गुरुवार, 4 मार्च 2010

देसी होली विदेशी सुगंध


पिछले दिनों दुबई एअरपोर्ट पर खरीदारी करते मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं जब मैंने केंज़ो अमोर की शेल्फ़ पर हिंदी में नाम लिखी परफ्यूम की एक बोतल देखी। न मुझे केन्ज़ो का मतलब मालूम है न अमोर का। मुझे सिर्फ इतना मालूम है कि हाउस ऑफ केंज़ो सुगंध के क्षेत्र में एक जाना-माना फ्रांसीसी ब्रांड है, जिसकी शेल्फों पर फैशनेबल महिलाएँ अक्सर जमी ही रहती हैं। मुझे ऐसी चीज़ों में आमतौर पर दिलचस्पी नहीं महसूस होती लेकिन फ्रांसीसियों के हिंदी प्रेम ने मुझे उनके इस होलियाना उत्पाद की ओर आकर्षित कर ही लिया।

वहाँ उपस्थित सेल्स गर्ल बड़ी ही ज्ञानवती निकली। उसने बताया कि हाउस ऑफ़ केंज़ो की स्थापना पेरिस में केंजो तकाडा नामक जापानी डिजायनर ने की थी। वे फैशन डिप्लोमा के लिए फ्रांस आए थे लेकिन डिप्लोमा लेने के बाद वहीं बस गए। 'इंडियन होली' इसी हाउस ऑफ केंज़ो द्वारा २००६ में केंज़ो अमोर नाम से जारी सुंगंध-शृंखला में से एक सुगंध है जिस पर हिंदी में- होली है! - ये शब्द सुनहरे रंग में अंकित किए गए हैं। डिज़ायनर करीम राशिद द्वारा डिज़ाइन की गई बोतलों में पैक इस सुगंध को विशेष रूप से महिलाओं के लिए जारी किया गया है। उसने हाउस ऑफ़ कैंज़ो में सुगंध तैयार करने वाले लोगों के कुछ और नाम भी लिए जो विदेशी होने के कारण मुझे ठीक से याद नहीं रह सके। 

सुगंध के विषय में उससे कुछ और रोचक जानकारी मिली- उसने बताया कि होली भारत में रंगों का त्योहार है (जैसे मुझे तो मालूम ही नहीं है।) इसी के नाम पर आधारित इस परफ्यूम की सुगंध बारह घंटों तक एक सी बनी रहती है। कस्तूरी और फूलों की महक से शुरू होने वाली यह सुगंध गुलाब और लाल बेरी (मालूम नहीं यह क्या होता है और इसकी सुगंध कैसी होती है।) में बदलती है और जब इसकी धुंध छँटती है तो विनम्र चावल (जेंटेल राइस शब्द का अर्थ कहीं मिला नहीं शायद यह कोई फूल हो।) चेरी ब्लॉसम (निश्चय ही पॉलिश नहीं) , चंदन और भी कई चीज़ें (जिसमें से मुझे सिर्फ वेनीला याद रह गया) में बदल जाती है। हे भगवान! मुझे तो अपनी अज्ञानता पर सच ही दया हो आई थी। क्या परफ्यूमें भी उगते डूबते सूरज वाले आसमान की तरह रंग बदलती हैं कि कभी ये तो कभी वो? खैर इसको सूँघना मुफ्त था सो उसने मेरी कलाई पर एक फुहार दी। मुझे समझ में सिर्फ इतना आया कि यह काफ़ी तीखी है और मेरी पसंद की नहीं। उसने दुबारा मुझे आगाह किया कि यह लिमिटेड एडीशन परफ्यूम है यानि एक बार सारा माल बिक गया तो दुबारा नहीं बनाया जाएगा। दूसरे शब्दों में, खरीदना हो तो खरीद लो वर्ना बाद में पछताओगे। पछतावा मुझे सुगंध न खरीदने का नहीं हुआ सिर्फ इस बात का हुआ कि हम भारतीय जहाँ के तहाँ रह गए और परफ्यूम पर स्वर्ण अक्षरों में हिंदी लिखने का श्रेय विदेशी लूट ले गए।

अब पाठक ये न समझ लें कि इस सुगंध की तारीफ या बुराई के मुझे पैसे मिले हैं। यह तो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर बिकनेवाली एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड की परफ्यूम का हुरियारा अनुभव था जिसे आपके साथ बाँट लिया। सच पूछिए तो ऊपर की फोटो भी चुराई हुई है। मुझे लगा कि इतनी बड़ी कंपनी को मेरे जैसे छोटे-मोटे जीव की इस छोटी मोटी चोरी से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है। फिर भी अगर उन्हें तकलीफ़ हुई तो इसे हटा देंगे। पर तबतक आप इसकी एक हुरियारी झलक लेने से न चूकें। चाहें तो तस्वीर पर क्लिक कर के बड़ा आकार देखें और अंतर्राष्ट्रीय होती हिंदी का आनंद लें।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

वसंत की शुभकामनाएँ

जब हम छोटे थे तो समझते थे कि वसंत पंचमी से लेकर होली तक वसंत की ऋतु होती है। वसंत के दिन नए पीले कपड़े पहनते थे पीले मीठे चावल घर में बनते थे और दोपहर भर किसी पुष्प प्रदर्शनी में फूलों की दुनिया की सैर करते दिन कट जाता था। इस दिन के आते ही होली की तैयारियाँ भी शुरू हो जाती थीं। अनिर्वचनीय उल्लास सा भरा रहता था मन में। फ़िक्र होती थी तो सिर्फ़ एक- परीक्षाओं की। अब ये अनुभव पुरानी पीढ़ी के हो गए। वसंत कब आता है कब चला जाता है इसका पता नहीं चलता। वसंत पर निबंध भी तो नहीं लिखे जाते।

छोटी होती दुनिया के साथ लोग दूर दूर जा बसे हैं। अब इस कोने की ही बात करें- एक तो यहाँ इमारात में ऋतुओं का वैसा वैभिन्य नहीं जैसा उत्तर भारत में, दूसरे प्रकृति का जैसा सौंदर्य भारतीय परिवेश में पाया जाता है वह भी यहाँ स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक इसलिए नहीं क्यों कि जिस वस्तु में स्थानीय हवा, पानी और आत्मा का मेल नहीं होता वह चीज़ न तो लंबी चलती है न ही अपना प्रभाव छोड़ती है। हालैंड से खरीदे हुए फूल शारजाह के बगीचे में कितने दिन जीवित रह सकते हैं? मान लो वे एक मौसम जी भी गए तो उनमें बीज नहीं आते कि झर कर सो जाएँ और अगले साल मौसम बदलते ही नए अंकुर सिर उठाकर कहें- लो हम आ गए वसंत का संदेश लेकर। यहाँ मौसम को भी वस्तु की तरह खरीदकर घर में लाया जाता है, लेकिन बनावटी चीज़ों में कितनी भी चाभी भरी जाए वे सजीव नहीं हो जातीं। भारत की महानगरीय संरचना में भी बहुमंजिली इमारतों से पटे कंकरीट के जंगल में वसंत के गुजरने की जगह कहाँ बची है? एक ओर व्यस्तताओं का बवंडर है तो दूसरी ओर महत्त्वाकांक्षाओं की आँधी। और इससे जुड़े हम प्राकृतिक हवा, पानी, धूप से अलग होकर यांत्रिक दृष्टि से वातानुकूलित होने के चक्कर में अपने स्वाभाविक राग, रंग और मिठास वाली संस्कृति की खबर लेना भूल रहे हैं।

इसी स्वाभाविक राग, रंग और मिठास को सींचने तथा जन जन को मौसम से जोड़ने के लिए आते हैं अभिव्यक्ति और अनुभूति के वसंत विशेषांक। इसमें साहित्य और संस्कृति के बीज बोने का प्रयास किया गया हैं इस आशा के साथ कि वे हर साल झरेंगे और हर साल सिर उठाकर नवऋतु के आने का ऐलान करते रहेंगे, वसंत की हार्दिक शुभकामनाएँ!

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

दुनिया रंग रंगीली

बहुत दिनों से इमारात के बारे में कुछ नहीं लिखा। यहाँ वर्षा का कोई मौसम नहीं होता। लेकिन सर्दियों में एक सप्ताह बारिश होती है। कभी तेज़ कभी बूँदा बाँदी। हालाँकि साल भर की यह ज़रा सी बारिश भी लोगों को अच्छी नहीं लगती। एक तो इसलिए कि इससे सर्दी बढ़ जाती है और तापमान दस डिग्री या उससे नीचे उतर जाता है जो इस वसंत ऋतु जैसी मोहक सर्दियों में बिलकुल भी नहीं भाता दूसरे सजे सजाए बगीचे सत्यानाश हो जाते हैं।

यह मौसम जिसमें बाहर धूप में बैठना, सड़कों पर टहलना और बाज़ार में घूमना अच्छा लगता है, पानी की किचपिच से हाल बेहाल कर देता है। वाहनों की गति मंद पड़ जाती है, सड़कों पर जाम लग जाते हैं और दैनिक जीवन रुका रुका सा मालूम होता है। कल शुक्रवार था यानि सप्ताहांत की छुट्टी का दिन। सारे दिन बादल छाए रहे और हवा चलती रही। घूमने घामने वाले लोग डरते डरते घर से निकले पर दिन खुशी से बीत गया रात को तेज़ बारिश हुई। आज सुबह बारिश रुकी रही। बादल भी काफ़ी ऊँचे थे, सूरज नहीं दिख रहा था पर आसमान पूरा ढँका हो ऐसा नहीं था। सड़क पर निकली तो देखा बहुत सी कारों ने बत्तियाँ जला रखी हैं। पहले जब एक कार ऐसी दिखी तो मुझे लगा कि बत्ती गलती से जली रह गई है पर जब अनेक गाड़ियों की हेडलाइट चालू दिखी तो मैंने किसी से पूछा- आज इतने सारे लोग बत्तियाँ जलाकर गाड़ी क्यों चला रहे हैं? उत्तर मिला- अँधेरा सा है न इसी लिए। कमाल है! यहाँ पर ज़रा से बादल घिरते ही लोगों को इतना अँधेरा नज़र आने लगता है कि कार की बत्ती जलानी पड़े। चार-पाँच साल पहले अपनी इटली यात्रा की याद हो आई। खुला मौसम था और तापमान पच्चीस-छब्बीस डिग्री सेल्सियस के आसपास था। इमारात में इस तापमान को वसंत की तरह सुहावना माना जाता है पर हमारी अमेरिकी सहयात्री ने अपनी सामान्य ऐनक निकालकर डिब्बे में रखी और बड़े शीशों वाली काली ऐनक निकालकर बोलीं- उफ़् इतनी तेज़ धूप है कि आँखें खोली नहीं जातीं। मैंने मन ही मन सोचा कि अगर कहीं ये मई में भारत या जुलाई में इमारात पहुँच जाएँ तो कैसा अनुभव करेंगी?

अलग अलग स्थानों पर रहते हुए हमारी सोच और सहनशक्ति में काफ़ी अंतर आ जाता है। यह सहनशक्ति मौसम के स्तर पर भी हो सकती है और शिक्षा तथा संस्कृति के स्तर पर भी। इसके आधार पर कम, अधिक, सही और गलत का सूचकांक बहुत ऊपर या नीचे खिसकता रहता है। इसीलिए तो कहा गया है कि दुनिया रंग रंगीली...

शनिवार, 30 जनवरी 2010

गणतंत्र की प्राचीन परंपरा


इस सप्ताह हम भारत के लिए गर्व और त्याग के प्रतीक गणतंत्र दिवस के ६० वर्ष पूरे कर रहे हैं। उत्सव और समारोह के साथ-साथ यह हमारी प्राचीन परंपराओं को फिर से याद करने का दिन भी है। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा लादी गई ३०० साल की लंबी पराधीनता के बाद जिस गणतंत्र को हमने १९५० में प्राप्त किया है, उस गणतंत्रीय प्रणाली की अवधारणा का जन्म भारत में ही हुआ था।

सामान्यत: यह कहा जाता है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई थी। लेकिन इन नगर राज्यों से भी हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ बहुमत का शासन है। ऋग्वेद, अथर्व वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में इस शब्द का प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में किया गया है। वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहाँ गणतंत्रीय व्यवस्था थी। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ जैसे कुरु और पांचाल राज्यों में। वहाँ पहले राजतंत्रीय व्यवस्था थी और ईसा से लगभग चार या पांच शताब्दी पूर्व उन्होंने गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई। छह सौ ईस्वी पूर्व से दो सौ ईस्वी बाद तक, भारत पर जिन दिनों बौद्ध धर्म की पकड़ थी, जनतंत्र आधारित राजनीति बहुत लोकप्रचलित एवं बलवती थी। उस समय भारत में महानगरीय संस्कृति बहुत तीव्रता से विकसित हो रही थी। पालि साहित्य में उस समय की समृद्ध नगरी कौशांबी और वैशाली के आकर्षक वर्णन पढ़े जा सकते हैं। सिकंदर के भारत अभियान को इतिहास के रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस ने साबरकी या सामबस्ती नामक एक गणतांत्रिक राज्य का उल्लेख किया है, जहाँ के नागरिक मुक्त और आत्मनिर्भर थे।

आधुनिक गणतंत्र राजनीतिक व्यवस्था को तय करनेवाली ऐसी प्रणाली है, जो नागरिकों में उनकी अपनी बुद्धि और विवेक द्वारा नागरिकताबोध पैदा करने का काम करती है। इसी नागरिकता बोध से उत्पन्न अधिकार चेतना के द्वारा सत्ता पर जनता का अंकुश बना रहता है। सत्ता या व्यवस्था में बुराई उत्पन्न होने पर असंतुष्ट जनता उसे बदल सकती है। गणतंत्र में सत्ता को शस्त्र या पूँजी के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं है। लेकिन इसके लिए जनता का जागृत, शिक्षित और विवेकी होना आवश्यक है। इसके अभाव में संपूर्ण राष्ट्र उपभोक्तावादी संस्कृति या गलत प्रचार का शिकार होकर नष्ट भी हो सकता है। इसलिए आवश्यक है कि लंबी पराधीनता के बाद आज हमने जो यह नई गणतंत्रीय व्यवस्था प्राप्त की है, उसके मूल्यों की रक्षा हो और राष्ट्रीय विकास के हित में उसका सही प्रयोग हो।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

लंबू जी छोटू जी

कहते हैं अति सर्वत्र वर्जयेत, लेकिन कीर्तिमान तो तभी बनते हैं जब कोई किसी अति का अतिक्रमण करे। इस वर्ष लंबे और छोटे होने का कीर्तिमान बनाकर गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड में नाम लिखवाया है तुर्की में जन्मे लंबू सुल्तान कोसेन ने और छोटू का ताज मिला है चीन के ही-पिंगपिंग को।

सुल्तान कोसेन बचपन से इतने लंबे नहीं थे। १० वर्ष की आयु तक उनकी लंबाई सामान्य बच्चों जैसी रही, लेकिन आँखों के पीछे उभरे एक आबुर्द (ट्यूमर) से पीयूष ग्रंथि पर पड़ने वाले दबाव के कारण उनकी लंबाई तेज़ी से बढ़ने लगी। आबुर्द को निकालने के लिए उन्हें कई शल्य क्रियाओं से गुज़रना पड़ा। २००८ में जब यह पूरी तरह ठीक हुआ उनकी लंबाई ८ फुट १ इंच तक पहुँच चुकी थी। आज २७ वर्ष की आयु में स्वस्थ होने के बाद उनकी लंबाई स्थिर है लेकिन अस्वाभाविक लंबा शरीर घुटनों पर जो अतिरिक्त बोझ डालता है उसको संभालने के लिए छड़ी लिए बिना चलना उनके लिए संभव नहीं है। बाज़ार में उनके नाप के कपड़े और जूते नहीं मिलते हैं साथ ही कोई ऐसी कार भी नहीं है जिसमें उनकी टाँगें समा सकें। फिर भी वे समान्य जीवन बिता रहे हैं और हाल ही में उन्होंने विवाह भी किया है।

दूसरी ओर २१ वर्षीय ही-पिंगपिंग की लंबाई केवल ७३.६६ सेंटीमीटर यानी २ फुट ५ इंच है। चीन में वुलानचाबू शहर के रहने वाले ही पिंगपिंग की दोनो बहनें सामान्य है। ही-पिंगपिंग के माता पिता के कहना है कि जन्म के समय उनकी लंबाई सामान्य से कुछ कम थी लेकिन बाद में भी जब इसकी गति बहुत कम रही तो डाक्टरों ने पाया कि वे ऑस्टियो इंपर्फ़ेक्टा के शिकार हैं। इस स्वास्थ्य स्थिति में हड्डियाँ स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं होतीं या बार बार टूट जाती हैं। १९८८ में जन्मे ही-पिंगपिंग अपने बाल रूप के कारण २००८ से अंतर्राष्ट्रीय नायक बने हुए हैं और देश-विदेशी की यात्रा करते हुए अलग अलग लोगों के साथ उनके बहुत से चित्र सजाल पर देखे जा सकते हैं। गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रेकार्ड के अलग-अलग शहरों में विमोचन के समय भी वे उपस्थित रहे हैं। विगत १५ जनवरी को जब वे इस पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर इस्तांबूल पहुँचे तब उनकी भेंट सुल्तान कोसन से हुई। अपने देश में ही-पिंगपिंग का स्वागत करते हुए कोसेन ने कहा, "मुझे इस बेहद छोटे व्यक्ति पर नजर टिकाने में कठिनाई हो रही थी।" वहीं, पिंगपिंग ने कहा कि बाँस जैसे लंबे इस व्यक्ति से सीना तानकर हाथ मिलाने का अनुभव वाकई यादगार रहा।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

कजरारी आँखों का रहस्य

कजरारी आँखों की दुनिया कायल है उस पर अरबी सुरमें में डूबी धुआँ धुआँ आँखों का जवाब नहीं उस पर भी आँखें अगर क्लियोपेट्रा की हों तो दुनिया जहान के साथ सौदर्य., स्वास्थ्य और फैशन की दुनिया के सारे वैज्ञानिकों का जीना हराम हो जाना स्वाभाविक ही है। हाल में हुई खोजों के आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि वे इन धुआँ धुआँ आँखों का 4000 साल पुराना राज खोलने में सफल हो गए हैं।

लंदन से मिले एक समाचार के अनुसार फ्रेंच शोध में पता चला है कि क्लियोपेट्रा की आँखों पर लगाए जाने वाले प्रसाधन केवल आँखों का सौंदर्य ही नहीं बढ़ाते थे बल्कि स्वास्थ्य भी दुरुस्त रखते थे। विशेषज्ञों का कहना है कि क्लियोपेट्रा की आँखों में लगाया जाने वाला कजरा आँखों को हर प्रकार के संक्रमण से बचाने की शक्ति देता था। एनालिकल केमेस्ट्री नामक एक पत्रिका का कहना है कि इस प्रसाधन में पाया जानेवाला लेड सॉल्ट आँखों के रोगों के विरुद्ध प्रतिरोधक का काम करता है। लूव्र के शोधार्थियों का विश्वास है कि अरबी आँखों का यह विन्यास शोभा के साथ साथ स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखता था। प्राथमिक स्तर पर लेड साल्ट से नाइट्रिक एसिड का जन्म होता है यह एसिड आँखों के उस प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत बनाता है जो आक्रामक बैक्टीरिया से लड़ने का काम करता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीम मिस्र के लोग इस प्रकार के लेड का निर्माण करते थे जो आँखों पर आक्रमण करने वाले रोगों के बैक्टीरिया के विरुद्ध प्रतिरोधक शक्ति का विकास करता था। ऐसा विश्वास भी किया जाता है कि लेड सल्फ़ाइट में पाए जाने वाले जिस गलीना नामक खनिज का प्रयोग भी आँखों के प्रसाधन में किया जाता था, वह रोगाणुरोधक तो था ही इसमें मक्खियों को दूर रखने की क्षमता थी और यह आँखों को धूप से सुरक्षित भी रखता था।


सोचती हूँ दीपावली की रात में, घी के दीपक में कपूर डालकर, हल्दी की गाँठों के बीच सूत की बाती के ऊपर चाँदी की कटोरी में पारे गए काजल में भी कुछ खास बातें रही होंगी जिन्हें हम आज बेवकूफ़ी समझकर त्याग चुके हैं। शायद इस विषय में लंदन, पेरिस और लूव्र से छपने वाले किसी भी वैज्ञानिक जरनल से पहले भारत में स्थित वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा प्रकाशित होने वाले किसी जरनल में यह बात प्रकाशित हो और उसी प्रकार दुनिया भर के समाचारों के मुखपृष्ठ का हिस्सा बने जैसे आज यह खबर बनी हुई है।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

बाल्टी यात्रा बच्चों के लिए


जिस तरह मुंबई वालों को दौड़ने की आदत है उसी तरह दुबई वालों को चलने की आदत है। किसी न किसी बात पर पदयात्रा के बहाने ढूँढ ही लिए जाते हैं। पिछले माह शुक्रवार २० नवंबर को दुबई केयर्स की ओर से एक बाल्टी यात्रा (वाटर बकेट वाक) का आयोजन किया गया, जिसमें इमारात के ५,००० निवासियों ने हिस्सा लिया। २० नवंबर का दिन विशेष रूप से इस यात्रा के लिए इसलिए भी चुना गया क्यों कि यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय बाल दिवस भी है। दुबई केयर्स की स्थापना सितंबर २००७ को मोहम्मद बिन राशिद अल मख्तूम ने की थी जो दुबई के शासक और इमारात के उपराष्ट्रपति व प्रधानमंत्री हैं। इस संस्था का उद्देश्य विकासशील देशों के बच्चों में शिक्षा का प्रसार करना है। संस्था का कहना है कि विकासशील देशों में पीने के पानी की कमी के कारण बहुत से बच्चे या तो शिक्षा प्राप्त करने नहीं जाते या आए दिन विद्यालय से अनुपस्थित रहते हैं।

जुमेरा के सागर तट से लगे तीन किलोमीटर लंबे मार्ग पर आयोजित इस बाल्टी पदयात्रा में इमारात में बसे सभी देशों और आयुवर्ख के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों में उत्साह दिखाई दिया। ३० दिरहम की छोटी सी पंजीकरण फीस के बदले हर प्रतिभागी को दुबई केयर्स टी-शर्ट, बाल्टी और एक पानी की बोतल प्रदान की गई थी। इनको लेकर पदयात्रा करते हुए प्रतिभागियों को इस बात का हल्का सा अनुभव अवश्य हुआ होगा कि पानी ढोकर तीन किलोमीटर तक चलना कितनी बड़ी मुसीबत का काम है। जबकि आँकड़े कहते हैं कि विकासशील देशों में प्रत्येक बच्चा पीने के साफ़ पानी को लाने के लिए औसतन ६ किलोमीटर रोज़ पैदल चलता है। इस कवायद में उसका सारा समय और श्रम परिवार के साथ, पीने और रसोई के पानी को इकट्ठा करने में लगा रहता है और शिक्षा व विकास के अवसर हाथ से निकल जाते हैं। विकासशील देशों में हर वर्ष बच्चों के लगभग साढ़े चार करोड़ स्कूलदिवसों में सिर्फ इसलिए अनुपस्थिति लगती है कि उन्हें पीने के पानी की व्यवस्था में माता पिता का हाथ बटाना था। यही नहीं विश्व में हर रोज़ हर १५ सेकेंड पर एक बच्चे की मौत गंदा पानी पीने के कारण होती है। पंजीकरण के इन तीस दिरहमों की राशि एक साल तक एक बच्चे की पानी की आवश्यकता को पूरा कर सकेगी, इस प्रकार इस पदयात्रा द्वारा ५००० बच्चों के लिए एक वर्ष तक स्वच्छ पानी का प्रबंध सुनिश्चित किया गया।

दुबई विद्युत एवं जल निगम ने इस आयोजन के कार्यान्वयन में प्रमुख भूमिका निभाई, इसके आयोजनकर्ता थे दुबई म्युनिसिपैलिटी तथा दुबई पुलिस व आर टी ए तथा इसको सफल और अविस्मरणीय बनाने में पेप्सी और द फ़र्स्ट ग्रुप ने सहयोग किया।

रविवार, 13 दिसंबर 2009

अपनी तो पाठशाला

आजकल मैंने फिर से पाठशाला का रुख़ किया है। अब यह न पूछें कि क्या पढ़ा जा रहा है क्यों कि जो कुछ पढ़ा जा रहा है उसमें खास कुछ समझ में नहीं आ रहा है। पढ़ने का वातावरण ही दिखाई नहीं देता। लगता है पूरा पाठ्यक्रम समाप्त होने तक यह मौसम बदलने वाला नहीं।

कुछ समझ में नहीं आ रहा है तो फिर पाठशाला जाने का फ़ायदा?
अरे, पैसे चुकाए हैं तीस पाठों के, वो तो वसूलने ही हैं और फिर ऐसी आरामगाहनुमा पाठशाला भारत में सात जनम नहीं मिलने वाली। यह समझकर मुझे तो सातों जन्मों के ऐश इसी पाठशाला में पूरे करने हैं। शाम को आराम से कपड़े बदलो, जो मन आए पहनो और निकल पड़ो। पाठशाला के शानदार भवन में प्रवेश करो। आलीशान बरामदे में लगी कोल्ड ड्रिंक की मशीन से एक बीब्सी निकालो और हाथ में लिए हुए कक्षा में चले जाओ। छोटी छोटी कक्षाएँ जिसमें मुश्किल से १० कुर्सी मेज़ें होती हैं। बाहर का तापमान १५ डिग्री सेल्सियस होने के बावजूद स्प्लिट एसी फर्राटे से चल रहा होता है। मन करे कक्षा में बैठो या फिर बरामदे में शाम की सैर का कोटा पूरा करो- कोई रोकटोक नहीं। कक्षा में अध्यापक से पहले पहुँचने की ज़रूरत नहीं। वह आ जाए तो भी बीब्सी फेंकने की ज़रूरत नहीं। मेज़ पर रख लो आराम से पीते रहो और खाली हो जाए तो वहीं छोड़कर चल दो। अध्यापक फेंक देगा।

सबसे मज़े की बात यह कि वह कक्षा में आकर अपना परिचय देगा, "मेरा नाम वाइल है और मैं आपको पहला पाठ पढ़ाने आया हूँ।"
बेचारा २५-२६ साल का अध्यापक, पढ़ने वाले ५० साल के। आश्चर्य की बात यह कि भारत से बिलकुल विपरीत यहाँ विद्यार्थी अध्यापक का नाम लेकर पुकारते हैं और अध्यापक विद्यार्थियों के संबोधित करते हुए कहता है मैम, सर...
और भी मज़े की बात ज्यादातर लोग अपना पाठ याद नहीं करते। इसके बावजूद न कोई शर्म, न हीन भावना, न किसी का डर। एक नमूना देखें-
विद्यार्थी- "ओह वाइल, कल का पाठ तो बहुत ही कठिन था मुझे ठीक से याद भी नहीं हुआ।"
वाइल- "मुझे मालूम है सर, इसीलिए तो मैं आपकी मदद करने आया हूँ। एक पाठ को याद करने के लिए तीन दिन आपको दिए जाते हैं अभी तो एक ही दिन गुज़रा है मुझे पूरी आशा है कि कल तक आपको सब कुछ याद हो जाएगा।"
विद्यार्थी- "हाँ, हाँ, तुम ठीक कहते हो वाइल, मेरे प्यारे बच्चे, हो जाएगा याद मुझे।"

अगर ऐसे आशावादी अध्यापक मिल जाएँ जो प्यारे भी हों और बच्चे भी तो फिर कौन पाठशाला से भागने की सोचेगा?

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

दीवार में सेंध: अ-होल-इन-द-वॉल


दीवार को भारतीय संस्कृति में विशेष श्रद्धा की दृष्टि से नहीं देखा जाता- कहीं यह रुकावट की प्रतीक है तो कहीं बँटवारे की लेकिन जहाँ बात आन, बान और शान की हो वहाँ यह अपने बंदों को महान बनाने में भी पीछे नहीं रहती। अमिताभ बच्चन और चीन दोनों के इतिहास में दीवार का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। दोनों ही दीवारे पुरानी और प्रसिद्ध हैं। जहाँ अमिताभ बच्चन की दीवार ने उन्हें लोकप्रियता की पराकाष्ठा तक पहुँचाया वहीं चीन की दीवार ने उसे विश्व प्रसिद्ध बनाया।

दीवार से प्रसिद्धि पाने वाले कुछ गिने चुने लोगों की भीड़ में अब हांगकांग की कैंटीन शृंखला "अ-होल-इन-द-वॉल" का नाम भी आ जुड़ा है। यों तो इसके रेस्त्राँ बैंकाक से लेकर मेक्सिको तक हर जगह मिल जाते हैं लेकिन शंघाई स्थित इसके "टिम हो वान" रेस्त्राँ की प्रसिद्धि सस्ते भोजन के कारण है। मिशेलिन गाइड के निदेशक जीन लुक नरेट के अनुसार इस वर्ष यह रेस्त्राँ ऐसे मिशेलिन स्टार प्राप्त भोजनालयों में सबसे सस्ता है, जिनमें स्थानीय व्यंजनों की प्रमाणिकता का समुचित ध्यान रखा जाता है। बीस लोगों के बैठने की क्षमतावाले इस छोटे से रेस्त्रां की "डिम सम बास्केट" पौने पाँच दिरहम (लगभग पचास रुपये) की है। डिम सम बास्केट में अपनी पसंद के व्यंजन चुनने की सुविधा होती हैं। मोटे तौर पर इसे मैक्डॉनेल मील का एक रूप समझा जा सकता है।

मिशेलिन स्टार, मिशेलिन पर्यटन गाइड नामक संस्था द्वारा स्थापित स्तरों के अनुसार दिए जाते हैं। यह संस्था सन १९०० से पर्यटकों के लिए उनकी सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए प्रति वर्ष एक पर्यटन निर्देशिका का प्रकाशन भी करती है जिसमें महत्त्वपूर्ण होटलों, गैराजों और दर्शनीय स्थलों आदि की जानकारी दी जाती है।

"टिम हो वान" के मालिक मैक पुई गोर यह भोजनालय खोलने से पहले नगर के प्रसिद्ध "फ़ोर सीज़न्स होटल" के तीन सितारा रेस्त्रां "लुंग किंग हीन" में काम कर चुके हैं। आर्थिक संकट के इस दौर में जब उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया तो उन्होंने सस्ते खाने के इस केन्द्र का विकास किया। आज इसकी लोकप्रियता इतनी है कि दोपहर और रात के भोजन के समय ग्राहकों को अपनी बारी के लिए एक-एक घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। मिशेलिन गाइड में कहा गया है कि इस रेस्त्रां ने "मांग कॉक" की सूनी गली को परंपरिक चीनी भोजन के शौकीन ग्राहकों की चहल-पहले से भर दिया है।

यह सब लिखते हुए मुझे हरियाणा की चौड़ी सड़कों के दोनो ओर खूब खुली जगह छोड़कर बनाए गए बड़े बड़े ढाबे याद आते हैं, जिनसे उड़ती मसालेदार सुगंध, परोसे जाते स्वादिष्ट व्यंजन और उचित मूल्य का जवाब पूरे संसार में नहीं। उन्हें किसी मिशेलिन स्टार की ज़रूरत नहीं... और हाँ छेद वाली दीवार की ज़रूरत भी नहीं।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

एक मरुस्थल यात्रा

यहाँ एक कहावत है- अगर मरुस्थल में कभी रास्ता भूल जाओ तो ऊँट के पदचिह्नों का अनुसरण करो। जो मरुस्थल को पहचानते हैं वे जानते हैं कि ऊँट रेत के टीलों को चढ़कर पार नहीं करते उनके किनारे से गुज़रते हैं और इस प्रकार गाड़ी चलाने से रेत में फँसने का खतरा कम हो जाता है।

मरुस्थल को इमारात में सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है इसलिए इसके रखरखाव और संरक्षण पर सरकार विशेष ध्यान देती है। दुबई-अलेन हाईवे पर दुबई से ४५ मिनट आगे मरगम का संरक्षित मरुस्थल इसका जीता-जागता प्रमाण है। २२५ वर्ग किलोमीटर में फैले इस मरुस्थल का ९० किलोमीटर लंबा छोर हाईवे के साथ साथ चलता है। पर्यटकों के लिए इसमें विहार के सख्त नियम बनाए गए हैं। फ़ोर व्हील ड्राइव की गति सीमा ४० किमी प्रतिघंटा निर्धारित की गई है और हर गाड़ी में बैक ट्रैक प्रणाली का होना आवश्यक है ताकि निगरानी दस्ता हर गाड़ी की खबर रख सके। मरुस्थल में रास्ते भी निश्चित कर दिये गए हैं। इसके दो लाभ होते हैं एक तो पर्यटकों के भटकने का डर नहीं रहता दूसरे यहाँ उगने वाली वनस्पतियों और निवास करने वाले जीवों की भी सुरक्षा होती है। मरगम में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती अनेक वनस्पतियों और जीवों का संरक्षण किया गया हैं, जिनमें अरबी हिरनों की दो प्रजातियाँ- पीले रंग के गज़ेले और काले धूसर ओरिक्स प्रमुख हैं। यहाँ फैला रेत का सागर लाल रंग का है, यह लाल रंग आयरन ऑक्साइड के कारण आता है।

मरुस्थल में गाड़ी चलाना, कभी दूर से किसी हिरन के दिख जाने पर कैमरे को दूरबीन की तरह इस्तेमाल करना और देर तक रेत में समाते हुए सूरज को देखना यहाँ के विशेष आकर्षण हैं। सैंड बैशिंग और सैंड स्की साहसिक खेलों के शौकीनों के लिए काफ़ी रोचक सिद्ध होते हैं। जो कुछ भी न करना चाहे वह भी ऊँट की सवारी, अरबी मेंहदी, अरबी तंबू में जीवंत प्राचीन संस्कृति के दृश्यों, नृत्य-संगीत और खाने पीने का आनंद उठा सकता है। मरगम के भीतर एक बड़े रेत के टीले की तलहटी में बसा 'अल सहरा' सुस्ताने की बढ़िया जगह है। जगमगाती लालटेनों से घिरे इस टुकड़े पर चाय-कॉफी, अरबी रात्रिभोज, बिदोइन तंबू, बार और शीशे (एक तरह का हुक्का) की व्यवस्था सैर की थकान के बाद अच्छी लगती है। अरबी खाने का आरंभ फ़िलाफ़िल और शावरमा से होता है। इसके बाद शाकाहारी व मांसाहारी दोनो ही प्रकार के तले, भुने और शोरबेदार व्यंजनों के साथ अरबी रोटियाँ, सलाद, हमूस और पुलाव परोसे जाते हैं। भोजन का अंत फल, मिठाई और बकलावे (एक प्रकार की मिठाई) से होता है। रेगिस्तान की रात सितारों से जगमग होती है। इन्हें ठीक से देखने के लिए अधिकतर लालटेनें बुझा दी जाती हैं। तभी बेली नर्तकी का आगमन होता है जो अरबी संगीत, नृत्य और संस्कृति का विशेष अंग है।

इस देश में मरुस्थल से जुड़ी एक कहावत और भी है- अगर आप मरुस्थल से घर जा रहे हैं तो घर में उसकी अगवानी के लिए पहले से तैयार रहें क्यों कि आपके जूतों और जेबों में वह आपके साथ घर पहुँचता है। कुछ लोगों को इस प्रकार मरुस्थल का घर तक पीछा करना अच्छा नहीं लगता, जबकि कुछ लोग घर आई रेत को एक प्याले में इकट्ठा कर के यात्रा के स्मृतिचिह्न की तरह सहेजते हैं।

शनिवार, 21 नवंबर 2009

मुफ्त का सामान


मुफ्त का सामान मुफ़्त की मुसीबतें लेकर आता है। आप चाहें न चाहें वह आपकी ट्रॉली में रखा जाता है, डिकी में उतारा जाता है और घर में जमाया जाता है। फ्लू या सर्दी बुखार बदलते मौसम का मुफ़्त उपहार है। हम लेना नहीं चाहते लेकिन कहीं न कहीं से मिल ही जाता है। नए अध्ययनों में पता लगा है कि खरीदारी करने वाली ट्रॉलियों के हत्थे, सार्वजनिक कंप्यूटरों के की-बोर्ड और कारों के स्टीयरिंग व्हील मुफ़्त में सर्दी बुखार प्रदान करने वालों में सबसे आगे हैं। आपने इन्हें छुआ और आपकी हुई मुसीबत। लो भई, हम तो समझते थे कि सर्दी-बुखार के विषाणु हवा में होते हैं लेकिन यहाँ तो विलायती लोग छुआछूत की बात करने लगे।

लंदन में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि सर्दी बुखार को अपने ऊपर लादकर कार चलाने वाले लोग सड़क पर उतने ही खतरनाक साबित होते हैं जितने दो गिलास मदिरापान किए हुए लोग। लॉयेड्स टीबीएस इंश्योरेंस कंपनी के लिए किए एक सर्वेक्षण में शोधकर्ताओं ने पाया कि तेज़ सर्दी बुखार से ग्रस्त ड्राइवर किसी भी ख़तरे पर प्रतिक्रिया करने में ११ प्रतिशत अधिक समय लेते हैं। इसका मतलब यह कि अगर कार की गति ६० किमी प्रति घंटा है तो ब्रेक लगाने से पहले कार २ मीटर आगे निकल जाएगी। सर्वेक्षण में सहयोग करने वाले डॉ. डॉन हार्पर का कहना है कि ऐसा इसलिए भी होता है कि सर्दी बुखार की अधिकतर दवाईयों में नशीले पदार्थ या नींद की दवा मिली होती है। शोध में यह बात भी पता चली कि सर्दी बुखार से पीड़ित अधिकतर लोग सर्दी बुखार में गाड़ी चलने के इन ख़तरों को ठीक से नहीं जानते हैं। अज्ञान का पर्दा आँखों पर डाले ड्राइविंग करते रहते हैं और अपने साथ दूसरों की जान के भी दुश्मन बनने का खतरा मोल ले लेते हैं।

चलो मान लिया कि सर्वेक्षण में कही गई बातें शत प्रतिशत सही हैं लेकिन कुल मिलाकर सवाल तो यह है कि मुफ़्त के फ़्लू और सड़क दुर्घटनाओं से बचने के लिए आप क्या करेंगे? खरीदारी बंद कर देंगे, कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं करेंगे, कार ड्राइव नहीं करेंगे या फिर सर्दी बुखार की दवाई ही नहीं खाएँगे?

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

कचरा करे कमाल


पिछले पचीस वर्षों में संयुक्त अरब इमारात देश निर्माण के भयंकर दौर से गुजरा है। अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की इमारतों में अपना नाम शामिल करने की दौड़, व्यापार में विस्तार की महत्त्वाकांक्षा और विकास की उड़ान में सहायता देने के लिए इस देश में बसनेवाले लगभग ७० प्रतिशत लोग विदेशी हैं। इतने सारे लोगों के लिए आवासीय इमारतों का निर्माण भी युद्धस्तर पर हुआ है, बगीचे लगे हैं और रेगिस्तान को हरा भरा कर दिया गया है। आबादी भी तेजी़ से बढ़ी है और साथ ही बढ़ा है कचरा। हाल ही में प्रकाशित आँकड़ों में यह तथ्य सामने आया है कि सारे विश्व की तुलना में एक इमाराती चार गुना अधिक कचरा फेंकता है। जहाँ विकसित विश्व में प्रति व्यक्ति १.५ किलो कचरा फेंका जाता है वहीं इमारात में हर व्यक्ति प्रतिदन ४.२ किलो कचरा फेंकता है। इस कचरे का सदुपयोग अभी तक जमीन को समतल करने और गड्ढों को भरने में होता आया है। लेकिन अब सरकार को इस बढ़ते हुए कचरे से पर्यावरण के विनाश का भय सताने लगा है।

इससे निबटने के लिए अबूधाबी के वेस्ट मैनेजमेंट केंद्र ने इमाराती नागरिकों के लिए पुनर्प्रयोग (रिसायकलिंग) की सरल, प्रभावी और लोकप्रिय विधियों को प्रस्तुत किया है। इसके अंतर्गत शीशा, प्लास्टिक और कागज के कचरे को इकट्ठा करने के अलग-अलग प्रकार के सुंदर डिब्बे सड़कों की शोभा बढ़ाने लगे हैं। इन्हें इस प्रकार वितरित किया गया है कि हर सड़क और हर घर तक इनकी पहुँच बनी रहे। इन डिब्बों की ऊँचाई इस प्रकार की है कि छोटे बच्चे भी सुविधा से मीठे पेय के कैन और पानी वाली प्लास्टिक की बोतलें इनमें फेंक सकते हैं। इस कूड़े को अलग अलग ट्रकों में भरकर रिसायकिल करने के लिए सही स्थान पर पहुँचाया जाएगा। वेस्ट मैनेटमेंट प्रबंधक का कहना है कि इस प्रकार कचरे को नीची जमीन भरने की बजाय अधिक महत्त्वपूर्ण कामों में लगाया जाएगा और अनुपयोगी शीशा-प्लास्टिक-कागज की रिसायकलिंग पर्यावरण को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। कुल मिलाकर यह कि कचरे ने कमाल कर दिया है। इसके कारण सड़कों पर सजावट तो हुई ही है, बच्चों को सारे दिन के लिए एक नया काम मिल गया है (नए रंगीन कूड़े के डिब्बे में बोतल फेंककर आने का), साथ ही रिसायकलिंग के व्यवसाय को भी विस्तार मिल गया है।

रिसायकलिंग के लिए अखबार और गत्तों को इकट्ठा करने की योजना इमारात में पहले ही शुरू की जा चुकी है। सुपर मार्केट में प्लास्टिक के लिफ़ाफों की स्थान पर जूट से बने बार-बार प्रयोग में लाए जाने वाले थैलों का प्रयोग भी शुरू हो गया है। कुछ अंतर्राष्ट्रीय दूकाने पहले ही रिसायकिल किए गए कागज से बने मोटे और मजबूत थैलों का प्रयोग कर रही हैं। इन सभी योजनाओं को सफल बनाने में समाचार पत्रों और स्वयंसेवी संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही ही। आशा है यह अभियान भी सफल होगा और अनेक विकसित देशों की तरह इमारात में भी लोग कचरा घर में ही अलग अलग कर के फेंकने के तरीके को जल्दी ही अपना लेंगे। आखिर सरकारी योजनाएँ तो तभी सफल होती हैं जब जन सामान्य उसका ठीक से पालन करते हैं।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

गुलाबी दिवस की गुलाबी यात्रा

३० अक्तूबर का दिन विश्व में गुलाबी रिबन दिवस के रूप में जाना जाता है जब हजारों की भीड़ गुलाबी रंग से सजधज कर स्तन कैंसर के प्रति जागरूकता का प्रचार करते सड़कों पर निकल आती है। तीन साल पहले एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई के इमारात में महिलाओं की मौत का सबसे बड़ा कारण स्तन कैंसर है। तब से यहाँ स्तन कैंसर के विरुद्ध ज़बरदस्त संग्राम छिड़ा हुआ है। पहले तो पूरा अक्तूबर विश्व स्तन कैंसर माह के रूप में मनाया गया। महिलाओं में जानकारी के प्रचार, उनके निरीक्षण व चिकित्सा के कार्यक्रम आयोजित किए गए और सुपर मार्केट के कैशियरों, अस्पतालों के कर्मचारियों के साथ-साथ तमाम अन्य लोग भी स्तन कैंसर के विरुद्ध गुलाबी रिबन धारण किए रहे। फिर ३० अक्तूबर की सुबह दुबई में एक अनोखा दृश्य देखने को मिला जब लगभग ८००० स्त्री पुरुष और स्कूल के बच्चे एक साथ सड़क पर कैंसर के विरूद्ध आयोजित एक मार्च में साथ आ जुटे। बर्जुमान शापिंग मॉल से प्रारंभ होने वाली इस पद-यात्रा शुरू होने से पहले मॉल में गुलाबी टोपियों, मोज़ों और टी शर्ट की बिक्री की गई जिसे मॉल की जन संपर्क अधिकारी सबीना खंडवानी ने स्तन कैसर से पीड़ित ऐसी महिलाओं के लिए दान में दिया जो महँगे इलाज का बोझ नहीं उठा सकती हैं।

सुबह आठ बजे प्रारंभ होने वाली इस पद-यात्रा का उद्देश्य तो नेक था ही स्वरूप भी कम दर्शनीय नहीं था। जहाँ इतने लोग जुटें वहाँ मौज मस्ती तो होनी ही थी। जहाँ तरह तरह के ढोल और नगाड़े इस भीड़ा का हिस्सा बने वहाँ फैशन प्रेमियों ने भी इस यात्रा को रंगीन बनाने में कोई कसर नहीं रखी। दाहिनी ओर के चित्र में एक महिला का गुलाबी बालों वाला फोटो इस बात का सबूत है। अनेक लोगों को भाव विह्वल हो रोते हुए देखा गया। टी शर्ट, मोज़ों और टोपियों पर लिखे नारे आकर्षक होने के साथ-साथ संवदनाओं को भी आंदोलित करते थे। तेज़ गाड़ियों वाले पूरे मनकूल क्षेत्र को पुलिस ने आज के दिन इस गुलाबी रंग के समुद्र के लिए सुरक्षित किया हुआ था। छोटे बच्चे अपने माता पिता के कंधों पर चढ़े हुए थे और मसखरे उनका जहाँ तहाँ मनोरंजन करने में लगे थे। यात्रा का प्रारंभ दुबई शॉपिंग फेस्टिवल की चीफ एक्जिक्यूटिव ऑफिसर लैला सुहैल ने हीलियम से भरे सैकड़ों गुब्बारों को छोड़कर किया। अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए इस आयोजन का विडियों हमें गल्फ़ न्यूज के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। देखें और इस पद-यात्रा का आनंद लें।

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

भेंट श्वेताक से

दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा का विधान है। प्रकृति में श्वेत आक ऐसा पौधा है जिसकी जड़ में दस से बारह वर्ष की आयु में गणेश की आकृति का निर्माण होता है। इस साल मुझे श्वेत आक के ऐसे पौधे को देखने का अवसर मिला लेकिन जड़ खोदकर उसकी आकृति देखने के लिए पेड़ का जीवन नष्ट कर देना कोई मानवीयता नहीं सो गणेश जी वहाँ विराजमान हैं या नहीं देखने का अवसर नहीं मिला।

सामान्य रूप से आक का फूल नीला या बैंगनी होता है। हज़ारों नीले बैंगनी फूलों वाले आक के बीच एक श्वेत आक जन्म लेता है इस कारण इसे राजआक या राजा आक भी कहते हैं। यह एक अत्यंत उपयोगी पौधा है जिसका उल्लेख लगभग सभी प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों में मिलता है। धनवंतरि निघंटु एवं मदनादि निघंटु में इसकी दो प्रजातियों का उल्लेख किया गया है- आक और राजाक। जबकि भाव प्रकाश में इन दो प्रजातियों के उल्लेख के बाद इसकी एक और प्रजाति रक्ताक का उल्लेख करते हुए उसकी विशेषताओं को गिनाया गया है। राजा निघंटु के लेखक ने भी इस प्रजाति का उल्लेख करते हुए आक के तीन प्रकार आक, श्वेताक और वेताक का नाम लिया है। चरक संहिता में भी इसका उल्लेख मिलता है। अपने औषधीय गुणों के कारण यह पौधा वर्षों से भारतीय औषधिशास्त्र में महत्त्वपूर्ण समझा जाता रहा है। भाव प्रकाश के अनुसार इसका प्रयोग चर्म रोगों, पाचन समस्याओं, पेट के रोगों, ट्यूमरों, जोड़ों के दर्द, घाव और दाँत के दर्द को दूर करने में किया जाता है। इस पेड़ का दूध गंजापन दूर करने और बाल गिरने को रोकनेवाला है। इसके फूल, छाल और जड़ दमे और खाँसी को दूर करने वाले माने गए हैं।

धार्मिक दृष्टि से श्वेत आक को कल्पवृक्ष की तरह वरदायक वृक्ष माना गया है। श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होकर इस पौधे से कुछ माँगने पर यह अपनी जान देकर भी माँगने वाले की इच्छा पूरी करता है। यह भी कहा गया है कि इस प्रकार की इच्छा शुद्ध होनी चाहिए। ऐसी आस्था भी है कि इसकी जड़ को पुष्य नक्षत्र में विशेष विधिविधान के साथ आमंत्रित कर जिस घर में स्थापित किया जाता है वहाँ स्थायी रूप से लक्ष्मी का वास बना रहता है और धन धान्य की कमी नहीं रहती। दीपावली के शुभ अवसर पर मेरे सामने खिला यह श्वेत आक सभी पाठकों के लिए मंगलकारी हो इसी शुभकामना के साथ,

बुधवार, 23 सितंबर 2009

बाबा की बकइयाँ

चीन ने पूरी दुनिया को अपने अधिकार में किया हुआ है। कभी वह धरती की सीमाएँ लाँघता है, कभी बाज़ारों में घुसता है तो कभी अखबारों के मुखपृष्ठों पर। अब आज का ही समाचार पत्र देखें, मुखपृष्ठ पर बाबा हान सूशो बकइयाँ खड़े हैं। चीन के इस बुज़ुर्ग का कहना है कि बकइयाँ चलना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। बहुत से लोग तो अभी तक बकइयाँ शब्द को भी भूल चुके होंगे। बच्चे भी आजकल बकइयाँ कहाँ चलते हैं वे तो सीधे वॉकर में दौड़ते हैं। बस यहीं से शुरू होती है सारी गड़बड़। वाकर से कार और कार से बीमार।

पिछले चौदह वर्षों से लगातार शोध में लगे बहत्तर वर्षीय बाबा सूशो कहते हैं कि खड़े होकर चलना बहुत से रोगों को दावत देता है। इससे बचने के लिए मनुष्य को दिन में कुछ पल पशुओं की तरह चलना आवश्यक है। वे स्वयं भी इस नियम का सख्ती से पालन करते हैं और रोज सुबह उन्हें बीजिंग के बेईहाई पार्क में शांत मुद्रा में झुके, दस्ताने पहने हाथों को धरती पर रखते, कूल्हों को आकाश की ओर सीधा उठाए चलते देखा जा सकता है। वे इस कला की शिक्षा भी देते हैं। उनका कहना है कि बकइयाँ चलने के उनके इस योग शास्त्र में वनमानुष, हाथी और कंगारू जैसे पशुओं के चलने की मुद्राओं को शामिल किया गया है। इस कला के विकास की आवश्यकता उन्हें तब पड़ी जब उनकी तमाम बीमारियों के सामने डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। रीढ़ और दिल के कष्ट, माँसपेशियों के दर्द तथा उच्च-रक्तचाप की तकलीफों का सामना करने के लिए बाबा सूशो ने बढ़ई की अपनी लगी-लगाई नौकरी छोड़ी और स्वास्थ्य के लिए कमर कसी। शाओलिन कुंफ़ू में पशुओं की कुछ मुद्राओं से प्रभावित होकर उन्होंने पशुओं की तरह चलने की इस कला का विकास किया, जिसमें पाँच पशुओं की चालों को आधार बनाया और अपने कष्टों से छुटकारा पाया। ज़ाहिर है बहुत से लोग उनसे प्रेरणा लेकर बिना दवाओं के ठीक होना चाहते हैं। उनका दावा है कि इससे रीढ़ की हड्डी और रक्तसंचार में अकल्पनीय सुधार आता है जिसके कारण एक सप्ताह में ही रोगी की दवाएँ की कम होने लगती है।

कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है। मानव जीवन का प्रारंभ बंदर से हुआ था। धीरे धीरे उसने दो पैरों पर खड़े रहना सीखा, पूँछ गायब हुई और वनमानुष इनसान बन गया। समय, संस्कृति और सभ्यता के साथ उसके रहन सहन और जीवन में परिवर्तन आए और अब विकास के बनावटी जीवन से परेशान बाबा सूशो, दुनिया को फिर से चौपाया बनने की राह दिखा रहे हैं। आ गए न घूम फिर के फिर वापस वहीं? स्वस्थ रहने के लिए लोग क्या नहीं करते? चौपायों की तरह चलना तो फिर आसान बात है। आशा रखें कि इस सबके बावजूद मानव, मानव ही बना रहेगा और पूँछ फिर से नहीं निकलेगी।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

चक्कर नौ सौ निन्यानबे का

रेल चली भई! रेल
यों तो निन्यानबे का चक्कर मुहावरों में बहुत पहले से चला आ रहा है पर इस बार के चक्कर में सौ और जुड़ गए तो धक्का ज़ोर का लगा। धक्के में और ज़ोर लगाया चीनी भाषा ने जिसमें नौ को जियु कहते हैं और इसका अर्थ होता है दीर्घकालीन। इसके चलते हज़ारों लोगों ने शुभकार्यों के लिए ९ सितंबर ०९ के दिन का चयन किया। भारतीय ज्योतिषियों की माने तो बुधवार ९ सितंबर की रात ९ बजकर ९ मिनट और ९ सैकेंड पर शनि के राशि परिवर्तन से एक दुर्लभ संयोग के साथ अभिजीत मुहूर्त था जो कार्यों की सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है।

पता नहीं चीनी के जियु से प्रभावित होकर या भारतीय ज्योतिष से दुबई में नौ सितंबर वर्ष दो हज़ार नौ में रात नौ बजकर नौ मिनट और नौ सेकेंड पर मेट्रो का उद्घाटन हुआ। यह इमारात के लिए एक बड़ा धमाका था। राजे महाराजे स्टेशन पर उपस्थित थे, टीवी पर लाइव कमेंट्री जारी थी और इसके निर्माण में भाग लेने वाले देशी विदेशी लोगों के चेहरों की चमक देखते ही बनती थी। चमक के प्रतिबिम्ब से उद्घोषकों और आम लोग भी अछूते नहीं बचे थे। हर व्यक्ति या तो उद्घाटन-स्थल पर था या फिर टीवी की लाइव कमेंट्री पर। इतना हंगामा इसलिए भी था कि इमारात की हवा ने आज तक कभी रेलगाड़ी देखी ही नहीं है। यह केवल मेट्रो ही नहीं इस देश की पहली रेलगाड़ी भी है। ७० किलोमीटर लंबे मैगनेटिक ट्रैक पर बिना ड्राइवर के चलने वाली यह मेट्रो दुनिया का सबसे बड़ा स्वचालित रेल तंत्र (ओटोमेटेड रेल सिस्टम) है। इस रेल में प्रति घंटे लगभग २७,००० लोग यात्रा करेंगे। हर ट्रेन में ५ डिब्बे रखे गए हैं जिसमें ६४३ लोगों के यात्रा करने की सुविधा है। रेल में मोबाइल और लैपटॉप का प्रयोग किया जा सकेगा, लेकिन इसमें खाना-पीना और पालतू जानवर ले जाना मना है। रेल सुबह छह बजे से रात के बारह बजे तक ९० किलो मीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ेगी। इसके एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन की दूरी डेढ़ किलोमीटर रखी गई है और फिलहाल इसकी एक लाइन ही चालू हुई है। अनुमान है कि दुबई के ३० प्रतिशत लोग इस रेल को अपने जीवन का अंग बनाएँगे। रेल के साथ-साथ हर स्टेशन पर रेल-यात्रियों को समीपस्थ स्थानों तक पहुँचाने के लिए सहयोग करती ७७८ नई चमचमाती बसें भी सड़क पर उतर आई हैं। रेल और बसें तो जगमग हैं ही, मेट्रो के स्टेशनों को भी सजाने में कोई कसर नहीं रखी गई है।

प्रमाण के लिए देखें यह बर्जुमान स्टेशन, जो स्टेशन कम और थियेटर ज्यादा मालूम होता है। यहाँ की रंगीन रौशनियों के झरने और छत से लटकते फानूसों को देखते किसी की रेल छूट जाए तो कोई अचरज की बात नहीं। इमारात को कार कल्चर वाला देश कहा जाता है। ५ साल पहले यहाँ न रेल थी न बस और न साइकिलें या और कोई वाहन। रेल और बसों के इस धमाकेदार अवतरण के बाद निश्चित तौर पर दुबई के रूप रंग के साथ सड़क संस्कृति पूरी तरह बदल जानेवाली है। कहा जाता है कि अगर आप पाँच साल से दुबई नहीं आए हैं तो रास्तों को पहचानना आपके बस की बात नहीं। इस रेल और बस क्रांति के बाद सिर्फ रास्ते ही नहीं दुबई की पूरी तस्वीर ही बदल जाने वाली है।

(दुबई मेट्रो में यात्रा करना चाहें तो यहाँ पहुँचें, गल्फ़ न्यूज़ की अर्चना शंकर आप की प्रतीक्षा में हैं।)

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

मुट्ठी में मौसम


ऊपर वाले ने इन्सान को छोटी सी मुट्ठी दी है और वैसा ही छोटा सा दिल। लेकिन इस छोटे से दिल में बड़ी से बड़ी असंभव और अज्ञात चीज़ को मुट्ठी में समेट लेने की इच्छा समय के साथ बढ़ती ही रही है। कभी ज़मीन पर अधिकार जमा लेने की इच्छा, कभी सागर को पार करने की, कभी पर्वत लांघने की, तो कभी नदियों को बाँधने की। वातानुकूलन द्वारा हम भवनों के अंदर के मौसम को भी नियंत्रित कर चुके है। विज्ञान की नई खोजों और तकनीक ने सबकुछ मुट्टी में कर लेने की इंसान की इस इच्छा का खूब साथ निभाया है। इसी क्रम में खुले आसमान के नीचे बर्फ और बारिश को नियंत्रित करने वाले कुछ प्रयोग जल्दी ही रूस के आम नागरिक के जीवन का हिस्सा हो जानेवाले हैं।

जिन्होंने मॉस्को की सर्दियाँ देखी हैं वे क्रेमलिन के सुनहरे गुंबदों पर झरती सफ़ेद बर्फ के सौंदर्य को भूले नहीं होंगे। किसी ग्रीक देवता की तरह सफेद आवरण में लिपटा इस शहर का यह पवित्र शारदीय सौन्दर्य एक नवीन योजना के अंतर्गत इतिहास में खो जाने वाला है। मास्को के नए नगरपौर, यूरी लुज़कोव ने नगर को बर्फ से मुक्त करने की योजना पर काम शुरू कर दिया है। श्रीमान लुज़कोव का कहना है कि बर्फ को नगर की सीमा से बाहर रहना चाहिए। अगर ऐसा हो सका तो शहर से लगे ग्रामीण क्षेत्रों को अधिक नमी मिलेगी जो कृषि के लिए बेहतर साबित होगी। दूसरी ओर शहर को बर्फ से मुक्त रखकर बहुत-सी समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकेगी। रूस में क्लाउड-सीडिंग तकनीक द्वारा मॉस्को का आसमान साफ़ रखने के प्रयोग पहले से किए जाते रहे हैं और इसमें काफ़ी सफलता मिली है। लुज़कोव की इस योजना के अनुसार जब भी सर्दियों के सुहाने मौसम में रूस के इस महानगर पर बर्फ के बादलों को मँडराते हुए पाया जाएगा, उन्हें तकनीक के डंडे से मार भगाया जाएगा। वे कहते हैं कि नगरवासियो को इससे बहुत से लाभ मिलेंगे। घर को गर्म रखने के खर्च में कमी आएगी, सड़कों की सफ़ाई नहीं करनी पड़ेगी और यातायात समान्य रूप से जारी रहेगा। कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि बादल भगाने की इस परियोजना से नगर के बाहरी क्षेत्रों को अतिवृष्टि का समना करना पड़ सकता है। मौसम विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक इस परियोजना को व्यवहार में नहीं लाया जाता इसके परिणामों के विषय में पहले से भविष्यवाणी करना संभव नहीं है, फिर भी अनपेक्षित परिणामों के लिए कमर कसकर रहने की जरूरत है।

कुल मिलाकर यह कि छोटे से दिल में बड़ा सा सपना पालना तो आसान है पर उसे मुट्ठी में लेने से पहले सावधानी ज़रूर बरतनी चाहिए।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

दादा विंसी के शेर का पुनर्जन्म


दादा विंसी को तो आप जानते ही होंगे, अरे वही अपने विंसी दा.... जिन्हें इतालवी भाषा में दा विंसी कहते हैं। हाँ हाँ वही जिन्होंने मोनालीसा और लास्ट सपर नाम के प्रसिद्ध चित्र बनाए हैं। यों तो वे गणितज्ञ, इंजीनियर, अन्वेषक बहुत कुछ थे पर उनके द्वारा बनाए गए कुछ खिलौने तकनीक और कला के अनुपम उदारण माने जाते हैं। इन्हीं में से एक था शेर, जो आकार में असली शेर के बराबर था, वह चलता था, मुँह खोलता था सिर को इधर उधर घुमाता था और दुम भी हिलाता था।

१४०० के युग में जब जब मानव का मशीनी ज्ञान इतना विकसित नहीं था यह खिलौना किसी आश्चर्य से कम न था। यह अद्भुत खिलौना वर्ष १५१५ में विंसी ने फ्लोरन्टाइन समाज की ओर से फ्रेंच नगर लियोन में फ्रांस के शासक फ्रांसिस प्रथम को फ्लोरेंस और फ्रांस के बीच हुए एक समझौते के अवसर पर भेंट किया था। कहते हैं कि इसके साथ एक मशीनी कोड़ा भी था। जब इस कोड़े से फ्रांसिस शेर को तीन बार मारता था तब शेर का सीना खुल जाता और फ्रांस राजशाही का प्रतीक चिह्न बाहर आ जाता। यह उपहार प्रतीकात्मक भी था। शेर फ्लोरेंस राजशाही का प्रतीक था और इस खिलौने के द्वारा यह प्रकट किया गया था कि फ्रांस फ़्लोरेंस के सीने में बसता है। १५१७ में राजा की शान में दिए गए शानदार प्रीतिभोज में इसे एक बार फिर देखा गया था।

समय के साथ यह चलने वाला लकड़ी का शेर कहाँ गुम गया इसकी विस्तृत जानकारी नहीं मिलती। लेकिन फ्रांस के एंबोइस नगर में स्थित क्लोस ल्यूस संग्रहालय में, विंसी के कार्यों पर आधारित, ३१ जनवरी २०१० तक चलने वाली एक लंबी और महत्त्वपूर्ण प्रदर्शनी के लिए, इसे रेनाटो बोरेटो नामक इंजीनियार ने फिर से बनाया है। रेनाटो के शेर में पुरानी घड़ियों की तरह चाभी भरी जाती है। पुनर्निर्माण में दा विंसी द्वारा लिखी हुई जानकारी और नक्शों की सहायता भी ली गई है। क्लोस ल्यूस संग्रहालय का विंसी से गहरा संबंध हैं। यह उनका निवास स्थान रहा है। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम तीन वर्ष यहीं बिताए थे। बाद में इसे संग्रहालय का रूप दे दिया गया। दा विंसी की अनुपस्थिति में उनके द्वारा विकसित तकनीक से बना यह शेर पुनर्जीवित होकर अपने दर्शकों के स्वागत के लिए तैयार है। अगर आप भी इसे देखना चाहें तो काम करता हुआ तकनीकी ढाँचा यहाँ और चलता हुआ खिलौना यहाँ देख सकते हैं।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

हाय गजब! कहीं तारा टूटा


तारों को ऊपरवाले ने होशियार हाथों से आसमान में चिपकाया है वे टूटते नहीं लेकिन जब टूटते हैं तो लोगों का दिल भी लूटते हैं। तारों का टूटना लोगों को कभी डराता है तो कभी आकर्षित करता है लेकिन खगोल-वैज्ञानिकों के लिए यह अध्ययन की वस्तु है। वे तारों के टूटने का समय पहले से जानकर उनके विषय में जानने के लिए तरह-तरह के उपकरणों से लैस होकर कर घंटों प्रतीक्षा करते हैं। ऐसा ही एक दिन था इमारात में विगत १२ अगस्त को जब लगभग १०० तारा-प्रेमी दुबई ऐस्ट्रोनॉमी ग्रुप के नेतृत्व में, आधी रात के बाद गहराते अंधेरे में तारों की बरसात देखने शहर से दूर रेगिस्तान के लिए निकले। शहर से दूर इसलिए कि दुबई की तेज़ रोशनी आकाश तक को इतना उजला बनाती है कि रात में भी तारे दिखाई नहीं देते।

रात एक बजे यह कारवाँ "दुबई हत्ता मार्ग" पर "मरगम" के शांत कोने में पहुँचा। अगस्त का महीना इमारात के लिए मौसम की दृष्टि से सुखद नहीं होता। बेहद गर्मी, उमस और हर समय रेत के तूफ़ान का डर- ऐसे में रेगिस्तान पर्यटकों और रेत-खेलों के शौकीनों के लिए भी बंद होता है, लेकिन आज का दिन विशेष था इसलिए सुरक्षा के विशेष प्रबंधों के साथ खगोल-वैज्ञानिकों और तारा-प्रेमियों का यह दल यहाँ आ पहुँचा। विशेष इसलिए कि सन २५८ के बाद से हर साल अगस्त के महीने में जब पृथ्वी पर्सियस के स्विफ़्ट ट्यूटल धूमकेतु की धूल के बादलों के बीच से गुज़रती है तब खुले काले आकाश में तारों की बरसात का अनोखा दृश्य देखने को मिलता है। हालाँकि तारों की बरसात जुलाई में शुरू हो चुकी थी लेकिन स्पष्ट दृश्य और साफ़ मौसम को ध्यान में रखते हुए १२ अगस्त के दिन का चुनाव किया गया। "मरगम" पहुँचते ही हवा कुछ चंचल हो उठी और ठहरे हुए धूल के कण जहाँ तहाँ समाने लगे पर आसमान शांत था और धीरे से उगते हुए चाँद ने सबको आकर्षित कर लिया। सदस्यों ने रेत पर अपने-अपने स्थान ग्रहण किए और टेलिस्कोप की नज़र आसमान की ओर मोड़ दी। दुबई ऐस्ट्रोनॉमी ग्रुप के अध्यक्ष हसन अहमद हरीरी ने तारों की अंतहीन दुनिया का परिचय दिया जबकि सबकी आँखें दूरबीन से नज़दीक खींचे गए आसमान पर टिकी रहीं।

अचानक एक तेज़ रोशनी चमकी और लकीर खींचती हुई गुम गई। आकाश पर आँखें गड़ाए लोगों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। फिर एक और रौशनी... फिर एक और... रुक रुक कर यह दृश्य बनता तो रहा लेकिन जिस तारों की बरसात का सपना लेकर लोग यहाँ पहुँचे थे वह लुका-छिपी ही खेलती रही, खुलकर सामने नहीं आई। समय बीतने लगा कुछ लोग १८० डिग्री दृश्य के लिए लेट गए। सहसा हल्की हवा शुरू हुई, शायद यह तेज़ हो जाने वाली थी। कुछ लोगों ने सुरक्षा की दृष्टि से कारों में चले जाना ठीक समझा पर कुछ सर्जिकल मास्क पहन मैदान में डटे रहे। धीरे-धीरे रेत, हवा और चाँदनी ने लोगों के आराम को छीनना शुरू किया तो गिने चुने बहादुरों को छोड़कर अधिकतर लोगों ने मैदान छोड़कर चले जाने में ही खैर समझी। कुल मिलाकर इस साल तारे तो टूटे पर हाय गज़ब! कहने को लोग तरसते ही रह गए। कोई बात नहीं अगस्त तो अगले साल फिर आनेवाला है। फ़िलहाल, आँखों देखे हाल के लिए प्रस्तुत है इस घटना का एक छोटा वीडियो टुकड़ा गल्फ़ न्यूज़ के सौजन्य से।

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ


स्वतंत्रता दिवस की अनेक शुभकामनाएँ! अमर रहे गणतंत्र हमारा! हमारी भाषा, साहित्य व संस्कृति का विकास हो और हम दुनिया में ऐसे काम कर जाएँ जिससे अपनी पारंपरिक संस्कृति के साथ-साथ वर्तमान उन्नति पर भी गर्व कर सकें। इस स्वतंत्रता दिवस पर इसी संकल्प के साथ आगे बढ़ने की ढेर सी शुभकामनाएँ एक बार फिर!

स्वतंत्रता दिवस के साथ ही आती है अभिव्यक्ति की वर्षगाँठ! आज अभिव्यक्ति अपने कार्य काल के नौ वर्ष पूरे कर दसवें वर्ष में कदम रख रही है। १५ अगस्त २००० को इसका पहला अंक मासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित हुआ था। १ जनवरी २००१ से यह पाक्षिक बनी। १ मई २००२ से यह माह में चार बार १-९-१६ और २४ तारीख को प्रकाशित होने लगी। लंबे समय तक इसी स्थिति में रहने के बाद १ जनवरी २००८ से यह साप्ताहिक रूप में हर सोमवार को प्रकाशित होती है। आज वेब पर हिन्दी पत्रिकाओं की भरमार के बावजूद हमारे पाठकों की संख्या में विस्तार हो रहा है यह उत्साह की बात है। पत्रिका की टीम का सबसे बड़ा हिस्सा तो पाठक ही होते हैं इसलिए इस शुभ अवसर पर सभी पाठकों को हार्दिक धन्यवाद जिनके निरंतर स्नेह से आज हम यहाँ पहुँचे हैं। यह आपकी पत्रिका है और उसको स्तरीय बनाए रखने में आपका सहयोग महत्वपूर्ण है। किसी भी क्षेत्र में कुछ सहयोग या सुझाव देना चाहते हैं तो आपका सदा स्वागत है। टीम में मेरे विनम्र और कर्मठ स्थायी सहयोगी प्रो. अश्विन गांधी और दीपिका जोशी के सतत प्रयत्नों के बिना इस पत्रिका के साथ इतना लंबा चलना संभव नही था। उनके लिए धन्यवाद या आभार शब्द बहुत छोटे हैं फिर भी मेरा हार्दिक आभार। प्रार्थना है कि सब सदा साथ रहें और इस यज्ञ में अग्नि प्रज्वलित रखें।

वर्षगाँठ के इस उत्सव पर हम पाठकों के लिए कुछ विशेष उपहार लाने वाले हैं। हिंदी ब्लाग टिप्स के आशीष खंडेलवाल के प्रयत्नों से 'आज का विचार' इस अंक से नए प्रारूप में प्रस्तुत है। अब जितनी बार पत्रिका अपलोड होगी हर बार नया विचार दिखाई देगा। (और हाँ यह तिरंगा भी उन्हीं के सौजन्य से।)

इस वर्ष हम सबकी प्रिय कथा लेखिका सुषम बेदी ने अभिव्यक्ति में दस कहानियाँ पूरी की हैं। कथा-प्रेमी पाठकों के लिए अगले अंक में प्रस्तुत करेंगे उनकी कहानियों का एक आकर्षक पीडीएफ़ संग्रह। इसे डाउनलोड परिसर से मुफ़्त डाउनलोड किया जा सकेगा है। अभिव्यक्ति के रंगरूप में भी कुछ परिवर्तन किए गए हैं। आकार को लंबाई में थोड़ा कम और चौड़ाई में बढ़ाया गया है जिससे पृष्ठ को ज्यादा नीचे तक न ले जाना पड़े। नया अंक तीन में से बीच के कॉलम में है। पुराना दाहिनी ओर तथा मनोरंजन और जानकारियाँ बिलकुल बाएँ स्तंभ में है। आशा है पाठक इन परिवर्तनों के संबंध में अपनी राय और सुझाव भेजते रहेंगे।