
वसंत के तिकड़ी गीतों के क्रम में आज हाज़िर है दूसरा गीत। शायद इस रूप में यह गीत नहीं सिर्फ कविता है...इसे लेकर हीरा चड्ढा के पास गई थी। वे आकाशवाणी इलाहाबाद में प्रोग्राम एग्ज़िक्यूटिव थीं। नए लिखने वालों को सिखाना समझाना बड़े प्यार से करतीं। हमारी रचनाएँ प्रसारित तो करती ही थीं। गीत देखकर बोलीं, "पूर्णिमा तुम्हारा यह गीत तो अच्छा है पर जैसे जैसे आगे बढ़ता गया है अपने छंद से भटकता गया है।" उस समय मुझे लगा कि यह ऐसे ही ठीक है पर अब समझती हूँ कि उन्होंने क्या कहा था। बहुत सी बातें बहुत देर में समझ आती हैं। अगर यह अगले कविता संग्रह में शामिल हुआ तो सुधार दूँगी। हीरा दीदी आज इस दुनिया में नहीं हैं पर उनकी याद सदा रहेगी। उनके साथ ही याद आ रहे हैं निर्मला ठाकुर और विजय बोस जिन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ना सिखाया। शांति मेहरोत्रा, विपिन शर्मा, आशा ब्राउन...प्यारे इलाहाबाद के प्यारे दिन...
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते
पीली धूप खिंची खिंची सी
खड़ी रही देहरी पर
भीतर आए तो कैसे
लगे भौंकने आंगन में
एकाकीपन के कुत्ते
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते
सूरज के सात घोड़ों वाला रथ
आया ही नहीं
अभी तलक सोया है सारथी
मुँह ढक कर
घरवाली उषा की उनींदी आँखें
न जगाती हैं सारथी को
न देखती हैं देहरी पर
कैसे होगी सुबह?
अरे, कोई है? कोई है?
बाहर से चिल्लाता है वसंत
लॉन में खिलखिलाती है पीली सरसों
अब यहाँ कोई नहीं
कहीं और चले गये
खुशियों के जत्थे
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते !
आज न फूल हैं न तितलियाँ न पतंगे
न रंग न झरने न गीत
चिड़ियां भी तो आती नहीं
कभी हमीं फूल थे हम ही तितली
हमीं पतंगें, रंग और झरने
हमीं गुनगुनाते थे चिड़ियों से यहाँ-वहाँ
अब तो सिर्फ
दिन बीतते हैं
धीरे धीरे
चुपचाप खिड़की में से
हिला हिला कर हाथ
बुलाता है अमलतास
चुप हैं दीवारों पर टेसू के ठप्पे
फिर हरे कर दिये वसंत ने
उदासियों के पत्ते।