मंगलवार, 2 जून 2009
सभ्यताओं के संवाद - फेंकते हुए
आधुनिक सभ्यता ने हमें जो चीज़ सबसे ज्यादा सिखाई है वह है फेंकना। एक थे बाबा कबीर जो जतन से ओढ़ के चदरिया ज्यों की त्यों धर देते थे। आज न वैसी चदरिया है और न वैसे ओढ़नेवाले। आज की चदरिया है डिस्पोज़ेबल। इमारात के स्वास्थ्य केन्द्रों में देखें तो हर चिकित्सक की परीक्षण मेज़ के सिरहाने टिशू के रोल जैसे चादरों के रोल लगे हैं। नया मरीज़ आया रोल खींचा, नई चादर बिछा दी। मरीज़ गया, चादर फाड़ी, फेंक दी।
गनीमत है कि घर इससे बचे हुए हैं। वर्ना कथरियों का बहुरंगी सौंदर्य ऐतिहासिक हो जाता। जिसने राजस्थान या गुजरात देखा है वह कथरियों के सौंदर्य को कभी भूल नहीं सकता। माँ आनंदमयी का आश्रम याद आता है जहाँ जिस कुल्हड़ में खीर खाते थे उसी में पानी पीते थे, कुल्हड़ में गोरस लगा हो तो उसको फेंका नहीं जाता था। अब गोरस तो ऐतिहासिक हो चुका। सहवाग ब्रांडेड दूध पीते हैं और डब्बा फेंकते है। कार्यालय में देखें तो पानी के डिस्पेंसर पर प्लास्टिक के गिलास रखे हैं। एक बार खाना खाते समय दो बार पानी पीना हो तो दो गिलास फेंको।
फेंकने से रसोई में गंदे बर्तन जमा नहीं होते, फेंकने से रोग नहीं फैलते। फेंकना ही सफ़ाई है, फेंकना ही सौंदर्य है, फेंकना ही प्रतिष्ठा है। जतन का कोई महत्व नहीं। धोनी भी यही कहते हैं नया जमाना है नए कपड़े पहनो, पुराने फेंक दो (और नए खरीदने के लिए अपने माँ बाप के मेहनत से कमाए गए पैसे फेंक दो)। फेंकना सिर्फ पैसों और चीज़ों तक सीमित रहे वहाँ तक तो ठीक पर संस्कृति और मानवीय मूल्यों तक पहुँचे तो क्या होगा?
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14 टिप्पणियां:
फेंकने के बहाने आपने एक अच्छा बिषय उठाया है। सचमुच संस्कृति को तो फेंका नहीं जा सकता है। अच्छा लगा आलेख।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बात में दम तो है!
sanskriti ke liye achha sandesh hai. aur vichhar bhi achhe hain tatha lekhan shaili bhi achhi hai.
बहुत अच्छे विषय पर लिखा है आपने। हम पूरे दिनभर जाने-अनजाने में कितना क्या क्या फेंकते रहते हैं। पर वहीं तक सीमित रख कर और संस्कृति की धरोहर हमें सँभलकर रखनी होगी। लेख बहुत सराहनीय।
दीपिका जोशी 'संध्या'
अब धोनी के मुंह पर पैसे फैंक कर उससे जो चाहे बुलवा लो ...उन भाई साहब का क्या जाता है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
एक ओर यह फेकूं समाज है, तो दूसरी ओर पत्ते दोनों और पत्तलों पर खाने वाले लोग भी हैं, थैला लेकर बाजार जानेवाले लोग भी हैं, घर में कागज के हर टुकड़े को सहेजकर रखकर महीने के अंत में रद्दीवाले को बेचनेवाले भी हैं। हमारे देश में शीशा, धातु की चीजें, कागज, प्लास्टिक आदि का सबसे ज्यादा पुनश्चक्रण होता है।
अभी भी दक्षिण भारत के कई होटलों में खाना केले के पत्तों पर परोसा जाता है, जिन्हें फेंकने से पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होता।
मुझे मेरी मां की भी याद आती है। जब दूध बोतलों की जगह प्लास्टिक की थैलियों में आने लगा था, वे बड़े यत्न से दूध की इन कोथलियों को पानी से धोकर धूप में सुखाकर जमा करती थीं, ताकि उनसे बदबू न आए। फिर जब सौ-दो सौ इकट्ठे हो जाते तो रद्दीवाले को बेच देती थीं। कई बार, इन कोथलियों को किनारे से चीरकर, अपनी उषा सिलाई मशीन निकालकर उन्हें एक-दूसरे के साथ सी देती थीं और तीन-चार वर्ग फुट की चौरस चादर सी बनाती थीं और उनका उपयोग करूडाम (चावल से बनाया जानेवाला एक प्रकार का दक्षिण भारतीय व्यंजन जो धूप में सुखाकर बनाया जाता है)बनाने के लिए उपयोग करती थीं।
तो इस तरह के संस्कार भी हमें मिले हुए हैं। मामला चयन का है, हम इसे चुनते हैं या उसे।
लगता है, जैसे-जैसे समृद्धि बढ़ती है, हम अधिक फेंकू हो जाते हैं। अभी भी हमारे कई मध्यमवर्गीय घरों में चीजों को संभालकर उपयोग करने की प्रवृत्ति प्रबल है। पर अमीर घरों में यह देखने में नहीं आती। वहां चीजों को फेंकर नई ले आना, चाहे वह कार हो या वस्त्र या घर ही, अधिक सुविधाजनक प्रतीत होता है।
मैं अब भी पेंसिल छोटी हो जाने पर उसे चाकू से चीरकर अंदर के लेड को निकालकर उसे पेन-पेंसिल में डालकर उपयोग करता हूं, लेकिन मेरी ही बेटियां पेंसिल को हर दो मिनट में छीलकर दिन में दो तीन पेंसिलों को खपा डालती हैं।
इसे क्या कहें? जमाने का अंतर?
main shyamal ji se sahmat hoon par kitana achha hota ki yadi hum apne samaaj se tamaam kuritiyon reevajon aur buraiyon ko nikaal feinkte ! kyon achhi kalpana hai naa kaash ki ye sach ho paati :)
बहुत अच्छा लिखा है आपने । आपका शब्द संसार भाव, विचार और अभिव्यिक्ति के स्तर पर काफी प्रभावित करता है ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-फेल होने पर खत्म नहीं हो जाती जिंदगी-समय हो तो पढ़ें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
poornimaa jee..kamaal hai dekhne kaa ye najaria bhee pasand aayaa..mujhe to ankokhaa angle laga....
प्रणाम पूर्णिमा जी
अच्छे लेख के लिए धन्यवाद
और ये भी ध्यान रखियेगा कि हम फैंक नहीं रहे हैं।
सच में रोचक है।
Aapke vichar sochne ko majboor kerte hai....gahrai hai aapki baaton mein ....
बहुत ही सुंदर आलेख मैम...एकदम अनूठे विषय को छुआ आपने
...और कथरियों के बहुरंग की याद दिलाने को ढ़ेर सारा शुक्रिया
बहुत सुन्दर बात कही।विदेशों में संस्कृति को बचाने की ही आपाधापी है। वैसे मन्दी बहुत कुछ सिखा रही है फेंकने वालों को भी।
कितनी पुरानी चीजें हैं जिन्हें फेंका नही जा सकता इस फिंकाऊ संस्कृति में, मसलन मां बाप, जो यहां इस सुंदर साफ कल्चर में पूरी तरह मिसफिट हैं । अच्चा विषय उठाया है ।
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