जब हम छोटे थे तो समझते थे कि वसंत पंचमी से लेकर होली तक वसंत की ऋतु होती है। वसंत के दिन नए पीले कपड़े पहनते थे पीले मीठे चावल घर में बनते थे और दोपहर भर किसी पुष्प प्रदर्शनी में फूलों की दुनिया की सैर करते दिन कट जाता था। इस दिन के आते ही होली की तैयारियाँ भी शुरू हो जाती थीं। अनिर्वचनीय उल्लास सा भरा रहता था मन में। फ़िक्र होती थी तो सिर्फ़ एक- परीक्षाओं की। अब ये अनुभव पुरानी पीढ़ी के हो गए। वसंत कब आता है कब चला जाता है इसका पता नहीं चलता। वसंत पर निबंध भी तो नहीं लिखे जाते।
छोटी होती दुनिया के साथ लोग दूर दूर जा बसे हैं। अब इस कोने की ही बात करें- एक तो यहाँ इमारात में ऋतुओं का वैसा वैभिन्य नहीं जैसा उत्तर भारत में, दूसरे प्रकृति का जैसा सौंदर्य भारतीय परिवेश में पाया जाता है वह भी यहाँ स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक इसलिए नहीं क्यों कि जिस वस्तु में स्थानीय हवा, पानी और आत्मा का मेल नहीं होता वह चीज़ न तो लंबी चलती है न ही अपना प्रभाव छोड़ती है। हालैंड से खरीदे हुए फूल शारजाह के बगीचे में कितने दिन जीवित रह सकते हैं? मान लो वे एक मौसम जी भी गए तो उनमें बीज नहीं आते कि झर कर सो जाएँ और अगले साल मौसम बदलते ही नए अंकुर सिर उठाकर कहें- लो हम आ गए वसंत का संदेश लेकर। यहाँ मौसम को भी वस्तु की तरह खरीदकर घर में लाया जाता है, लेकिन बनावटी चीज़ों में कितनी भी चाभी भरी जाए वे सजीव नहीं हो जातीं। भारत की महानगरीय संरचना में भी बहुमंजिली इमारतों से पटे कंकरीट के जंगल में वसंत के गुजरने की जगह कहाँ बची है? एक ओर व्यस्तताओं का बवंडर है तो दूसरी ओर महत्त्वाकांक्षाओं की आँधी। और इससे जुड़े हम प्राकृतिक हवा, पानी, धूप से अलग होकर यांत्रिक दृष्टि से वातानुकूलित होने के चक्कर में अपने स्वाभाविक राग, रंग और मिठास वाली संस्कृति की खबर लेना भूल रहे हैं।
इसी स्वाभाविक राग, रंग और मिठास को सींचने तथा जन जन को मौसम से जोड़ने के लिए आते हैं अभिव्यक्ति और अनुभूति के वसंत विशेषांक। इसमें साहित्य और संस्कृति के बीज बोने का प्रयास किया गया हैं इस आशा के साथ कि वे हर साल झरेंगे और हर साल सिर उठाकर नवऋतु के आने का ऐलान करते रहेंगे, वसंत की हार्दिक शुभकामनाएँ!
छोटी होती दुनिया के साथ लोग दूर दूर जा बसे हैं। अब इस कोने की ही बात करें- एक तो यहाँ इमारात में ऋतुओं का वैसा वैभिन्य नहीं जैसा उत्तर भारत में, दूसरे प्रकृति का जैसा सौंदर्य भारतीय परिवेश में पाया जाता है वह भी यहाँ स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक इसलिए नहीं क्यों कि जिस वस्तु में स्थानीय हवा, पानी और आत्मा का मेल नहीं होता वह चीज़ न तो लंबी चलती है न ही अपना प्रभाव छोड़ती है। हालैंड से खरीदे हुए फूल शारजाह के बगीचे में कितने दिन जीवित रह सकते हैं? मान लो वे एक मौसम जी भी गए तो उनमें बीज नहीं आते कि झर कर सो जाएँ और अगले साल मौसम बदलते ही नए अंकुर सिर उठाकर कहें- लो हम आ गए वसंत का संदेश लेकर। यहाँ मौसम को भी वस्तु की तरह खरीदकर घर में लाया जाता है, लेकिन बनावटी चीज़ों में कितनी भी चाभी भरी जाए वे सजीव नहीं हो जातीं। भारत की महानगरीय संरचना में भी बहुमंजिली इमारतों से पटे कंकरीट के जंगल में वसंत के गुजरने की जगह कहाँ बची है? एक ओर व्यस्तताओं का बवंडर है तो दूसरी ओर महत्त्वाकांक्षाओं की आँधी। और इससे जुड़े हम प्राकृतिक हवा, पानी, धूप से अलग होकर यांत्रिक दृष्टि से वातानुकूलित होने के चक्कर में अपने स्वाभाविक राग, रंग और मिठास वाली संस्कृति की खबर लेना भूल रहे हैं।
इसी स्वाभाविक राग, रंग और मिठास को सींचने तथा जन जन को मौसम से जोड़ने के लिए आते हैं अभिव्यक्ति और अनुभूति के वसंत विशेषांक। इसमें साहित्य और संस्कृति के बीज बोने का प्रयास किया गया हैं इस आशा के साथ कि वे हर साल झरेंगे और हर साल सिर उठाकर नवऋतु के आने का ऐलान करते रहेंगे, वसंत की हार्दिक शुभकामनाएँ!
10 टिप्पणियां:
अब तो शहरों में मौसम पता ही नही चलता, हाँ जब गाँ को जाओं तो सरसों के पीले फ़ूल याद दिलाते है कि बसन्त आ गया। सुब्दर रचना और क्या कहूं
आपको भी वसंत की हार्दिक शुभकामनाएँ!
आपने बिल्कुल ठीक कहा कि वसंत पंचमी से होली तक वसंत माना जाता है और वह स्वाभाविक वसंत कहाँ? भागमभाग की आपाधापी में वसमत का होश किसे? किसी ने ठीक ही कहा है कि वसंत आता नहीं बल्कि उसे लाया जाता है।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
nice
पुर्णिमा जी नमस्ते ! आपको भी वसंत की हार्दिक शुभकामनायें .
सुन्दर आलेख हमारे वर्तमान को आशा की डोर के कोमल धागों से बांधता हुआ सा :)
- लावण्या
आपको भी मैम...बहुत-बहुत शुभकामनायें।
सही है जी - इण्टरनेट पर ही ऋतुयें दिखती हैं!
hmmmmmmmmm.....acchi aur pyaari baat...aapko bhi beete hue basant kee shubhkaamnaayen....!!
पूर्णिमा जी बधाई आज दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में यह पोस्ट राग रंग मिठास शीर्षक से प्रकाशित हुई है। स्कैनप्रति http://blogonprint.blogspot.com/2010/03/blog-post_8490.html पाबला जी के ब्लॉग पर है।
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