आज एक नया गीत कुछ दार्शनिक मनःस्थिति में
दिन भर गठरी
कौन रखाए
माया में मन कौन रमाए
दुनिया ये आनी जानी है
ज्ञानी कहते हैं फ़ानी है
चलाचली का-
खेला है तो
जग में डेरा कौन बनाए
माया में मन कौन रमाए
कुछ न जोड़े संत फ़कीरा
बेघर फिरती रानी मीरा
जिस समरिधि में-
इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए
माया में मन कौन रमाए
9 टिप्पणियां:
ज्ञानी तो कहते ही रहते हैं पर मन मुआ यहीं रमता है। ज्ञान की गठरी से ज्यादा धन की गठरी लुभाती है ।
अच्छी कविता है।
बहुत बढ़िया...
पूर्णिमा जी
बहुत सुन्दर लगा गीत
-हरिहर झा
आपकी और ज्ञानीजी दोनों कि बातें सही पर क्या करें ये मन तो फ़िर भी माया (टिपण्णी) देने और लेने मे ही उलझा रहता है.
एक अच्छी कविता के लिए बधाई.
ये माया नगरी है ही ऐसी ...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है, बहुत-बहुत बधाई...
बहुत सुंदर, आपकी बात सही है, पर उम्र के जिस पडाव के लिये यह है वह आपके लिये अभी बहुत दूर है। अभी तो मायामय होने के दिन हैं ।
हा हा, खूब उपदेश मिले मुझे। यह उम्र की बात नहीं तबीयत की बात है कि आपका दृष्टिकोण कैसा है। वैसे कोई वानप्रस्थ तो नहीं लिया है पर राजा जनक की तरह माया में ही मुक्त हो जाने की कोशिश जारी रहती है। :) आया मज़ा तत्व का?
बहुत सुंदर शब्द और बहुत तत्त्व ज्ञान की बात. आप की लेखनी का जवाब नहीं. आप ही की कही बात जैसा मेरा एक शेर:
तुमने ये तम्बू गहरे क्यों गाड़ लिए हैं
चलने का गर अचानक फरमान हुआ तो?
नीरज
बहुत खूब नीरज साहब आप भी मस्त मौला निकले
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