मंगलवार, 17 मार्च 2009
सुडोकु के साये में पेन्सिल और शार्पनर
सुबह सुबह ताज़े अख़बार के साथ के नए सुडोकु को भरने के लिए पेंसिल उठाई तो उसे नोकीला करने की ज़रूरत महसूस हुई। शार्पनर देखकर याद आया कि हमारे बचपन में ऐसे ढक्कन वाले शार्पनर नहीं होते थे, जिसमें पेंसिल की छीलन जमा हो जाए और बाद में इसे सुविधानुसार फेंका जा सके।
शायद तीसरे दर्जे की बात है १९६२-६३ का समय, कक्षा में पेंसिल छीलनी हो तो कोने में रखी रद्दी काग़ज़ की टोकरी तक जाने का नियम था। उस अवसर का इंतज़ार कमाल का होता था और उससे मिलने की खुशी का ठिकाना नहीं। कोई और विद्यार्थी पहले से वहाँ हो फिर तो कहना ही क्या! एक दो बातें भी हो जाती थीं और इस सबसे जो स्फूर्ति मिलती थी उसकी कोई सीमा न थी। यह सब याद आते ही चेहरे पर मुस्कान छा गई। आजकल के बच्चे उस खुशी के बारे में नहीं जानते हैं। उनके जीवन में बहुत सी नई खुशियाँ आ मिली हैं।
जानना चाहेंगे आज के सुडोकु का क्या अंत हुआ? आज का सुडोकु था चौथे नंबर का दुष्ट यानी डायबोलिक या इविल। बड़ा ही संभलकर खेला, धीरे धीरे कदम बढ़ाए, एक पूरा घंटा सूली पर चढ़ा दिया, पर... फँस ही गई अंतिम पंक्ति में, फिर हिम्मत छोड़ दी, सोचा ज़रूरी कामों को पूरा किया जाए। दुआ करें कि कल आने वाले सुडोकु में इतनी मारामारी ना हो।
यहाँ एक आसान सुडोकु है। दिल मचले तो कोशिश करें। वेब पर सुडोकु खेलने का मन करे तो यह जालस्थल सर्वोत्तम है।
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7 टिप्पणियां:
ये बात तो है. आजकल के बच्चों को नई खुशियाँ मिल गई हैं - जैसे कि मेकेनिकल पेंसिल. छीलने नुकीला बनाने का झंझट ही नहीं!
ओर जो सुन्दर सी रबर पीछे टंगी रहती है......उसे भूल गयी ..
बचपन की यादें बहुत खुशी देती हैं ... हमलोगों ने जो जीवन जीया है ... वह आज के बच्चों को कहां नसीब हो पाता है ... भले ही उनके लिए सुख सुविधा के अधिक साधन इकट्ठे हों ।
सुडोकु, हमारा परमप्रिय सुबह शुरु करने का तरीका, के बहाने बहुत बढ़िया बचपन की याद दिलवाई आपने.
सुडोकू सुलझाना हमारा भी पसंदीदा काम है
बस हम सुडोकू के लिए पेन्सिल नहीं इस्तेमाल करते . पेन्सिल से करने में ये लगा रहता है कि गलत होने का डर है तभी पेन्सिल से कर रहे हैं .
सुडोकू मुझे बी बहुत पसंद है पर आजकल हिंदुस्तान टाइम्स में तो 5 स्क्वेअर एकसाथ वाला सुडोकू आ रहा है जो कभी भी दिन भर में पूरा नही हुआ ।
sudoku ke maadhyam se bachpane ki smritiyan achchhi lagi
- vijay
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