मंगलवार, 3 मार्च 2009

बार्बी हुई पचास की


बार्बी डॉल इस साल अपना पचासवाँ जन्मदिन मना रही है। उसका जन्म १९५९ में हुआ था यानी लगभग मेरी हमउम्र है लेकिन मेरे या मेरी सहेलियों के खिलौनों में उस समय बार्बी कभी नहीं रही। जहाँ तक मुझे याद है भारत में बार्बी पहली बार १९७२ में आई। जल्दी ही वह भारतीय परिवारों का सदस्य बन गई यहाँ तक कि उसने साड़ी पहनना भी सीख लिया।

३ मार्च १९५९ को जब इसे लोकार्पित किया गया था, वह काले सफ़ेद रंग का स्विम सूट पहने धूप का चश्मा लगाए तैरने की मुद्रा में थी। इसको एक अमरीकी महिला उद्योगपति रूथ हान्डलर ने अपनी बेटी बार्बरा के नाम पर बनाया था और नाम रखा था- बार्बी मिलिसेंट राबर्ट। तब से अब तक मैटेल कंपनी विश्व के १५० देशों में १ अरब से अधिक बार्बी डॉल बेच चुकी हैं। प्रतिष्ठान का दावा है कि हर एक सेकेंड में तीन बार्बी डॉल बिक जाती हैं। कामकाजी बार्बी ११० व्यवसाय संभाल चुकी है। उसके पास पायलेट का लाइसेंस है, वह एस्ट्रोनॉट, नर्स, डेन्टिस्ट, फुटबॉल खिलाड़ी शेफ़, राजकुमारी और बैले नर्तकी रह चुकी है। इतने व्यस्त जीवन में भी उसने रोमांस के लिए समय निकाला और १९६१ में उसे पुरुष मित्र केन मिल गया। दोनो की जोड़ी खूब जमी लेकिन फरवरी २००४ में मैटेल कंपनी ने खबर दी कि बार्बी और केन अलग हो गए हैं। दो साल बाद दोनों गिले शिकवे भुलाकर फिर एक हो गए। बार्बी के पास बहुत से पालतू जानवर, घर और गाड़ियाँ हैं। उसके डिज़ायनर कपड़ों को डॉयर, रेल्फ़-लॉरेन, वरसेस और अरमानी जैसे विश्व के जाने-माने डिजायनरों ने बनाया है। यही नहीं उसके पास मोबाइल, लैपटॉप, बेहतरीन स्टेशनरी, कन्फ़ेक्शनरी, आभूषण और सौंदर्य प्रसाधनों का भी समृद्ध संग्रह है।


सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ती बार्बी को आलोचना का सामना भी करना पड़ा है। २००३ में सऊदी अरब में यह कहकर उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया कि उसके वस्त्र इस्लामी आदर्शों के अनुरूप नहीं है। लेकिन बार्बी ने हार नहीं मानी उसने फुल्ला नाम से हिजाब और अबाया पहन कर २००४ में मिस्र के बाज़ारों में प्रवेश किया। इन्हीं वस्त्रों में वह अध्यापिका बनी और डॉक्टर भी। उसका यह रूप मध्यपूर्व के देशों में खूब लोकप्रिय हुआ।

पचास साल के लंबे जीवन में बार्बी सदा 'डॉल' ही बनी रही गुड़िया कभी नहीं बन पाई। गुड़िया यानी वह नन्हीं बच्ची जिसे छोटी लड़कियाँ गोद में बच्चे की तरह खिलाती हैं। शायद बदलते समय के साथ छोटी लड़कियों को गुड़िया की नहीं बेबी-डॉल की ही ज़रूरत है या फिर पश्चिम का पूँजीवाद पूर्व की सांस्कृतिक परंपराओं पर बचपन से ही हावी होने लगा है?

10 टिप्‍पणियां:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हाय, उसकी स्किन से उसकी उम्र का पता ही नहीं चलता।

आवारा प्रेमी ने कहा…

आप उसकी हमउम्र हैं. पचास की.
शुभकामनाएं

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

पूर्णिमा जी
नमस्ते
बार्बी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए आभार.
आलेख अच्च्छा लगा
- विजय

संगीता पुरी ने कहा…

अच्‍छी जानकारी दी ... आपने बार्बी डॉल के बारे में ... 50 वर्ष पूरे करने के बावजूद वह बार्बी अभी तक डॉल ही है।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी ने कहा…

आपके जलरंग देख रही थी पूर्णिमा दी...आप कितना अच्छी पेंटिंग करती हैं।

हाँ ये बार्बी डाल का लेख भी अच्छा लगा दी।

Udan Tashtari ने कहा…

आभार बार्बी की जानकारी देने का.

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar ने कहा…

पूर्णिमा जी ,
बार्बी के बारे में इतनी रोचक जानकारी देने के लिए बधाई .अपने ये सही ही लिखा है की बार्बी हमेशा डॉल ही रही वो गुडिया नहीं बन पाई .हमारे देश में तो गुडिया बनाने ,गुडियों से खेलने ,उनका ब्याह रचाने की परंपरा ही रही है .लेकिन कहा गुम होती जा रही है वो परम्पराएँ ?क्या हम किसी तरह इन्हें संजो नहीं सकते ?
हेमंत कुमार

रंजन (Ranjan) ने कहा…

hum to jaanate hi nahi the baarbi ke baare me.. shukriya..

अनूप शुक्ल ने कहा…

सुन्दर पोस्ट! बार्बी के बारे में इत्ती जानकारी मिली।

Asha Joglekar ने कहा…

बार्बी का लेख (जानकारी) सही था । पर मुझे कभी ्पनी पोतियों के लिये भी वह अचछी नही लगी ।ये बात अलग है कि वे तो उसकी दीवानीं हैं ।