शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

कजरारी आँखों का रहस्य

कजरारी आँखों की दुनिया कायल है उस पर अरबी सुरमें में डूबी धुआँ धुआँ आँखों का जवाब नहीं उस पर भी आँखें अगर क्लियोपेट्रा की हों तो दुनिया जहान के साथ सौदर्य., स्वास्थ्य और फैशन की दुनिया के सारे वैज्ञानिकों का जीना हराम हो जाना स्वाभाविक ही है। हाल में हुई खोजों के आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि वे इन धुआँ धुआँ आँखों का 4000 साल पुराना राज खोलने में सफल हो गए हैं।

लंदन से मिले एक समाचार के अनुसार फ्रेंच शोध में पता चला है कि क्लियोपेट्रा की आँखों पर लगाए जाने वाले प्रसाधन केवल आँखों का सौंदर्य ही नहीं बढ़ाते थे बल्कि स्वास्थ्य भी दुरुस्त रखते थे। विशेषज्ञों का कहना है कि क्लियोपेट्रा की आँखों में लगाया जाने वाला कजरा आँखों को हर प्रकार के संक्रमण से बचाने की शक्ति देता था। एनालिकल केमेस्ट्री नामक एक पत्रिका का कहना है कि इस प्रसाधन में पाया जानेवाला लेड सॉल्ट आँखों के रोगों के विरुद्ध प्रतिरोधक का काम करता है। लूव्र के शोधार्थियों का विश्वास है कि अरबी आँखों का यह विन्यास शोभा के साथ साथ स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखता था। प्राथमिक स्तर पर लेड साल्ट से नाइट्रिक एसिड का जन्म होता है यह एसिड आँखों के उस प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत बनाता है जो आक्रामक बैक्टीरिया से लड़ने का काम करता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राचीम मिस्र के लोग इस प्रकार के लेड का निर्माण करते थे जो आँखों पर आक्रमण करने वाले रोगों के बैक्टीरिया के विरुद्ध प्रतिरोधक शक्ति का विकास करता था। ऐसा विश्वास भी किया जाता है कि लेड सल्फ़ाइट में पाए जाने वाले जिस गलीना नामक खनिज का प्रयोग भी आँखों के प्रसाधन में किया जाता था, वह रोगाणुरोधक तो था ही इसमें मक्खियों को दूर रखने की क्षमता थी और यह आँखों को धूप से सुरक्षित भी रखता था।


सोचती हूँ दीपावली की रात में, घी के दीपक में कपूर डालकर, हल्दी की गाँठों के बीच सूत की बाती के ऊपर चाँदी की कटोरी में पारे गए काजल में भी कुछ खास बातें रही होंगी जिन्हें हम आज बेवकूफ़ी समझकर त्याग चुके हैं। शायद इस विषय में लंदन, पेरिस और लूव्र से छपने वाले किसी भी वैज्ञानिक जरनल से पहले भारत में स्थित वैज्ञानिक संस्थाओं द्वारा प्रकाशित होने वाले किसी जरनल में यह बात प्रकाशित हो और उसी प्रकार दुनिया भर के समाचारों के मुखपृष्ठ का हिस्सा बने जैसे आज यह खबर बनी हुई है।

10 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छी जानकारी...वैसे उस काजल की कुछ तो खूबियाँ रही ही होंगी..मगर आज की आधुनिकता...कौन जाने क्या पाया-क्या खोया.

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

काजल और सुरमे की कजरारी जानकारी के लिए शुक्रिया ....

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी है। हमारे यहाँ तो आज भी ये काजल बनाया जाता है। आभार

दिगम्बर नासवा ने कहा…

काजल और कवी के रिश्ते के साथ साथ ........... आँखों और काजल के रिश्ते को भी जीवित करने की जरूरत है आज ............ ये बात दुबई के ऍफ़.ऍम. पर भी जोरशोर से बताई जा रही थी कुछ दिनों पहले .....

रश्मि प्रभा... ने कहा…

shandaar rahasya

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

बहुत सुंदर जानकारी!
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महके हृदय तुम्हारा!, मिलत, खिलत, लजियात ... ... .
संपादक : "सरस पायस"

समयचक्र ने कहा…

वैसे आज के समय में युवतियां फैशन के माहौल में काजल का उपयोग नहीं कर रही है .... मगर मैंने अनुभव किया है की कई वृद्ध महिलाए आज भी आँखों में काजल का उपयोग कर रही है ....

सुशीला पुरी ने कहा…

बहुत खूब पूर्णिमा जी, मै तो हर साल इस तरह का काजल बनाती हूँ........सुन्दर और जरुरी जानकारी .

गौतम राजऋषि ने कहा…

एकदम अनूठी और दिलचस्प जानकारी मैम।

शुक्रिया।

गुड्डोदादी ने कहा…

प्राचीन काल में मक्खन हल्दी से बना और आज के समय में बना काजल में बहुत अंतर है ईरान और अरब देश का सुरमा बहुत ही भिन्न और काला है |पाश्चात्य देशों में तो मस्कारा लगा कर आँखें सुंदर पर काजल और अरबी,इरानी सुरमे के कोई होड़ नहीं