लेकिन फ्रांसीसियों के हिंदी प्रेम ने मुझे उनके इस होलियाना उत्पाद की ओर आकर्षित कर ही लिया।

वहाँ उपस्थित सेल्स गर्ल बड़ी ही ज्ञानवती निकली। उसने बताया कि हाउस ऑफ़ केंज़ो की स्थापना पेरिस में केंजो तकाडा नामक जापानी डिजायनर ने की थी। वे फैशन डिप्लोमा के लिए फ्रांस आए थे लेकिन डिप्लोमा लेने के बाद वहीं बस गए। 'इंडियन होली' इसी हाउस ऑफ केंज़ो द्वारा २००६ में केंज़ो अमोर नाम से जारी सुंगंध-शृंखला में से एक सुगंध है जिस पर हिंदी में- होली है! - ये शब्द सुनहरे रंग में अंकित किए गए हैं। डिज़ायनर करीम राशिद द्वारा डिज़ाइन की गई बोतलों में पैक इस सुगंध को विशेष रूप से महिलाओं के लिए जारी किया गया है। उसने हाउस ऑफ़ कैंज़ो में सुगंध तैयार करने वाले लोगों के कुछ और नाम भी लिए जो विदेशी होने के कारण मुझे ठीक से याद नहीं रह सके। 

सुगंध के विषय में उससे कुछ और रोचक जानकारी मिली- उसने बताया कि होली भारत में रंगों का त्योहार है (जैसे मुझे तो मालूम ही नहीं है।) इसी के नाम पर आधारित इस परफ्यूम की सुगंध बारह घंटों तक एक सी बनी रहती है। कस्तूरी और फूलों की महक से शुरू होने वाली यह सुगंध गुलाब और लाल बेरी (मालूम नहीं यह क्या होता है और इसकी सुगंध कैसी होती है।) में बदलती है और जब इसकी धुंध छँटती है तो विनम्र चावल (जेंटेल राइस शब्द का अर्थ कहीं मिला नहीं शायद यह कोई फूल हो।) चेरी ब्लॉसम (निश्चय ही पॉलिश नहीं) , चंदन और भी कई चीज़ें (जिसमें से मुझे सिर्फ वेनीला याद रह गया) में बदल जाती है। हे भगवान! मुझे तो अपनी अज्ञानता पर सच ही दया हो आई थी। क्या परफ्यूमें भी उगते डूबते सूरज वाले आसमान की तरह रंग बदलती हैं कि कभी ये तो कभी वो? खैर इसको सूँघना मुफ्त था सो उसने मेरी कलाई पर एक फुहार दी। मुझे समझ में सिर्फ इतना आया कि यह काफ़ी तीखी है और मेरी पसंद की नहीं। उसने दुबारा मुझे आगाह किया कि यह लिमिटेड एडीशन परफ्यूम है यानि एक बार सारा माल बिक गया तो दुबारा नहीं बनाया जाएगा। दूसरे शब्दों में, खरीदना हो तो खरीद लो वर्ना बाद में पछताओगे। पछतावा मुझे सुगंध न खरीदने का नहीं हुआ सिर्फ इस बात का हुआ कि हम भारतीय जहाँ के तहाँ रह गए और परफ्यूम पर स्वर्ण अक्षरों में हिंदी लिखने का श्रेय विदेशी लूट ले गए।

अब पाठक ये न समझ लें कि इस सुगंध की तारीफ या बुराई के मुझे पैसे मिले हैं। यह तो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर बिकनेवाली एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड की परफ्यूम का हुरियारा अनुभव था जिसे आपके साथ बाँट लिया। सच पूछिए तो ऊपर की फोटो भी चुराई हुई है। मुझे लगा कि इतनी बड़ी कंपनी को मेरे जैसे छोटे-मोटे जीव की इस छोटी मोटी चोरी से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है। फिर भी अगर उन्हें तकलीफ़ हुई तो इसे हटा देंगे। पर तबतक आप इसकी एक हुरियारी झलक लेने से न चूकें। चाहें तो तस्वीर पर क्लिक कर के बड़ा आकार देखें और अंतर्राष्ट्रीय होती हिंदी का आनंद लें।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

वसंत की शुभकामनाएँ

जब हम छोटे थे तो समझते थे कि वसंत पंचमी से लेकर होली तक वसंत की ऋतु होती है। वसंत के दिन नए पीले कपड़े पहनते थे पीले मीठे चावल घर में बनते थे और दोपहर भर किसी पुष्प प्रदर्शनी में फूलों की दुनिया की सैर करते दिन कट जाता था। इस दिन के आते ही होली की तैयारियाँ भी शुरू हो जाती थीं। अनिर्वचनीय उल्लास सा भरा रहता था मन में। फ़िक्र होती थी तो सिर्फ़ एक- परीक्षाओं की। अब ये अनुभव पुरानी पीढ़ी के हो गए। वसंत कब आता है कब चला जाता है इसका पता नहीं चलता। वसंत पर निबंध भी तो नहीं लिखे जाते।

छोटी होती दुनिया के साथ लोग दूर दूर जा बसे हैं। अब इस कोने की ही बात करें- एक तो यहाँ इमारात में ऋतुओं का वैसा वैभिन्य नहीं जैसा उत्तर भारत में, दूसरे प्रकृति का जैसा सौंदर्य भारतीय परिवेश में पाया जाता है वह भी यहाँ स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक इसलिए नहीं क्यों कि जिस वस्तु में स्थानीय हवा, पानी और आत्मा का मेल नहीं होता वह चीज़ न तो लंबी चलती है न ही अपना प्रभाव छोड़ती है। हालैंड से खरीदे हुए फूल शारजाह के बगीचे में कितने दिन जीवित रह सकते हैं? मान लो वे एक मौसम जी भी गए तो उनमें बीज नहीं आते कि झर कर सो जाएँ और अगले साल मौसम बदलते ही नए अंकुर सिर उठाकर कहें- लो हम आ गए वसंत का संदेश लेकर। यहाँ मौसम को भी वस्तु की तरह खरीदकर घर में लाया जाता है, लेकिन बनावटी चीज़ों में कितनी भी चाभी भरी जाए वे सजीव नहीं हो जातीं। भारत की महानगरीय संरचना में भी बहुमंजिली इमारतों से पटे कंकरीट के जंगल में वसंत के गुजरने की जगह कहाँ बची है? एक ओर व्यस्तताओं का बवंडर है तो दूसरी ओर महत्त्वाकांक्षाओं की आँधी। और इससे जुड़े हम प्राकृतिक हवा, पानी, धूप से अलग होकर यांत्रिक दृष्टि से वातानुकूलित होने के चक्कर में अपने स्वाभाविक राग, रंग और मिठास वाली संस्कृति की खबर लेना भूल रहे हैं।

इसी स्वाभाविक राग, रंग और मिठास को सींचने तथा जन जन को मौसम से जोड़ने के लिए आते हैं अभिव्यक्ति और अनुभूति के वसंत विशेषांक। इसमें साहित्य और संस्कृति के बीज बोने का प्रयास किया गया हैं इस आशा के साथ कि वे हर साल झरेंगे और हर साल सिर उठाकर नवऋतु के आने का ऐलान करते रहेंगे, वसंत की हार्दिक शुभकामनाएँ!

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

दुनिया रंग रंगीली

बहुत दिनों से इमारात के बारे में कुछ नहीं लिखा। यहाँ वर्षा का कोई मौसम नहीं होता। लेकिन सर्दियों में एक सप्ताह बारिश होती है। कभी तेज़ कभी बूँदा बाँदी। हालाँकि साल भर की यह ज़रा सी बारिश भी लोगों को अच्छी नहीं लगती। एक तो इसलिए कि इससे सर्दी बढ़ जाती है और तापमान दस डिग्री या उससे नीचे उतर जाता है जो इस वसंत ऋतु जैसी मोहक सर्दियों में बिलकुल भी नहीं भाता दूसरे सजे सजाए बगीचे सत्यानाश हो जाते हैं।

यह मौसम जिसमें बाहर धूप में बैठना, सड़कों पर टहलना और बाज़ार में घूमना अच्छा लगता है, पानी की किचपिच से हाल बेहाल कर देता है। वाहनों की गति मंद पड़ जाती है, सड़कों पर जाम लग जाते हैं और दैनिक जीवन रुका रुका सा मालूम होता है। कल शुक्रवार था यानि सप्ताहांत की छुट्टी का दिन। सारे दिन बादल छाए रहे और हवा चलती रही। घूमने घामने वाले लोग डरते डरते घर से निकले पर दिन खुशी से बीत गया रात को तेज़ बारिश हुई। आज सुबह बारिश रुकी रही। बादल भी काफ़ी ऊँचे थे, सूरज नहीं दिख रहा था पर आसमान पूरा ढँका हो ऐसा नहीं था। सड़क पर निकली तो देखा बहुत सी कारों ने बत्तियाँ जला रखी हैं। पहले जब एक कार ऐसी दिखी तो मुझे लगा कि बत्ती गलती से जली रह गई है पर जब अनेक गाड़ियों की हेडलाइट चालू दिखी तो मैंने किसी से पूछा- आज इतने सारे लोग बत्तियाँ जलाकर गाड़ी क्यों चला रहे हैं? उत्तर मिला- अँधेरा सा है न इसी लिए। कमाल है! यहाँ पर ज़रा से बादल घिरते ही लोगों को इतना अँधेरा नज़र आने लगता है कि कार की बत्ती जलानी पड़े। चार-पाँच साल पहले अपनी इटली यात्रा की याद हो आई। खुला मौसम था और तापमान पच्चीस-छब्बीस डिग्री सेल्सियस के आसपास था। इमारात में इस तापमान को वसंत की तरह सुहावना माना जाता है पर हमारी अमेरिकी सहयात्री ने अपनी सामान्य ऐनक निकालकर डिब्बे में रखी और बड़े शीशों वाली काली ऐनक निकालकर बोलीं- उफ़् इतनी तेज़ धूप है कि आँखें खोली नहीं जातीं। मैंने मन ही मन सोचा कि अगर कहीं ये मई में भारत या जुलाई में इमारात पहुँच जाएँ तो कैसा अनुभव करेंगी?

अलग अलग स्थानों पर रहते हुए हमारी सोच और सहनशक्ति में काफ़ी अंतर आ जाता है। यह सहनशक्ति मौसम के स्तर पर भी हो सकती है और शिक्षा तथा संस्कृति के स्तर पर भी। इसके आधार पर कम, अधिक, सही और गलत का सूचकांक बहुत ऊपर या नीचे खिसकता रहता है। इसीलिए तो कहा गया है कि दुनिया रंग रंगीली...

शनिवार, 30 जनवरी 2010

गणतंत्र की प्राचीन परंपरा


इस सप्ताह हम भारत के लिए गर्व और त्याग के प्रतीक गणतंत्र दिवस के ६० वर्ष पूरे कर रहे हैं। उत्सव और समारोह के साथ-साथ यह हमारी प्राचीन परंपराओं को फिर से याद करने का दिन भी है। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा लादी गई ३०० साल की लंबी पराधीनता के बाद जिस गणतंत्र को हमने १९५० में प्राप्त किया है, उस गणतंत्रीय प्रणाली की अवधारणा का जन्म भारत में ही हुआ था।

सामान्यत: यह कहा जाता है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई थी। लेकिन इन नगर राज्यों से भी हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ बहुमत का शासन है। ऋग्वेद, अथर्व वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में इस शब्द का प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में किया गया है। वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहाँ गणतंत्रीय व्यवस्था थी। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ जैसे कुरु और पांचाल राज्यों में। वहाँ पहले राजतंत्रीय व्यवस्था थी और ईसा से लगभग चार या पांच शताब्दी पूर्व उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई। छह सौ ईस्वी पूर्व से दो सौ ईस्वी बाद तक, भारत पर जिन दिनों बौद्ध धर्म की पकड़ थी, जनतंत्र आधारित राजनीति बहुत लोकप्रचलित एवं बलवती थी। उस समय भारत में महानगरीय संस्कृति बहुत तीव्रता से विकसित हो रही थी। पालि साहित्य में उस समय की समृद्ध नगरी कौशांबी और वैशाली के आकर्षक वर्णन पढ़े जा सकते हैं। सिकंदर के भारत अभियान को इतिहास के रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस ने साबरकी या सामबस्ती नामक एक गणतांत्रिक राज्य का उल्लेख किया है, जहाँ के नागरिक मुक्त और आत्मनिर्भर थे।

आधुनिक गणतंत्र राजनीतिक व्यवस्था को तय करनेवाली ऐसी प्रणाली है, जो नागरिकों में उनकी अपनी बुद्धि और विवेक द्वारा नागरिकताबोध पैदा करने का काम करती है। इसी नागरिकता बोध से उत्पन्न अधिकार चेतना के द्वारा सत्ता पर जनता का अंकुश बना रहता है। सत्ता या व्यवस्था में बुराई उत्पन्न होने पर असंतुष्ट जनता उसे बदल सकती है। गणतंत्र में सत्ता को शस्त्र या पूँजी के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं है। लेकिन इसके लिए जनता का जागृत, शिक्षित और विवेकी होना आवश्यक है। इसके अभाव में संपूर्ण राष्ट्र उपभोक्तावादी संस्कृति या गलत प्रचार का शिकार होकर नष्ट भी हो सकता है। इसलिए आवश्यक है कि लंबी पराधीनता के बाद आज हमने जो यह नई गणतंत्रीय व्यवस्था प्राप्त की है, उसके मूल्यों की रक्षा हो और राष्ट्रीय विकास के हित में उसका सही प्रयोग हो।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

लंबू जी छोटू जी

कहते हैं अति सर्वत्र वर्जयेत, लेकिन कीर्तिमान तो तभी बनते हैं जब कोई किसी अति का अतिक्रमण करे। इस वर्ष लंबे और छोटे होने का कीर्तिमान बनाकर गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड में नाम लिखवाया है तुर्की में जन्मे लंबू सुल्तान कोसेन ने और छोटू का ताज मिला है चीन के ही-पिंगपिंग को।

सुल्तान कोसेन बचपन से इतने लंबे नहीं थे। १० वर्ष की आयु तक उनकी लंबाई सामान्य बच्चों जैसी रही, लेकिन आँखों के पीछे उभरे एक आबुर्द (ट्यूमर) से पीयूष ग्रंथि पर पड़ने वाले दबाव के कारण उनकी लंबाई तेज़ी से बढ़ने लगी। आबुर्द को निकालने के लिए उन्हें कई शल्य क्रियाओं से गुज़रना पड़ा। २००८ में जब यह पूरी तरह ठीक हुआ उनकी लंबाई ८ फुट १ इंच तक पहुँच चुकी थी। आज २७ वर्ष की आयु में स्वस्थ होने के बाद उनकी लंबाई स्थिर है लेकिन अस्वाभाविक लंबा शरीर घुटनों पर जो अतिरिक्त बोझ डालता है उसको संभालने के लिए छड़ी लिए बिना चलना उनके लिए संभव नहीं है। बाज़ार में उनके नाप के कपड़े और जूते नहीं मिलते हैं साथ ही कोई ऐसी कार भी नहीं है जिसमें उनकी टाँगें समा सकें। फिर भी वे समान्य जीवन बिता रहे हैं और हाल ही में उन्होंने विवाह भी किया है।

दूसरी ओर २१ वर्षीय ही-पिंगपिंग की लंबाई केवल ७३.६६ सेंटीमीटर यानी २ फुट ५ इंच है। चीन में वुलानचाबू शहर के रहने वाले ही पिंगपिंग की दोनो बहनें सामान्य है। ही-पिंगपिंग के माता पिता के कहना है कि जन्म के समय उनकी लंबाई सामान्य से कुछ कम थी लेकिन बाद में भी जब इसकी गति बहुत कम रही तो डाक्टरों ने पाया कि वे ऑस्टियो इंपर्फ़ेक्टा के शिकार हैं। इस स्वास्थ्य स्थिति में हड्डियाँ स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं होतीं या बार बार टूट जाती हैं। १९८८ में जन्मे ही-पिंगपिंग अपने बाल रूप के कारण २००८ से अंतर्राष्ट्रीय नायक बने हुए हैं और देश-विदेशी की यात्रा करते हुए अलग अलग लोगों के साथ उनके बहुत से चित्र सजाल पर देखे जा सकते हैं। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड के अलग-अलग शहरों में विमोचन के समय भी वे उपस्थित रहे हैं। विगत १५ जनवरी को जब वे इस पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर इस्तांबूल पहुँचे तब उनकी भेंट सुल्तान कोसन से हुई। अपने देश में ही-पिंगपिंग का स्वागत करते हुए कोसेन ने कहा, "मुझे इस बेहद छोटे व्यक्ति पर नजर टिकाने में कठिनाई हो रही थी।" वहीं, पिंगपिंग ने कहा कि बाँस जैसे लंबे इस व्यक्ति से सीना तानकर हाथ मिलाने का अनुभव वाकई यादगार रहा।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

कजरारी आँखों का रहस्य

कजरारी आँखों की दुनिया कायल है उस पर अरबी सुरमें में डूबी धुआँ धुआँ आँखों का जवाब नहीं उस पर भी आँखें अगर क्लियोपेट्रा की हों तो दुनिया जहान के साथ सौदर्य., स्वास्थ्य और फैशन की दुनिया के सारे वैज्ञानिकों का जीना हराम हो जाना स्वाभाविक ही है। हाल में हुई खोजों के आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि वे इन धुआँ धुआँ आँखों का 4000 साल पुराना राज खोलने में सफल हो गए हैं।

लंदन से मिले एक समाचार के अनुसार फ्रेंच शोध में पता चला है कि क्लियोपेट्रा की आँखों पर लगाए जाने वाले प्रसाधन केवल आँखों का सौंदर्य ही नहीं बढ़ाते थे बल्कि स्वास्थ्य भी दुरुस्त रखते थे। विशेषज्ञों का कहना है कि क्लियोपेट्रा की आँखों में लगाया जाने वाला कजरा आँखों को हर प्रकार के संक्रमण से बचाने की शक्ति देता था। एनालिकल केमेस्ट्री नामक एक पत्रिका का कहना है कि इस प्रसाधन में पाया जानेवाला लेड सॉल्ट आँखों के रोगों के विरुद्ध प्रतिरोधक का काम करता है। लूव्र के शोधार्थियों का विश्वास है कि अरबी आँखों का यह विन्यास शोभा के साथ साथ स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखता था। प्राथमिक स्तर पर लेड साल्ट से नाइट्रिक एसिड का जन्म होता है यह एसिड आँखों के उस प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत बनाता है जो आक्रामक बैक्टीरिया से लड़ने का काम करता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीम मिस्र के लोग इस प्रकार के लेड का निर्माण करते थे जो आँखों पर आक्रमण करने वाले रोगों के बैक्टीरिया के विरुद्ध प्रतिरोधक शक्ति का विकास करता था। ऐसा विश्वास भी किया जाता है कि लेड सल्फ़ाइट में पाए जाने वाले जिस गलीना नामक खनिज का प्रयोग भी आँखों के प्रसाधन में किया जाता था, वह रोगाणुरोधक तो था ही इसमें मक्खियों को दूर रखने की क्षमता थी और यह आँखों को धूप से सुरक्षित भी रखता था।


सोचती हूँ दीपावली की रात में, घी के दीपक में कपूर डालकर, हल्दी की गाँठों के बीच सूत की बाती के ऊपर चाँदी की कटोरी में पारे गए काजल में भी कुछ खास बातें रही होंगी जिन्हें हम आज बेवकूफ़ी समझकर त्याग चुके हैं। शायद इस विषय में लंदन, पेरिस और लूव्र से छपने वाले किसी भी वैज्ञानिक जरनल से पहले भारत में स्थित वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा प्रकाशित होने वाले किसी जरनल में यह बात प्रकाशित हो और उसी प्रकार दुनिया भर के समाचारों के मुखपृष्ठ का हिस्सा बने जैसे आज यह खबर बनी हुई है।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

बाल्टी यात्रा बच्चों के लिए


जिस तरह मुंबई वालों को दौड़ने की आदत है उसी तरह दुबई वालों को चलने की आदत है। किसी न किसी बात पर पदयात्रा के बहाने ढूँढ ही लिए जाते हैं। पिछले माह शुक्रवार २० नवंबर को दुबई केयर्स की ओर से एक बाल्टी यात्रा (वाटर बकेट वाक) का आयोजन किया गया, जिसमें इमारात के ५,००० निवासियों ने हिस्सा लिया। २० नवंबर का दिन विशेष रूप से इस यात्रा के लिए इसलिए भी चुना गया क्यों कि यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय बाल दिवस भी है। दुबई केयर्स की स्थापना सितंबर २००७ को मोहम्मद बिन राशिद अल मख्तूम ने की थी जो दुबई के शासक और इमारात के उपराष्ट्रपति व प्रधानमंत्री हैं। इस संस्था का उद्देश्य विकासशील देशों के बच्चों में शिक्षा का प्रसार करना है। संस्था का कहना है कि विकासशील देशों में पीने के पानी की कमी के कारण बहुत से बच्चे या तो शिक्षा प्राप्त करने नहीं जाते या आए दिन विद्यालय से अनुपस्थित रहते हैं।

जुमेरा के सागर तट से लगे तीन किलोमीटर लंबे मार्ग पर आयोजित इस बाल्टी पदयात्रा में इमारात में बसे सभी देशों और आयुवर्ख के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों में उत्साह दिखाई दिया। ३० दिरहम की छोटी सी पंजीकरण फीस के बदले हर प्रतिभागी को दुबई केयर्स टी-शर्ट, बाल्टी और एक पानी की बोतल प्रदान की गई थी। इनको लेकर पदयात्रा करते हुए प्रतिभागियों को इस बात का हल्का सा अनुभव अवश्य हुआ होगा कि पानी ढोकर तीन किलोमीटर तक चलना कितनी बड़ी मुसीबत का काम है। जबकि आँकड़े कहते हैं कि विकासशील देशों में प्रत्येक बच्चा पीने के साफ़ पानी को लाने के लिए औसतन ६ किलोमीटर रोज़ पैदल चलता है। इस कवायद में उसका सारा समय और श्रम परिवार के साथ, पीने और रसोई के पानी को इकट्ठा करने में लगा रहता है और शिक्षा व विकास के अवसर हाथ से निकल जाते हैं। विकासशील देशों में हर वर्ष बच्चों के लगभग साढ़े चार करोड़ स्कूलदिवसों में सिर्फ इसलिए अनुपस्थिति लगती है कि उन्हें पीने के पानी की व्यवस्था में माता पिता का हाथ बटाना था। यही नहीं विश्व में हर रोज़ हर १५ सेकेंड पर एक बच्चे की मौत गंदा पानी पीने के कारण होती है। पंजीकरण के इन तीस दिरहमों की राशि एक साल तक एक बच्चे की पानी की आवश्यकता को पूरा कर सकेगी, इस प्रकार इस पदयात्रा द्वारा ५००० बच्चों के लिए एक वर्ष तक स्वच्छ पानी का प्रबंध सुनिश्चित किया गया।

दुबई विद्युत एवं जल निगम ने इस आयोजन के कार्यान्वयन में प्रमुख भूमिका निभाई, इसके आयोजनकर्ता थे दुबई म्युनिसिपैलिटी तथा दुबई पुलिस व आर टी ए तथा इसको सफल और अविस्मरणीय बनाने में पेप्सी और द फ़र्स्ट ग्रुप ने सहयोग किया।

रविवार, 13 दिसंबर 2009

अपनी तो पाठशाला

आजकल मैंने फिर से पाठशाला का रुख़ किया है। अब यह न पूछें कि क्या पढ़ा जा रहा है क्यों कि जो कुछ पढ़ा जा रहा है उसमें खास कुछ समझ में नहीं आ रहा है। पढ़ने का वातावरण ही दिखाई नहीं देता। लगता है पूरा पाठ्यक्रम समाप्त होने तक यह मौसम बदलने वाला नहीं।

कुछ समझ में नहीं आ रहा है तो फिर पाठशाला जाने का फ़ायदा?
अरे, पैसे चुकाए हैं तीस पाठों के, वो तो वसूलने ही हैं और फिर ऐसी आरामगाहनुमा पाठशाला भारत में सात जनम नहीं मिलने वाली। यह समझकर मुझे तो सातों जन्मों के ऐश इसी पाठशाला में पूरे करने हैं। शाम को आराम से कपड़े बदलो, जो मन आए पहनो और निकल पड़ो। पाठशाला के शानदार भवन में प्रवेश करो। आलीशान बरामदे में लगी कोल्ड ड्रिंक की मशीन से एक बीब्सी निकालो और हाथ में लिए हुए कक्षा में चले जाओ। छोटी छोटी कक्षाएँ जिसमें मुश्किल से १० कुर्सी मेज़ें होती हैं। बाहर का तापमान १५ डिग्री सेल्सियस होने के बावजूद स्प्लिट एसी फर्राटे से चल रहा होता है। मन करे कक्षा में बैठो या फिर बरामदे में शाम की सैर का कोटा पूरा करो- कोई रोकटोक नहीं। कक्षा में अध्यापक से पहले पहुँचने की ज़रूरत नहीं। वह आ जाए तो भी बीब्सी फेंकने की ज़रूरत नहीं। मेज़ पर रख लो आराम से पीते रहो और खाली हो जाए तो वहीं छोड़कर चल दो। अध्यापक फेंक देगा।

सबसे मज़े की बात यह कि वह कक्षा में आकर अपना परिचय देगा, "मेरा नाम वाइल है और मैं आपको पहला पाठ पढ़ाने आया हूँ।"
बेचारा २५-२६ साल का अध्यापक, पढ़ने वाले ५० साल के। आश्चर्य की बात यह कि भारत से बिलकुल विपरीत यहाँ विद्यार्थी अध्यापक का नाम लेकर पुकारते हैं और अध्यापक विद्यार्थियों के संबोधित करते हुए कहता है मैम, सर...
और भी मज़े की बात ज्यादातर लोग अपना पाठ याद नहीं करते। इसके बावजूद न कोई शर्म, न हीन भावना, न किसी का डर। एक नमूना देखें-
विद्यार्थी- "ओह वाइल, कल का पाठ तो बहुत ही कठिन था मुझे ठीक से याद भी नहीं हुआ।"
वाइल- "मुझे मालूम है सर, इसीलिए तो मैं आपकी मदद करने आया हूँ। एक पाठ को याद करने के लिए तीन दिन आपको दिए जाते हैं अभी तो एक ही दिन गुज़रा है मुझे पूरी आशा है कि कल तक आपको सब कुछ याद हो जाएगा।"
विद्यार्थी- "हाँ, हाँ, तुम ठीक कहते हो वाइल, मेरे प्यारे बच्चे, हो जाएगा याद मुझे।"

अगर ऐसे आशावादी अध्यापक मिल जाएँ जो प्यारे भी हों और बच्चे भी तो फिर कौन पाठशाला से भागने की सोचेगा?

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

दीवार में सेंध: अ-होल-इन-द-वॉल


दीवार को भारतीय संस्कृति में विशेष श्रद्धा की दृष्टि से नहीं देखा जाता- कहीं यह रुकावट की प्रतीक है तो कहीं बँटवारे की लेकिन जहाँ बात आन, बान और शान की हो वहाँ यह अपने बंदों को महान बनाने में भी पीछे नहीं रहती। अमिताभ बच्चन और चीन दोनों के इतिहास में दीवार का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। दोनों ही दीवारे पुरानी और प्रसिद्ध हैं। जहाँ अमिताभ बच्चन की दीवार ने उन्हें लोकप्रियता की पराकाष्ठा तक पहुँचाया वहीं चीन की दीवार ने उसे विश्व प्रसिद्ध बनाया।

दीवार से प्रसिद्धि पाने वाले कुछ गिने चुने लोगों की भीड़ में अब हांगकांग की कैंटीन शृंखला "अ-होल-इन-द-वॉल" का नाम भी आ जुड़ा है। यों तो इसके रेस्त्राँ बैंकाक से लेकर मेक्सिको तक हर जगह मिल जाते हैं लेकिन शंघाई स्थित इसके "टिम हो वान" रेस्त्राँ की प्रसिद्धि सस्ते भोजन के कारण है। मिशेलिन गाइड के निदेशक जीन लुक नरेट के अनुसार इस वर्ष यह रेस्त्राँ ऐसे मिशेलिन स्टार प्राप्त भोजनालयों में सबसे सस्ता है, जिनमें स्थानीय व्यंजनों की प्रमाणिकता का समुचित ध्यान रखा जाता है। बीस लोगों के बैठने की क्षमतावाले इस छोटे से रेस्त्रां की "डिम सम बास्केट" पौने पाँच दिरहम (लगभग पचास रुपये) की है। डिम सम बास्केट में अपनी पसंद के व्यंजन चुनने की सुविधा होती हैं। मोटे तौर पर इसे मैक्डॉनेल मील का एक रूप समझा जा सकता है।

मिशेलिन स्टार, मिशेलिन पर्यटन गाइड नामक संस्था द्वारा स्थापित स्तरों के अनुसार दिए जाते हैं। यह संस्था सन १९०० से पर्यटकों के लिए उनकी सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए प्रति वर्ष एक पर्यटन निर्देशिका का प्रकाशन भी करती है जिसमें महत्त्वपूर्ण होटलों, गैराजों और दर्शनीय स्थलों आदि की जानकारी दी जाती है।

"टिम हो वान" के मालिक मैक पुई गोर यह भोजनालय खोलने से पहले नगर के प्रसिद्ध "फ़ोर सीज़न्स होटल" के तीन सितारा रेस्त्रां "लुंग किंग हीन" में काम कर चुके हैं। आर्थिक संकट के इस दौर में जब उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया तो उन्होंने सस्ते खाने के इस केन्द्र का विकास किया। आज इसकी लोकप्रियता इतनी है कि दोपहर और रात के भोजन के समय ग्राहकों को अपनी बारी के लिए एक-एक घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मिशेलिन गाइड में कहा गया है कि इस रेस्त्रां ने "मांग कॉक" की सूनी गली को परंपरिक चीनी भोजन के शौकीन ग्राहकों की चहल-पहले से भर दिया है।

यह सब लिखते हुए मुझे हरियाणा की चौड़ी सड़कों के दोनो ओर खूब खुली जगह छोड़कर बनाए गए बड़े बड़े ढाबे याद आते हैं, जिनसे उड़ती मसालेदार सुगंध, परोसे जाते स्वादिष्ट व्यंजन और उचित मूल्य का जवाब पूरे संसार में नहीं। उन्हें किसी मिशेलिन स्टार की ज़रूरत नहीं... और हाँ छेद वाली दीवार की ज़रूरत भी नहीं।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

एक मरुस्थल यात्रा

यहाँ एक कहावत है- अगर मरुस्थल में कभी रास्ता भूल जाओ तो ऊँट के पदचिह्नों का अनुसरण करो। जो मरुस्थल को पहचानते हैं वे जानते हैं कि ऊँट रेत के टीलों को चढ़कर पार नहीं करते उनके किनारे से गुज़रते हैं और इस प्रकार गाड़ी चलाने से रेत में फँसने का खतरा कम हो जाता है।

मरुस्थल को इमारात में सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है इसलिए इसके रखरखाव और संरक्षण पर सरकार विशेष ध्यान देती है। दुबई-अलेन हाईवे पर दुबई से ४५ मिनट आगे मरगम का संरक्षित मरुस्थल इसका जीता-जागता प्रमाण है। २२५ वर्ग किलोमीटर में फैले इस मरुस्थल का ९० किलोमीटर लंबा छोर हाईवे के साथ साथ चलता है। पर्यटकों के लिए इसमें विहार के सख्त नियम बनाए गए हैं। फ़ोर व्हील ड्राइव की गति सीमा ४० किमी प्रतिघंटा निर्धारित की गई है और हर गाड़ी में बैक ट्रैक प्रणाली का होना आवश्यक है ताकि निगरानी दस्ता हर गाड़ी की खबर रख सके। मरुस्थल में रास्ते भी निश्चित कर दिये गए हैं। इसके दो लाभ होते हैं एक तो पर्यटकों के भटकने का डर नहीं रहता दूसरे यहाँ उगने वाली वनस्पतियों और निवास करने वाले जीवों की भी सुरक्षा होती है। मरगम में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती अनेक वनस्पतियों और जीवों का संरक्षण किया गया हैं, जिनमें अरबी हिरनों की दो प्रजातियाँ- पीले रंग के गज़ेले और काले धूसर ओरिक्स प्रमुख हैं। यहाँ फैला रेत का सागर लाल रंग का है, यह लाल रंग आयरन ऑक्साइड के कारण आता है।

मरुस्थल में गाड़ी चलाना, कभी दूर से किसी हिरन के दिख जाने पर कैमरे को दूरबीन की तरह इस्तेमाल करना और देर तक रेत में समाते हुए सूरज को देखना यहाँ के विशेष आकर्षण हैं। सैंड बैशिंग और सैंड स्की साहसिक खेलों के शौकीनों के लिए काफ़ी रोचक सिद्ध होते हैं। जो कुछ भी न करना चाहे वह भी ऊँट की सवारी, अरबी मेंहदी, अरबी तंबू में जीवंत प्राचीन संस्कृति के दृश्यों, नृत्य-संगीत और खाने पीने का आनंद उठा सकता है। मरगम के भीतर एक बड़े रेत के टीले की तलहटी में बसा 'अल सहरा' सुस्ताने की बढ़िया जगह है। जगमगाती लालटेनों से घिरे इस टुकड़े पर चाय-कॉफी, अरबी रात्रिभोज, बिदोइन तंबू, बार और शीशे (एक तरह का हुक्का) की व्यवस्था सैर की थकान के बाद अच्छी लगती है। अरबी खाने का आरंभ फ़िलाफ़िल और शावरमा से होता है। इसके बाद शाकाहारी व मांसाहारी दोनो ही प्रकार के तले, भुने और शोरबेदार व्यंजनों के साथ अरबी रोटियाँ, सलाद, हमूस और पुलाव परोसे जाते हैं। भोजन का अंत फल, मिठाई और बकलावे (एक प्रकार की मिठाई) से होता है। रेगिस्तान की रात सितारों से जगमग होती है। इन्हें ठीक से देखने के लिए अधिकतर लालटेनें बुझा दी जाती हैं। तभी बेली नर्तकी का आगमन होता है जो अरबी संगीत, नृत्य और संस्कृति का विशेष अंग है।

इस देश में मरुस्थल से जुड़ी एक कहावत और भी है- अगर आप मरुस्थल से घर जा रहे हैं तो घर में उसकी अगवानी के लिए पहले से तैयार रहें क्यों कि आपके जूतों और जेबों में वह आपके साथ घर पहुँचता है। कुछ लोगों को इस प्रकार मरुस्थल का घर तक पीछा करना अच्छा नहीं लगता, जबकि कुछ लोग घर आई रेत को एक प्याले में इकट्ठा कर के यात्रा के स्मृतिचिह्न की तरह सहेजते हैं।

शनिवार, 21 नवंबर 2009

मुफ्त का सामान


मुफ्त का सामान मुफ़्त की मुसीबतें लेकर आता है। आप चाहें न चाहें वह आपकी ट्रॉली में रखा जाता है, डिकी में उतारा जाता है और घर में जमाया जाता है। फ्लू या सर्दी बुखार बदलते मौसम का मुफ़्त उपहार है। हम लेना नहीं चाहते लेकिन कहीं न कहीं से मिल ही जाता है। नए अध्ययनों में पता लगा है कि खरीदारी करने वाली ट्रॉलियों के हत्थे, सार्वजनिक कंप्यूटरों के की-बोर्ड और कारों के स्टीयरिंग व्हील मुफ़्त में सर्दी बुखार प्रदान करने वालों में सबसे आगे हैं। आपने इन्हें छुआ और आपकी हुई मुसीबत। लो भई, हम तो समझते थे कि सर्दी-बुखार के विषाणु हवा में होते हैं लेकिन यहाँ तो विलायती लोग छुआछूत की बात करने लगे।

लंदन में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि सर्दी बुखार को अपने ऊपर लादकर कार चलाने वाले लोग सड़क पर उतने ही खतरनाक साबित होते हैं जितने दो गिलास मदिरापान किए हुए लोग। लॉयेड्स टीबीएस इंश्योरेंस कंपनी के लिए किए एक सर्वेक्षण में शोधकर्ताओं ने पाया कि तेज़ सर्दी बुखार से ग्रस्त ड्राइवर किसी भी ख़तरे पर प्रतिक्रिया करने में ११ प्रतिशत अधिक समय लेते हैं। इसका मतलब यह कि अगर कार की गति ६० किमी प्रति घंटा है तो ब्रेक लगाने से पहले कार २ मीटर आगे निकल जाएगी। सर्वेक्षण में सहयोग करने वाले डॉ. डॉन हार्पर का कहना है कि ऐसा इसलिए भी होता है कि सर्दी बुखार की अधिकतर दवाईयों में नशीले पदार्थ या नींद की दवा मिली होती है। शोध में यह बात भी पता चली कि सर्दी बुखार से पीड़ित अधिकतर लोग सर्दी बुखार में गाड़ी चलने के इन ख़तरों को ठीक से नहीं जानते हैं। अज्ञान का पर्दा आँखों पर डाले ड्राइविंग करते रहते हैं और अपने साथ दूसरों की जान के भी दुश्मन बनने का खतरा मोल ले लेते हैं।

चलो मान लिया कि सर्वेक्षण में कही गई बातें शत प्रतिशत सही हैं लेकिन कुल मिलाकर सवाल तो यह है कि मुफ़्त के फ़्लू और सड़क दुर्घटनाओं से बचने के लिए आप क्या करेंगे? खरीदारी बंद कर देंगे, कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं करेंगे, कार ड्राइव नहीं करेंगे या फिर सर्दी बुखार की दवाई ही नहीं खाएँगे?