गुरुवार, 31 जनवरी 2008

उदासियों के पत्ते


वसंत के तिकड़ी गीतों के क्रम में आज हाज़िर है दूसरा गीत। शायद इस रूप में यह गीत नहीं सिर्फ कविता है...इसे लेकर हीरा चड्ढा के पास गई थी। वे आकाशवाणी इलाहाबाद में प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव थीं। नए लिखने वालों को सिखाना समझाना बड़े प्यार से करतीं। हमारी रचनाएँ प्रसारित तो करती ही थीं। गीत देखकर बोलीं, "पूर्णिमा तुम्हारा यह गीत तो अच्छा है पर जैसे जैसे आगे बढ़ता गया है अपने छंद से भटकता गया है।" उस समय मुझे लगा कि यह ऐसे ही ठीक है पर अब समझती हूँ कि उन्होंने क्या कहा था। बहुत सी बातें बहुत देर में समझ आती हैं। अगर यह अगले कविता संग्रह में शामिल हुआ तो सुधार दूँगी। हीरा दीदी आज इस दुनिया में नहीं हैं पर उनकी याद सदा रहेगी। उनके साथ ही याद आ रहे हैं निर्मला ठाकुर और विजय बोस जिन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ना सिखाया। शांति मेहरोत्रा, विपिन शर्मा, आशा ब्राउन...प्यारे इलाहाबाद के प्यारे दिन...

फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते

पीली धूप खिंची खिंची सी
खड़ी रही देहरी पर
भीतर आए तो कैसे
लगे भौंकने आंगन में
एकाकीपन के कुत्ते
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते

सूरज के सात घोड़ों वाला रथ
आया ही नहीं
अभी तलक सोया है सारथी
मुँह ढक कर
घरवाली उषा की उनींदी आँखें
न जगाती हैं सारथी को
न देखती हैं देहरी पर
कैसे होगी सुबह?

अरे, कोई है? कोई है?
बाहर से चिल्लाता है वसंत
लॉन में खिलखिलाती है पीली सरसों
अब यहाँ कोई नहीं
कहीं और चले गये
खुशियों के जत्थे
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते !

आज न फूल हैं न तितलियाँ न पतंगे
न रंग न झरने न गीत
चिड़ियां भी तो आती नहीं
कभी हमीं फूल थे हम ही तितली
हमीं पतंगें, रंग और झरने
हमीं गुनगुनाते थे चिड़ियों से यहाँ-वहाँ

अब तो सिर्फ
दिन बीतते हैं
धीरे धीरे
चुपचाप खिड़की में से
हिला हिला कर हाथ
बुलाता है अमलतास
चुप हैं दीवारों पर टेसू के ठप्पे
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते।

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

आवारा वसंत


पिछले दो दिनों से सर्दी की कड़की कम है, पंचांग कहता है कि वसंत पंचमी 11 फ़रवरी को है, यानी समय आगया वसंत की कविताओं की खोज का। पुरानी फ़ाइलें पलटती हूँ... मार्च 1979 की 3 कविताएँ हैं वसंत पर। बदलते मौसम और उनसे जुड़े पर्व जीवन में उल्लास भरते हैं लेकिन इनमें थोड़ी उदासी है। लगभग 30 वर्ष पुरानी इन तीन कविताओं में से एक आज पोस्ट कर रही हूँ। इसमें 'तरह' शब्द की वर्तनी को बदल कर 'तरहा' किया गया है। दरअसल कविता जब दिमाग में उपजी तो उसी उच्चारण के साथ जन्मी थी। लगा कि पाठक तक वह बात पहुँचनी चाहिए। बोलते समय हम भी कभी कभी 'तरह' को 'तरहा' कहते हैं। कहते हैं ना? कोशिश करूँगी कि बाकी दो कविताएँ भी वसंत के जाने से पहले यहाँ रख सकूँ।

हाँ अनुभूति का 11 फ़रवरी का अंक वसंत विशेषांक होगा। आप सभी की वसंत कविताओं का स्वागत है। वसंत का कोई भी रंग हो चलेगा, बस कविता 31 जनवरी की रात 12 बजे तक ज़रूर भेज दें पता है teamanu(at)anubhuti-hindi.org. आप फ़िलहाल आवारा वसंत का आनंद लें...मैं आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा में हूँ।

अबकी साल
वसंत यों ही आवारा घूमा
मेरी तरहा

कमरे से बगिया तक
बगिया से चौके में
चौके की खिड़की से
चमकीली नदिया तक
पटरी पटरी
दूर बहुत शिव की बटिया तक
मेरे ही संग ठोकर ठोकर रक्त रंगे ढाक के पावों
मौसम भी बंजारा घूमा
मेरी तरहा।

अबकी साल
वसंत यों ही आवारा घूमा
मेरी तरहा

पटरी से पर्वत तक
पर्वत से मंदिर में
अष्टभुजा घाटी से
संतों की कुटिया तक
सीढ़ी सीढ़ी
धुआँ धुआँ सीली आँखों में
पथ पर खुदे हुए नामों से मन के मिटे हुए नामों तक
हर इक पल रतनारा घूमा
मेरी तरहा

अबकी साल
वसंत यों ही आवारा घूमा
मेरी तरहा

मंगलवार, 15 जनवरी 2008

बूँदों में बसता है कोई

पिछले तीन-चार दिनों से रिमझिम जारी है। धूप का एकाध छींटा ही दिखाई दिया है बीच में, शारजाह में बारिश के नाम पर साल का यही एक हफ़्ता होता है। बस इसी हफ़्ते में साल भर का सावन जीना हो तो कैसे जिएँगे? एक पुराना गीत हाज़िर है, दुनिया भर में छाई सर्दी के मौसम में बारिश के छींटे का यह तड़का, आशा है मज़ा देगा। जावा एपलेट से परहेज़ ना हो तो यहाँ देखें अभिव्यक्ति के शुरू के दिनों में उपहार स्तंभ के लिए बनाया था।

झलमिल झिलमिल
रिमझिम रिमझिम
सपनों के संग
हिलमिल हिलमिल
बूँदों में बसता है कोई
आहट में सजता है कोई
धीरे धीरे इस खिड़की से
मेरी सांसों के बिस्तर पर
खुशबू सा कसता है कोई

हौले हौले
डगमग डोले
मन संयम के
कंगन खोले
कलियों सा हँसता है कोई
मौसम सा रचता है कोई
रातों की कोरी चादर पर
फिर सरोद के तन्मय तन्मय
तारों सा बजता है कोई

टपटिप टुप टुप
लुकछिप गुपचुप
मन मंदिर के
आंगन में रुक
कहने को छिपता है कोई
पर फिर भी दिखता है कोई
वाष्प बुझे धुंधले कांचों पर
साम ऋचा सा मद्धम मद्धम
यादों को लिखता है कोई

वही कहानी
दोहराता है
बार बार
आता जाता है
मस्ताना मादल है कोई
आँखों का काजल है कोई
बारिश को अंजुरी में भर कर
ढूँढ रहा वन उपवन में घर
सावन का बादल है कोई

झलमिल झिलमिल
रिमझिम रिमझिम
सपनों के संग
हिलमिल हिलमिल
बूँदों में बसता है कोई

मंगलवार, 8 जनवरी 2008

नया साल मंगलमय हो


नया साल मंगलमय हो

जो सपने हों सब अपने हों
हर मेहनत के
फल दुगने हों
अक्षत रोली तीज या होली
सा जीवन सुखमय हो
नया साल मंगलमय हो।

मित्रों की सदभावनाएँ हों
मन में ऊँची
कामनाएँ हों
गीत की धुन-सा किसी शगुन-सा
घर आँगन मधुमय हो
नया साल मंगलमय हो

हों पूरी सारी आशाएँ
साम स्वस्ति से
सजें दिशाएँ
सीप में मोती दीप में ज्योति
जैसा सुफल समय हो
नया साल मंगलमय हो

सोमवार, 17 दिसंबर 2007

एक और साल

गुज़रते हुए 2007 के अब कुछ ही दिन शेष हैं, तो आज का यह गीत बीतते हुए साल के नाम

लो बीत चला एक और साल

अपनों की प्रीत निभाता-सा
कुछ चमक–दमक बिखराता-सा
कुछ बारूदों में उड़ता-सा
कुछ गलियारों में कुढ़ता-सा
हम पात-पात वह डाल-डाल
लो बीत चला एक और साल

कुछ नारों में खोया-खोया
कुछ दुर्घटनाओं में रोया
कुछ गुमसुम और उदास-सा
दो पल हँसने को प्यासा-सा
थोड़ी खुशियाँ ज़्यादा मलाल
लो बीत चला एक और साल

भूकंपों में घबराया-सा
कुछ बेसुध लुटा लुटाया-सा
घटता ग़रीब के दामन-सा
फटता आकाश दावानल-सा
कुछ फूल बिछा कुछ दीप बाल
लो बीत चला एक और साल

कुछ शहर-शहर चिल्लाता-सा
कुछ गाँव-गाँव में गाता-सा
कुछ कहता कुछ समझाता-सा
अपनी बेबसी बताता-सा
भीगी आँखें हिलता रूमाल
लो बीत चला एक और साल

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

माया में मन

आज एक नया गीत कुछ दार्शनिक मनःस्थिति में

दिन भर गठरी
कौन रखाए
माया में मन कौन रमाए

दुनिया ये आनी जानी है
ज्ञानी कहते हैं फ़ानी है
चलाचली का-
खेला है तो
जग में डेरा कौन बनाए
माया में मन कौन रमाए

कुछ न जोड़े संत फ़कीरा
बेघर फिरती रानी मीरा
जिस समरिधि में-
इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए
माया में मन कौन रमाए

मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

तारों की चूनर


आज का दिन अच्छा रहा। आज के ही दिन डॉ सत्यभूषण वर्मा का जन्म हुआ था 1932 में, वे हिन्दी हाइकु के पितामह माने जाते हैं। उनके सम्मान में हिंदी हाइकु की दुनिया के लोग 4 दिसंबर को हिंदी हाइकु दिवस मनाते हैं। आज गाज़ियाबाद में इसी अवसर पर एक समारोह आयोजित किया गया और मेरी सहेली डॉ.भावना कुंअर के पहले हाइकु संग्रह का विमोचन भी हुआ।

भावना भारत में नहीं थीं। वे पिछले कई सालों से यूगांडा में हैं। अभी अभी एक मित्र के हाथों उन्हें प्रकाशित किताब की 5प्रतियाँ मिली हैं। उनसे मैसेंजर बात हुई, खूब खुश थीं। बिलकुल अभी किताब के साथ खिंचवाया हुआ एक फ़ोटो भेजा उन्होंने। इस संग्रह की भूमिका लिखी है प्रसिद्ध हाइकुकार डॉ. जगदीश व्योम ने और भावना का परिचय मेरा लिखा हुआ है। वे पिछले कुछ सालों से अनुभूति के लिए नियमित लिखती रही हैं।

किताब बहुत सुंदर प्रकाशित हुई है। नाम है तारों की चूनर। हर पृष्ठ पर एक हाइकु और एक सुंदर स्केच है। मुखपृष्ठ पर का चित्र स्वयं भावना की कलाकृति है और अंदर के हाइकुओं पर आधारित चित्र जाने माने चित्रकार बी.लाल के हैं। इतनी कलात्मक पुस्तक के लिए भावना को ढेर सी बधाई और संग्रह की सफलता के लिए अनेक शुभकामनाएँ :)

रविवार, 25 नवंबर 2007

मेरा पता

आज फिर एक पुराना गीत। इसके छंद लंबे हैं, शायद इतना बहाव नहीं, तरलता नहीं जो गीत के लिए चाहिए पर मेरे कुछ पाठकों को यह काफ़ी पसंद आया था। अगर इसको पढ़ते हुए अपनी या किसी और कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आएँ तो टिप्पणी में लिखना न भूलें।

सुबह से शाम से पूछो
नगर से गाम से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

कि इतना भी कहीं बेनाम
अपना नाम तो नहीं
अगर कोई ढूँढना चाहे तो
मुश्किल काम भी नहीं
कि अब तो बादलों को भी पता है
नाम हर घर का
सफ़ों पर हर जगह टंकित हुआ है
हर गली हल्का
कि अब दुनिया सिमट कर
खिड़कियों में बंद साँकल सी
ज़रा पर्दा हिला और खुल गयी
एक मंद आहट सी

सुगढ़ दीवार से पूछो
खिड़कियों द्वार से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

ये माना लोग आपस में
ज़रा अब बोलते कम हैं
दिलों के राज़ भी आँखों में भर कर
खोलते कम हैं
ज़िन्दगी़ भीड़ है हर ओर
आती और जाती सी
खुदाया भीड़ में हर ओर
छायी है उदासी सी
मगर तुम बात कर पाओ
तो कोई तो रूकेगा ही
पकड़ कर हाथ बैठा लो
तो घुटनों से झुकेगा ही

हाथ में हाथ ले पूछो
मोड़ के गाछ से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

फिज़ां में अब तलक अपनों की
हल्की सी हवा तो है
नहीं मंज़िल पता पर साथ
अपने कारवां तो है
वनस्पति में हरापन आज भी
मन को हरा करता
कि नभ भी लाल पीला रूप
दोनों वक्त है धरता
कि मौसम वक्त आने पर
बदलते हैं समय से ही
ज़रा सा धैर्य हो मन में
तो बनते हैं बिगड़ते भी

धैर्य धर आस से पूछो
मधुर वातास से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

जानेमन नाराज़ ना हो

पिछले दो दिन अभिव्यक्ति और अनुभूति का काफ़ी काम करना हुआ, सो यहाँ कुछ लिखा नहीं जा सका।
आज प्रस्तुत है एक बहुत पुराना गीत--

जानेमन नाराज़ ना हो

समय पाखी उड़ गया तो
भाग्य लेखा मिट गया तो
पोर पर
अनमोल ये पल
क्या पता
कल साथ ना हों
जानेमन नाराज़ ना हो


ज़िंदगी एक नीड़ सी है
हर तरफ़ एक भीड़ सी है
कल ये तिनके
ना हुए तो
हम न जाने
फिर कहाँ हों
जानेमन नाराज़ ना हो

बुधवार, 21 नवंबर 2007

आवारा दिन

आज एक पुराना गीत फिर से, शायद बहुत से मित्रों ने इसे पढ़ा नहीं होगा। यहाँ एक शब्द है भिनसारा। पूर्वी उत्तर प्रदेश में काफ़ी प्रचलित इस शब्द का अर्थ है बिलकुल सुबह या उषाकाल। शायद आम हिंदी में हर जगह इस शब्द का प्रयोग ना भी होता हो। तो आज यह गीत विशेष रूप से बचपन की यादों के नाम--

दिन कितने आवारा थे
गली गली और बस्ती बस्ती
अपने मन
इकतारा थे

माटी की
खुशबू में पलते
एक खुशी से
हर दुख छलते
बाड़ी, चौक, गली, अमराई
हर पत्थर गुरुद्वारा थे
हम सूरज
भिनसारा थे

किसने
बड़े ख़्वाब देखे थे
किसने
ताजमहल रेखे थे
माँ की गोद,
पिता का साया
घर घाटी चौबारा थे
हम घर का
उजियारा थे

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

ताड़ों की क्या बात

हिंदी प्रदेश के बहुत कम लोग जानते होंगे कि मध्यपूर्व में ताड़ों की छाया बड़ी ही शीतल होती है। यहाँ के रेगिस्तान में जहाँ कहीं मरूद्यान होता है वहाँ खजूर या ताड़ के ही पेड़ होते हैं। मौसम आने पर इन पेड़ों में से बहुत महीन सफ़ेद रंग के फूल झरते हैं जो उनकी छाया को अद्भुत सौंदर्य प्रदान करते हैं। तो आज की पोस्ट मेरे बगीचे के ताड़ों के नाम।

हाथ ऊपर को उठाए
मांगते सौगात
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

गहन ध्यान में लीन
हवा में
धीरे-धीरे हिलते
लंबे लंबे रेशे बिलकुल
जटा जूट से मिलते
निपट पुराना वल्कल पहने
संत पुरातन कोई न गहने

नभ तक ऊपर उठे हुए हैं
धरती के अभिजात
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

हरसिंगार से श्वेत
रात भर
धीरे धीरे झरते
वसुधा की श्यामल अलकों में
मोती चुनकर भरते
मंत्र सरीखे सर सर बजते
नवस्पंदन से नित सजते

मरुभूमि पर रखे हुए है
हरियाली का हाथ
निश्चल,
ताड़ों की क्या बात!

सोमवार, 19 नवंबर 2007

मनके

टुकड़े टुकड़े टूट जाएँगे
मन के मनके
दर्द हरा है

ताड़ों पर सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

गुलमोहर-सी जलती है
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी भटक रहीं सब
प्रेम कथाएँ
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है

शनिवार, 17 नवंबर 2007

शब्द

आज सुबह अचानक यतीश की कविता मिली - "शब्द" फिर उनकी कविता से रचना की एक प्रविष्टि पर पहुँची शीर्षक था शब्द ही ना समझे पर शब्दों को। पोस्टिंग से भी शानदार कमेंट पढ़ने को मिला, शास्त्री जे सी फिलिप का- "शब्द में है ताकत"... इस दौर से गुज़रते हुए अपनी भी एक कविता याद आई। सोचा शब्द को थोड़ा विस्तार दे दूँ...मेरी शब्द शीर्षक कविता 2001 में लिखी गई थी और यह मेरे कविता संग्रह वक्त के साथ में प्रकाशित हुई थी। यह ब्लॉग गीतों के लिए बनाया था पर ब्लॉगियों से प्रभावित होकर आज प्रस्तुत है कविता- शब्द

शब्द दोस्त हैं मेरे
अलग-अलग काम के लिए
अलग-अलग वक्त पर
सहयोग करते हुए
मेरी भाषा के शब्द
मेरे साथ बढ़ते हुए ।


मुश्किल में वही काम आए हैं
मेरे विश्वास पर खरे उतरते हुए
जब कोई साथ न दे
वही बने हैं मेरा संबल
मेरा धर्म,
मेरा ईश्वर
मेरा दर्शन
रात के अंधेरे से
सुबह के उजाले तक
कभी मेरी राह
कभी मेरी मंज़िल
कभी हमसफ़र

ठीक ही कहा है--
शब्द-ब्रह्म ।

कोई साथ में है

हवा में घुल रहा विश्वास
कोई साथ में है

धूप के दोने
दुपहरी भेजती है
छाँह सुख की
रोटियाँ सी सेंकती है
उड़ रही डालें
महक के छोड़ती उच्छवास
कोई साथ में है

बादलों की ओढ़नी
मन ओढ़ता है
एक घुँघरू
चूड़ियों में बोलता है
नाद अनहद का छिपाए
मोक्ष का विन्यास
कोई साथ में है

शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

सन्नाटों में आवाज़ें

सन्नाटों में भी आवाज़ें
खुशियों में भी दर्द छुपे हैं

शब्दों ने
कुछ और कहा है
अर्थों ने
कुछ और गुना है
समझ बूझकर चलने वाले
रस सागर में डूब चुके हैं

तोल-मोल है
बड़ा भाव है
दुनिया आडंबर
तनाव है
झूठे खड़े मंच पर ऊँचे
हाथ जोड़कर संत झुके हैं

जग की बस्ती
में दीवाने
ईश्वर अल्ला को
पहचाने
मन के सादे बाज़ारों में
हम यारों बेमोल बिके हैं

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

शहरों की मारामारी में

शहरों की मारामारी में
सारे मोल गए

सत्य अहिंसा दया धर्म
अवसरवादों ने लूटे
सरकारी दावे औ’ वादे
सारे निकले झूठे
भीड़ बहुत थी
अवसर थे कम
जगह बनाती रहीं कोहनियाँ
घुटने बोल गए

सड़कें गाड़ी महल अटारी
सभी झूठ से फाँसे
तिकड़म लील गई सब खुशियाँ
भीतर रहे उदासे
बेगाने दिल की
क्या जानें
अपनों से भी मन की पीड़ा
टालमटोल गए

बुधवार, 14 नवंबर 2007

कोयलिया बोली

शहर की हवाओं में
कैसी आवाज़ें हैं
लगता है
गाँवों में कोयलिया बोली

नीलापन हँसता है
तारों में
फँसता है
संध्या घर लौट रहा
इक पाखी तकता है
गगन की घटाओं में
कैसी रचनाएँ हैं
लगता है
धरती पर फगुनाई होली

सड़कों पर नीम झरी
मौसम की
उड़ी परी
नई पवन लाई है
मलमल की ये कथरी
धरती के आँचल में
हरियल मनुहारें हैं
लगता है
यादों ने कोई गाँठ खोली

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

रामभरोसे

अमन चैन के भरम पल रहे -
रामभरोसे!
कैसे-कैसे शहर जल रहे -
राम भरोसे!

जैसा चाहा बोया-काटा
दुनिया को मर्ज़ी से बाँटा
उसकी थाली अपना काँटा
इसको डाँटा उसको चाँटा
रामनाम की ओढ़ चदरिया
कैसे आदमज़ात छल रहे-
राम भरोसे!

दया धर्म नीलाम हो रहे
नफ़रत के ऐलान बो रहे
आँसू-आँसू गाल रो रहे
बारूदों के ढेर ढो रहे
जप कर माला विश्वशांति की
फिर भी जग के काम चल रहे-
राम भरोसे!

भाड़ में जाए रोटी दाना
अपनी डफली अपना गाना
लाख मुखौटा चढे भीड़ में
चेहरा लेकिन है पहचाना
जानबूझ कर क्यों प्रपंच में
प्रजातंत्र के हाथ जल रहे-
राम भरोसे!

सोमवार, 12 नवंबर 2007

ज़िदगी

चाहे बाँचो, चाहे पकड़ो, चाहे भीगो
एक आवाज़ है बस दिल से सुनी जाती है
कभी पन्ना, कभी खुशबू, कभी बादल
ज़िंदगी वक्त-सी टुकड़ों में उड़ी जाती है।

कभी अहसास-सी
बहती है नसों में हो कर
कभी उत्साह-सी
उड़ती है हर एक चेहरे पर
कभी बिल्ली की तरह
दुबकती है गोदी में
कभी तितली की तरह
हर ओर उड़ा करती है

चाहे गा लो, चाहे रंग लो, चाहे बालो
हर एक साँस में अनुरोध किए जाती है
कभी कविता, कभी चित्रक, कभी दीपक
आस की शक्ल में सपनों को सिये जाती है

कभी खिलती है
फूलों की तरह क्यारी में
कभी पत्तों की तरह
यों ही झरा करती है
कभी पत्थर की तरह
लगती है एक ठोकर-सी
कभी साये की तरह
साथ चला करती है

कभी सूरज, कभी बारिश, कभी सर्दी
आसमानों में कई रंग भरा करती है
कभी ये फूल, कभी पत्ता, कभी पत्थर
हर किसी रूप में अपनी-सी लगा करती है

रविवार, 11 नवंबर 2007

नाम लो मेरा

इन घनी अमराइयों में
इन हरी तराइयों में
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा

रौशनी का एक शीशा साफ़ कर दो
फिर अंधेरा चीर कर उस पार कर दो
भेद कर आकाश की तनहाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा

हर दिशा को एक सूरज दान कर दो
फिर उजालों में नई पहचान भर दो
फूँक कर इस हवा में शहनाइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा

बादलों में दर्द है कुछ टीसता है
सर्द आतिश में कहीं कुछ भीगता है
पार कर के हृदय की गहराइयों को
फिर पुकारो मुझे
नाम लो मेरा
कि गूँजे यह धरा